सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण
राष्ट्रीयकरण की नीति को अपनाया गया था
इस नीति के अंतर्गत प्रथम चरण में वर्ष 1969 में 14 बड़े- बड़े बैंकों व द्वितीय चरण में वर्ष 1980 में 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। यह निर्णय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा ऐतिहासिक माना गया था।
केंद्रीय बजट में 2 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण किए जाने की घोषणा की गई थी। देश के बैंकिंग क्षेत्र में वर्ष,1969 में राष्ट्रीयकरण की नीति को अपनाया गया था। इस नीति के अंतर्गत प्रथम चरण में वर्ष 1969 में 14 बड़े- बड़े बैंकों व द्वितीय चरण में वर्ष 1980 में 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। यह निर्णय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा ऐतिहासिक माना गया था। इससे पूर्व समस्त वाणिज्यिक बैंकिंग पर स्वामित्व एवं नियंत्रण देश के बड़े- बड़े औद्योगिक घरानों एवं पूंजीपतियों का था। बैंकों पर सामाजिक नियंत्रण किया गया था, लेकिन बैंक निजी लाभ एवं हितों के लिए पूंजीपतियों एवं औद्योगिक घरानों के व्यवसायिक हितों की पूर्ति कर रही थी। राष्ट्रीय हित एवं विकास में वाणिज्य बैंकों की भूमिका सीमित थी। सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों को लागू करने में बैंकों की भूमिका नगण्य थी राष्ट्रीयकरण की नीति ने पूंजीगत स्वामित्व एवं नियंत्रण उद्योगपतियों एवं औद्योगिक घरानों से छीन लिया था तथा सरकार की अंशधारिता 50 प्रतिशत या अधिक हो गई, जो कि अनेक सार्वजनिक बैंकों में 90 प्रतिशत तक भी रही है। इसमें कोई शक नहीं है राष्ट्रीयकरण के युग में बैंकों की भूमिका राष्ट्रीय हितों एवं नीतियों के क्रियान्वयन में गतिशील रही है। सामाजिक बैंकिंग एवं समावेशी बैंकिंग जो कि ग्रामीण एवं कृषि विकास का एक महत्वपूर्ण आधार है, को प्रोत्साहित किया गया। बैंकों की पहुंच आम जन तक हुई, जो कि पहले शहरों तक ही सीमित थी। ग्रामीण, पहाड़ी एवं दुर्गम स्थानों तक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध हुई, लेकिन नई आर्थिक नीति को समूचे देश एवं क्षेत्रों में लागू किया गया। इसके अंतर्गत वैश्वीकरण उदारीकरण एवं निजीकरण की अपेक्षा की जाने लगी। यह अपेक्षा की गई कि भारत की बैंकिंग प्रतिस्पर्धात्मक बने। अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग के व्यवहार एवं मापदंडों को लागू करें। नरसिम्मन कमेटी बनाई गई।
लगभग 3 दशक के अंतराल में ही राष्ट्रीयकरण के दोष सामने आने लगे। देश की केंद्रीय सरकारों ने बैंकों को पूंजीगत सहायता प्रदान करके खड़ा रखने की कोशिश की। बैंकों में अति मानवीकरण की दृष्टि से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना भी लाई गई, ताकि वेतन भत्तों एवं संचालनात्मक लागत में कमी की जा सके। कंप्यूटर क्रांति ने बैंकों के समक्ष कर्मचारियों की संख्यात्मक प्रभाव को चुनौती बनाया। बैंकों में गैर निष्पादित सम्पत्ति में तेजी से वृद्धि एक चुनौती बनी, जो कि आज ही बनी हुई है, जिसके अंतर्गत बैंकों द्वारा पूंजीपतियों एवं व्यापारियों को दिए गए ऋण लौटकर नहीं आए, तो बैंकों पर नए साख वितरण का दबाव बढ़ गया। सार्वजनिक बैंकों के अस्तित्व को तो बनाए रखा गया, परंतु निजी क्षेत्र में उदारवादी लाइसेंस नीति लागू की गई। पूंजीपतियों को निजी क्षेत्र में बैंक के लगाने को प्रोत्साहित किया गया। निजी क्षेत्र के बैंकों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई तथा उनकी पूंजी बाजार, विनियोग एवं बीमा के क्षेत्र में भूमिका महत्वपूर्ण हुई। ऑटोमोबाइल एवं आवास तथा रियलिटी क्षेत्र में निजी बैंकों ने अपना कारोबार बढ़ाया तथा विदेशी बैंकों को भी वाणिज्यिक आधार पर काम करने की नीति को अनुकूल बनाया, लेकिन केवल निजीकरण किए जाने से भी काम नहीं चल पाया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अपनी नियामकीय आवश्यकताओं एवं मांगों को पूरा करने के लिए वर्ष 2021 में लगभग 50 हजार करोड़ रुपए की आवश्यकता है, लेकिन सरकार के पास पूंजी समर्थन की कोई नीति नहीं है, नहीं तो सार्वजनिक क्षेत्र की अनेक बैंक संचालन भी नहीं कर पाएगी। जमाकर्ताओं के हितों की दृष्टि से जमा सुरक्षा, नियमित ब्याज व प्राथमिक क्षेत्र में न्यूनतम 40 प्रतिशत के मानदंडों को पूरा नहीं कर पाएगी।
केंद्र सरकार के पास एक विकल्प है कि अपनी अंश धारिता को बेचे तथा पूंजी उपलब्ध करवाएं, लेकिन बैंकों में बढ़ते हुए एनपीए के कारण पूंजी का क्षरण तेजी से होता जा रहा है, तो सवाल यह है कि केंद्र सरकार संरक्षक की भूमिका कैसे निभाए तथा भारतीय रिजर्व बैंक के मानदंडों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कैसे पूरा करें। तुलनात्मक रूप से निजी क्षेत्र में अधिक प्रतिस्पर्धात्मक एवं संचालन क्षमता है, उनका एनपीए स्तर कम है, उनके कर्मचारी अधिक उत्पादक एवं सक्षम माने जाते है, लेकिन सवाल यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का भविष्य क्या पूर्णतया निजीकरण किए में ही है तथा यही एक विकल्प बचा है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक की आर्थिक एवं नीति अनुसंधान विभाग द्वारा जारी अगस्त में एक लेख प्रकाशित हुआ है, जिसका मानना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण किए जाने से हानि अधिक, लाभ कम होगा। निजी क्षेत्र की बैंकिंग लाभदायकता एवं शहरी क्षेत्र तक ही अपनी भूमिका रखना चाहती है।
- डॉ. सुभाष गंगवाल
(ये लेखक के अपने विचार है)
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