टोडारायसिंह के तीखे तीर?

भाई आपने सुना होगा, काठ की हांडी एक बार चढ़ती है, बार बार नही।

टोडारायसिंह के तीखे तीर?

चाणक्य तुर्क नेता ने अपनी कुचालों से समाज के बुजुर्गो को झांसे में समाज की सराय को किराया पर ले अपना धंधा शुरु कर दिया। समाज के माल को बाप का माल समझा सराय को हड़पने के लिए बुजुर्गो को थाने-कचहरी चक्कर कटवाना शुरु कर दिए। सराय का किराया तो खाया ही सराय में होने वाली आय को भी हड़प लिया।


भूख चाणक्य वंशज की?

अपने आपकों चाणक्य वंशजो का युवा तुर्क नेता कहलाने वाले एक चाटूकार निजी शिक्षण संस्था के संचालक ने अपने हाथो ही अपनी कब्र खुदवा ली। चाणक्य तुर्क नेता ने अपनी कुचालों से समाज के बुजुर्गो को झांसे में समाज की सराय को किराया पर ले अपना धंधा शुरु कर दिया। समाज के माल को बाप का माल समझा सराय को हड़पने के लिए बुजुर्गो को थाने-कचहरी चक्कर कटवाना शुरु कर दिए। सराय का किराया तो खाया ही सराय में होने वाली आय को भी हड़प लिया। हड़पे भी क्यों नही चाणक्य युवा तर्क काले कोट वाले साथी ने भी ऐसा ही कर रखा है। उसने भी शेरे खामोश(कब्रस्तान) की जमीन पर अपना मकबरा बना लिया, दोनो ही थाने कचहरियों में झंूठी दलीलों के सहारे अपना बचाव करने में लगे है। अब इन मुर्खो को कौन समझाएं, झूंठ के पांव नही होते वो लंगड़े घोड़े की तरहाँ होता है और समाज में कोई बड़ा नही होता, पर चाणक्य वंशज इस युवा तर्क की भूख खत्म होने का नाम ही नही ले रही।

खुल गई कलई?:

भाई आपने सुना होगा, काठ की हांडी एक बार चढ़ती है, बार बार नही। यह कहावत हमारे यहां के दो चार कमल कांग्रेसियों पर सटीक बैठती है। अब देखो दो दशकों से अपने समाज को अपनी चिकनी चुपड़ी बातों में गुमराह कर अपना घर भरने वाले एक महाशय ने फर्जीवाड़ा कर आम लोगों का अपने परिवार व समाज को ही नही छोड़ा, यही समाज की मिलकियत को हड़पा, हड़पने का प्रयास किया, राजनीति के सहारे एक-दूसरे को लड़वाया, इन साहब की काठ की हांडी जो बार-बार चढ़ाते थे, उसकी कलई खुली समाज, आम लोग, परिवार ने उनको दूर छिंटका दिया। यहां तक इन जवाब को इनके पेंशे में भी रोज साहब लोगों की झिड़कियों से जलील होना पड़ रहा है। यही नही इन महाशय के द्वारा पेश हर कागज का बारीकी से निरीक्षण होने लगा, ऐसे में ये बेचारे करे तो क्या करे। अब हालत यह हो गए कि एक दिन बीच जबरदस्ती दावत कर लोगों को बुला अपना डेमो बनाने में लगे रहते है। दावत में जाने वाले भी मुंह छिपाकर जाते है। उनको कोई देख नही ले। कलई खुलने के बाद ऐसा ही होता है?

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जय ज्योतिबा वंशजो की?:

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सूबे का सरदार जब ज्योतिबा वंशज हो तो यहां के वंशजो को अपने हक अधिकार के लिए लड़ने की ताकत तो अपने आप ही आ जाएगी। ज्योतिबा वंशजो के साथ घटी घटना के बाद एक साथ आधा दर्जन खाकी वर्दीधारियों का स्थानान्तरण इनकी ताकत हो दर्र्शाता है। यह अलग बात है, यहां के ज्योतिबा वंशज अपने सूबे के सरदार के कम दुरंगी जमात में ज्यादा विश्वास करते हो, फिर भी सूबे के सरदार ने अपने वंशजो की जायज मांग पर कार्यवाही कर एक संदेश तो दिया ही है, जो ज्योतिबा वंशज अपने निजी स्वार्थ साधने में इधर-उधर भागते नजर आते है वो आजकल कोप भवन में नजर आ रहे हैै, क्योकि आजकल ज्योतिबा वंशजो पर सूबे के सरदार का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। यह जादू कब उतर जाएं, पता नही, फिलहाल ज्योतिबा वंशज अपने सरदार की जय-जयकार करते नही थक रहे है।

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कितनी जूतियें उठाओंगे गुलफाम?:

अपने आपको यहां की राजनीति का चाणक्य कहलवाने वाले गुलफाम की हालत धोबी के कुत्ते ही तरह हो गई, ना तो समाज में कोई घांस डाल रहा है और ना ही राजनीति में ही, बेचारे पिछले दो साल से जूतीयें उठाते-उठाते थक गए ना तो तिरगों की जाजम पर जगह मिली और ना ही दुरंगों की जाजम पर कोई बैठने दे रहा है, थक-हार के वापस तिरंगों की शरण में जाने के लिए छोटे से लकर बड़ो तक की जूतियाँ उठा रहे है। अपने आपकों यहां की राजनीति का चाणक्य कहलाने वाले गुलफाम ने साफ-सफाई वाले महकमें के चुनावों में अपनी अलग जाजम बिछाई थी, खुद तो डूबे ही साथ वालों को भी ले डूबे। सूबे एक बडेÞ नेता के आते ही अपने तीन-चार चाटूकारों के साथ वापस जाजम पर आने के लिए मिन्नते करने लगे, अब इस गुलफाम को कौन समझाएं, समाज की हो राजनीत की जाजम पर सब एक होते है, चाणक्यगिरी दिखाई तो औंधे मुंह जा गिरे, कब तक जूतियें उठाओंगे गुलफाम?


परंपरा स्वागत की?:

आजकल छुट्टभैय्या नेताओं एवं दलालों ने इस आधुनिक युग में अपनी दुकान चलाने का नया तरीका अपनाया है, जो पूरे जिले में एक बीमारी की तरह फैल रहा है। हमारे यहां जब भी कोई प्रशासनिक अधिकारी स्थानान्तरण होेकर आता है तो उसका स्वागत सत्कार करने वालों का तांता सा लग जाता है। यह एक अच्छी परंपरा भी है, इस परंपरा में मठ्ठा उस समय मिल जाता है, जब नए अधिकारी का स्वागत करते वाला अधिकारी के स्वागत की फोटो सोशल मीडिया पर वायरल कर आमजन को यह दिखाने का प्रयास किया जाता है, ये नए अधिकारी उनके खास है और उनकी दलाली की दुकान शुरु हो जाती है। नए अधिकारी को जब तक यहां के छुट्टभैय्या एवं दलालों की हरकत जान पाते, तब तक अधिकारी न जाने कितनी बार बिक चुके होते है। भई परंपरा है स्वागत की वो निभानी पड़ेगी ना?                (ये लेखक के अपने स्वयं के विचार है।)

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