जीवट के ज्वलंत प्रतीक कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी

स्वरूप देना विद्रोह का विगुल बजाना ही था

जीवट के ज्वलंत प्रतीक कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी

राजपूताने के लोग अब ब्रिटिश सरकार एवं जागीरदारों की तिहरी गुलामी में पिस रही थी, तब नवज्योति का प्रकाशन नवजागरण एवं नवजीवन का शंखवाद था।

राजपूताने के लोग अब ब्रिटिश सरकार एवं जागीरदारों की तिहरी गुलामी में पिस रही थी, तब नवज्योति का प्रकाशन नवजागरण एवं नवजीवन का शंखवाद था। रियासती भारत के लोग गुलामी में तड़प रहे थे, तब उनकी आकांक्षाओं को स्वर और स्वरूप देना विद्रोह का विगुल बजाना ही था। तब अजमेर न केवल ब्रिटिश शासित प्रदेश अजमेर-मेरवाड़ा, पड़ोस की मेवाड़, मारवाड़ और जयपुर आदि महत्वपूर्ण रिययासतों की राजनैतिक गतिविधियों का भी केन्द्र थी। अंग्रेजी राज में राष्ट्रीय विचारधारा का पत्र निकालना आसान काम नहीं था। रियासतों में तो ऐसे पत्रों का पढ़ना भी राजद्रोह माना जाता था। उस समय अखबार निकालना अत्यन्त कठिन कार्य था। विदेशी हुकूमत थी, आजादी के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी। राजस्थान के देशी रियासतों के बीच अजमेर में अंग्रेजों की सीधी हुकूमत थी। वहां शासन के विरुद्ध अखबार निकालना, जनता को अधिकारों के लिये जागृत करना, विदेशी हुकूमत के कारनामों का पर्दाफास करना, जनता को आजादी की लड़ाई में कूदने का आह्वान करना, ये जटिल प्रश्न थे, जिनका बोझ साप्ताहिक नवज्योति के माध्यम से उठाया गया। जनता में हुकूमत के भय से नवज्योति को खरीदते और पढ़ते डर लगता था। ऐसी स्थिति में भी नवज्योति ने अजमेर मेरवाड़ा के साथ-साथ राजस्थान की रियासतों में आजादी का शंखनाद किया। नवज्योति ने इस पुण्य दिवस की गरिमा के अनुरूप ही, गांधीवादी विचारधारा का सार्थक प्रचार एवं प्रसार किया, स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सहयोग दिया तथा रियासती तानाशही एवं जागीरदारी अत्याचारों का डट कर विरोध किया। जितनी ज्यादा कोशिश नवज्योति को बुझाने की की गई, उतनी ही वह ज्योति और प्रखर होती गई। नवज्योति को बन्द करने की जितनी ज्यादा तदबीर की गई, उतनी ही ज्यादा इसकी रणभेरी आजादी का अलख जगाने में गूंजती रही। नवज्योति की यह ओजमयी परम्परा एवं निर्भय अभिव्यक्ति सतत बनी रही।

राजस्थान सेवक-मण्डल ने श्री रामनारायण चौधरी के संपादन में अक्टूबर 1936 में नवज्योति में साप्ताहिक का अजमेर में प्रकाशन शुरू किया। 1941 में चौधरी वर्धा चले गए, तो पत्र की जिम्मेदारी उन्हीं के अनुज कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी ने सम्हाली। तब से नवज्योति और कप्तान साहब एक दूसरे के पर्यायवाची हो गये। नवज्योति को अंग्रेजी राज के दौरान कितनी बार सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा व उसके सम्पादक को कितनी बार जेल यात्रा करनी पड़ी, यह तो एक दिलचस्प कहानी है ही, पर इससे भी अधिक जीवटभरी कहानी है उनकी आर्थिक मोर्चों पर लड़ाई की। कप्तान साहब और उनके परिवार ने शुरू के 15 वर्षों की लम्बी लड़ाई में अपना सर्वस्व नवज्योति पर न्यौछावर कर दिया। नवज्योति का 56 वर्षों का जीवन निरन्तर प्रगति की और आगे बढ़ने की यशस्वी यात्रा है, तथा संघर्ष और विकास का लम्बा इतिहास है। नवज्योति का कालजयी जीवन समर्पण, त्याग, सेवा एवं दृढ़ संकल्पों की गाथा है। नवज्योति के संचालक एवं सम्पादक कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी स्वयं एक आदर्श स्वतंत्रता सैनानी थे, जिनका स्वतंत्रता संग्राम को आर्थिक योगदान रहा है। यह स्तुत्य है कि संचालक ने अपने बरतन-भांडे यहां तक कि साईकिल गिरवी रखकर, कर्जा लेकर, आर्थिक कष्ट सह कर भी नवज्योति को सतत् प्रज्जवलित रखा। प्रारंभिक दौर में नवज्योति को अपने अस्तित्व के लिये जो कड़ा संघर्ष करना पड़ा, वह राजस्थान में पत्रकारिता के इतिहास का एक प्रेरणादायक पृष्ठ है।

