कूड़े के ढेर समूची दुनिया की समस्या

कोई शहर इस समस्या से बचा नहीं है

कूड़े के ढेर समूची दुनिया की समस्या

कोई शहर इस समस्या से अछूता नहीं है। सरकार की ही माने तो हर साल इसमें 1.3 फीसदी से भी अधिक की दर से बढ़ोतरी हो रही है।

कूड़े के पहाड़ कहें या ढेर समूची दुनिया की समस्या बन चुके हैं। असलियत तो यह है कि समूची दुनिया आज कूड़े की समस्या से जूझ रही है। अपने देश को ही लें, हमारे देश के शहरों में से ही सालाना 6.2 करोड़ टन से भी ज्यादा कूड़ा निकलता है। कोई शहर इस समस्या से बचा नहीं है। सरकार की ही माने तो हर साल इसमें 1.3 फीसदी से भी अधिक की दर से बढ़ोतरी हो रही है। इसके चलते ही देश में कूड़े की समस्या ने भयावह रूप अख्तियार कर लिया है। यह समस्या उस हालत में है जबकि कूड़े के निस्तारण के लिए देश में व्यवस्थित रूप से सरकारी विभाग हैं, हजारों कार्यालय हैं और पूरे लाव-लश्कर व तामझाम के साथ लाखों की तादाद में सरकारी और स्थानीय निकायों के कर्मचारी हैं। उस हालत में कूड़ा कैसे भीषण समस्या बन गया, यह विचारणीय है। महानगरों-शहरों-कस्बों की बात छोड़िए, वे भी लाख कोशिशों के बाद भी कूड़े के दंश को झेलने को अभिशप्त हैं। अब तो देश के पहाड़ी इलाके जो सैरगाहों के लिए मशहूर थे और तीर्थ स्थल जहां आस्था के वशीभूत तीर्थ यात्री दर्शनों के लिए जाकर खुद को धन्य समझते थे, वे भी जगह-जगह ढलानों-जंगलों व निचली खाली पड़ी जगहों पर कूड़े के ढेर और कहीं-कहीं कूड़े के नए पहाड़ों की समस्या से जूझ रहे हैं। आदि कैलाश इसका जीता-जागता सबूत है जहां से केवल चार महीनों में ही 500 किलो से ज्यादा कूड़ा-कचरा निकाला जा चुका है। पर्वतीय स्थल हों या फिर धार्मिक तीर्थ स्थलों पर पर्यटन को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीति के चलते खुले रिसोर्टों ने इसमें अहम भूमिका निबाई है। यहां आने वाले पर्यटकों-तीर्थ यात्रियों द्वारा छोड़ी गई प्लास्टिक की बोतलों, पॉलिथीन, पैक्ड फूड की थैलियों सहित रिसोर्टों का कचरा दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। यह चिंतनीय है। 

देश की राजधानी दिल्ली के लिए तो कूडेÞ के पहाड़ एक भीषण समस्या बन चुके हैं। हालात इस बात के सबूत हैं कि हाल-फिलहाल यह मसला हल होने वाला भी नहीं है। इसका सबसे बडाÞ कारण तो यह है कि लाख कोशिशों के बावजूद इन कूडेÞ के पहाड़ों पर कूड़ा कम होने के बजाए दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। यहां कूड़ा कम किए जाने की दिशा में सरकारी प्रयास अभी तक नाकाफी ही साबित हुए हैं। इसका जीता जागता सबूत है कि बीते साल की तुलना में इस साल यहां पर अभी तक कूडेÞ की मात्रा में 851 टन की बढ़ोतरी होना है, जबकि साल 2024 की मार्च तक इन तीनों यथा-गाजीपुर, भलस्वा और ओखला लैंडफिल साइटों का साफ  कर दिए जाने का लक्ष्य निर्धारित है। मौजूदा हालात तो इसकी गवाही नहीं देते कि मार्च 2024 तक यह लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा। इसका सबसे अहम कारण यह है कि दिल्ली के इन कूड़े के पहाड़ों से जितना कचरा रोज निपटाया जाता है, उससे तकरीब 400 टन से ज्यादा नया कचरा रोज आ जाता है। यदि मौजूदा हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि इन तीनों लैंडफिल साइटों पर इनकी क्षमता पूरी होने के बावजूद कूड़ा पड़ना निर्बाध गति से जारी है, उस पर कोई अंकुश नहीं है। क्योंकि सरकार लाख कवायद के बावजूद इसका विकल्प ढूंढ पाने में नाकाम रही है। यही वजह है कि यहां पड़ने वाले कूडेÞ की मात्रा कम होने के बजाए लगातार बढ़ती ही जा रही है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है। उसके अनुसार देश की राजधानी दिल्ली से रोजाना निकलने वाला 54 फीसदी कूड़ा इन्हीं कूडे के पहाड़ों पर डाला जा रहा है जिसके चलते इन लैंडफिल साइटों पर पड़ने वाले कूडेÞ की मात्रा में 851 टन का इजाफा हो गया है। राजधानी दिल्ली में तकरीब 7 हजार मीट्रिक टन कूडाÞ-कचरा निकल रहा है। जबकि इसमें से अधिकांशत: प्लास्टिक, कागज, गत्ते के टुकडेÞ, धातु आदि को कचरा बीनने वाले निकाल कर बेच देते हैं। शेष तकरीब 30 फीसदी कूडे-कचरे का ढंग से निस्तारण कर पाना दिल्ली के तीनों नगर निगमों के लिए टेड़ी खीर है। कहने को तो पालिथिन पर बंदिश है लेकिन आज भी करीब 585 टन के करीब प्लास्टिक कचरा रोजाना निकल रहा है। इनमें से मेडीकल और इलैक्ट्रिक कचरा प्रदूषण में और जहर घोल रहा है। दुखदायी बात तो यह है कि इन कूड़े के पहाड़ों पर आग लगने की घटनाएं आम हो गई हैं। यही नहीं इनके आसपास के इलाके की हवा की गुणवत्ता इतनी प्रभावित हो चुकी है, जिससे जहरीली हो चुकी हवा से वहां के रहने वाले लोगों का जीना हराम हो गया है। पर्यावरण तो प्रभावित हुआ ही है, प्रदूषण बढ़ रहा है सो अलग। इससे समीपस्थ इलाके के लोगों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और वह श्वांस, अस्थमा, पेट, लीवर, आंत्रशोध, हैजा, फेफडेÞ व जलजनित आदि जानलेवा बीमारियों के शिकार हो अनचाहे मौत के मुंह में जा रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चे और बूढ़ों पर पड़ रहा है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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