भरी जवानी में डूंगरपुर के भील क्षेत्र में, माणिक्य लाल वर्मा के साथ कप्तान दुर्गाप्रसाद ने जंगलों में रहकर आदिवासियों की सेवा का निर्णय लिया, तो उनकी सहधर्मिणी विमलादेवी भी तुरंत साथ हो लीं। वहां पर अपने पति के साथ भीलों में रचनात्मक कार्य करती थी और दिन भर धूप में पहाड़ों और जंगलों में भीलों के घर जाकर उनकी सेवा व उनका मार्ग-दर्शन करती थी और उन्हें खादी स्वावलंबन का कार्य सिखाती थी। आप वहां पांच प्राणियों सहित सिर्फ-दो रुपये महीने में गुजारा करती थी। आजादी के बाद इस कुटुम्ब को 10 वर्ष तक, 1947 से 1957 तक और भी अधिक भयंकर आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। दैनिक नवज्योति के संचालन में भारी नुकसान व कठिनाईयों व नाजुक आर्थिक स्थिति का सामना करना पड़ा। यहां तक कि एक वक्त के खाने के लाले भी पड़े रहते थे। एक दीपावली पर त्यौहार मनाने के लिए एक पैसा भी घर पर नहीं था। परन्तु सतत साधना और धैर्य के कारण नवज्योति 1948 में साप्ताहिक से दैनिक बना। इसके 12 वर्ष बाद 1960 में उसका संस्करण राजस्थान की राजधानी जयपुर में निकला। सन 1981 में वह कोटा से भी निकलने लगा। इसके बाद जोधपुर में 2004 में नवज्योति का प्रकाशन आरंभ हुआ। इस सफलता का श्रेय जाता है पत्र के संस्थापक संपादक स्व. कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी को। देशी रियासतों में होने वाले दमन और देश की स्वतंत्रता के लिए किये जाने वाले संघर्षों में इस पत्र ने अपनी  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इसी उद्देश्य को लकर अपनी यात्रा प्रारम्भ करने वाले इस पत्र ने कई कठिन तथा संकटाकीर्ण मंजिलें पार की हैं। इस लम्बी यात्रा में स्व. दुर्गाप्रसाद चौधरी का साहस, लगन तथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दृढ़निश्चय, आज की स्थिति तक पहुंचाने में सबसे बड़ा आधार रहा है। आज नवज्योति प्रदेश के जन-जीवन में एक विशष्ट स्थान रखता है। वर्तमान राजनीतिक संघर्ष में स्वाभाविक रूप से नवज्योति निरपेक्ष पत्र से यह आशा की जा सकती है कि वह किसी व्यक्ति या समय के प्रभाव से ऊपर उठकर, अपनी शानदार ऐतिहासिक परम्परा के अनुकूल जनता की अनुभूतियों को निडर तथा निष्पक्ष भाव से सामने लाता रहे। स्व. दुर्गाप्रसाद चौधरी का व्यक्तित्व सदैव ही जुझारू रहा, वे जन्मजात लीडर थे। दिसम्बर, 1932 में हंटूडी में कांग्रेस का हिन्दुस्तानी सेवादल द्वारा स्वयं सेवको ंंका एक कैम्प लगाया गया। दुर्गाप्रसाद चौधरी को स्वयं सेवकों की टोली का कप्तान नियुक्त किया गया था, तब से उन्हें सब लोग कप्तान कहकर सम्बोधित करने लगे और उन्होंने इस उपाधि के अनुसार ही कांग्रेस में, स्वयं सेवक दल का नेतृत्व संभाल कर युवकों को नमक कानून तोड़ने, विदेशी कपड़ों की होली जलाने, शराब का बहिष्कार करने आदि की प्रेरणा देकर विदेशी हुकूमत से संघर्ष करने के लिए तैयार किया। दुर्गाप्रसाद चौधरी के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार और रियासती शासकों के विरोध के बावजूद नवज्योति ने जन-साधारण की सेवा को अपना लक्ष्य बनाया। उसने एक ओर स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के लिये मित्र, पथ-प्रदर्शक का काम किया, तो दूसरी ओर गांधीवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार, स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग तथा जागीरदारी अत्याचारों का विरोध किया। नवज्योति ने अपने प्रारंभिक काल में जिन कठिनाइयों का सफलतापूर्वक निर्वहन किया है, उसके लिये उस के प्रधान सम्पादक, कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी को श्रेय जाता है, जिन्होंने अपने त्यागमय जीवन, स्थिर नीति, निडर अभिव्यक्ति और सतत सेवा से इसमें प्राण डालने में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं रखी। इसका सुफल है कि नवज्योति वटवृक्ष की तरह फल-फूल रही है। कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरी किस धातु के बने थे, उसका कुछ अंदाज उस समय के अजमेर के अंग्रेज कप्तान की गोपनीय रिपोर्ट में खुफिया टिप्पणी से लगती है।
- डॉ. जी.पी. पिलानिया

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