चीन को लेकर भारत के रुख में आ रहा है बदलाव

सीमा विवाद को उलझाए रखता

चीन को लेकर भारत के रुख में आ रहा है बदलाव

यह तो तब है, जब भारत अपने इस पड़ोसी से  द्विपक्षीय संबंधों को मैत्रीपूर्ण और सामान्य बनाने की निरंतर और तमाम कोशिशें करता आ रहा है।

समय बीतता जा रहा है, भारत के प्रति चीन के रुख में कोई बदलाव नहीं आ रहा है। यह तो तब है, जब भारत अपने इस पड़ोसी से  द्विपक्षीय संबंधों को मैत्रीपूर्ण और सामान्य बनाने की निरंतर और तमाम कोशिशें करता आ रहा है। लेकिन चीन है कि मानता नहीं। सीमा विवाद को उलझाए रखता है। आतंकवाद हो या सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के भारतीय प्रयासों का अंतरराष्टÑीय मंचों पर विरोध करने से बाज नहीं आता। ऐसे में अब जरूरी हो भी गया है कि वह चीन के प्रति अपना नजरिया बदले। इस क्रम में भारतीय नजरिए में बदलाव के संकेत भी मिले हैं। वह भी ताइवान जलडमरू मध्य (स्ट्रेट) के सैन्यकरण को लेकर पहली बार भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। इससे पहले ताइवान पर संयम बरतने की अपील की थी। लेकिन कड़ी प्रतिक्रिया पर्याप्त नहीं। अब भारत को अपनी ताइवान नीति को मुखर बनाना होगा। कारण ताइवान एक लोकतांत्रिक देश है। उससे संबंधों को प्रगाढ़ करना समय की मांग है। वह सेमिकंडक्टर उत्पादन करने वाली बड़ी शक्ति भी है। ऐसे में कारोबारी संबंध भी बनाए जा सकते हैं। वहां की कई कंपनियां भारत में निवेश की भी इच्छुक हैं। यह सही समय है जब भारत आक्रामक चीन पर अपना दबाव बना सकता है।

भारत के रुख में आए बदलाव का आरंभ उस वक्त से शुरू हुआ जब पिछले सप्ताह श्रीलंका में नियुक्त चीनी राजदूत की झेनहोंग ने एक लेख लिखा था। इस आलेख में झेनहोंग ने श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर चीन के तथाकथित अनुसंधान वाले पोत युआन वांग-5 के लंगर डालने पर भारत, अमेरिका की ओर से जताई गई आपत्ति को लेकर यह टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था कि कुछ ताकतों की ओर से बिना प्रमाण के तथाकथित सुरक्षा चिंताओं पर आधारित बाहरी अवरोध वास्तव में श्रीलंका की संप्रभुता और स्वतंत्रता में पूरी तरह हस्तक्षेप है। श्रीलंका ने चीनी जहाज को हंबनटोटा में आने की इजाजत देकर, अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की एक नजीर पेश की है।

विश्व के तमाम कूटनीतिज्ञ विशेषज्ञों को आश्चर्य तो इस बात का हो रहा है कि चीन जो एक चीन नीति का ढिंढोरा पीटते हुए इन दिनों ताइवान की संप्रभुता और स्वतंत्रता को अपने आक्रामक सैन्य तरीके से उसकी घेरेबंदी किए बैठा है। यह घेराबंदी, अमेरिका की जनप्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पैलोसी के ताइवान दौरे के बाद से की गई। जिससे क्षेत्र की शांति और स्थिरता प्रभावित हो रही है। चीन की दोगली नीति देखिए। खुद भारत के निकट दक्षिण पड़ोसी देश श्रीलंका के बंदरगाह पर अपने खुफिया की डोकिंग कर रहा है, लेकिन उसे अक्टूबर माह में भारत के उत्तराखंड के ओली क्षेत्र में होने वाले पर्वतीय सैन्य अभ्यास पर आपत्ति जता रहा है। इसे भारत-चीन के बीच 1993 और 1997 में हुए द्विपक्षीय समझौतों के विपरीत बता रहा है। खुद लद्दाख क्षेत्र की गलवान में नित नये हथकंडों-आधारभूत ढांचे, नए गांवों को बसाने के तरीकों से सैन्य तनाव के हालात बनाए हुए हैं। क्या वह समझौते का उल्लंघन नहीं है। यहां बता दें कि भारत ने चीन की आपत्ति को खारिज कर दिया है। भारत के श्रीलंका स्थित उच्चायुक्त ने कठोरता पूर्वक शब्दों में झेनहोंग की टिप्पणी पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दी है। जिसमें कहा गया है कि उनकी टिप्पणी राजनयिक शिष्टाचार का उल्लंघन है। भारत की सोच अलग है। 

इसमें कोई दोराय नहीं कि चीन की नीयत अब साफ  हो चुकी है कि वह हिंद महासागर में अपनी ताकत बढ़ाकर खुद को महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में लगा है। इस क्षेत्र के छोटे देशों को कर्ज के जाल में फंसाकर अपनी सैन्य और रणनीतिक प्रभाव को बढ़ाना चाहता है। भारत ने चीनी कर्ज के जाल को लेकर श्रीलंका का उदाहरण देते हुए दूसरे देशों को आगाह किया। यहां बता दें कि श्रीलंका इन दिनों गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा है, उसने चीन से ऋण के पुनर्गठन का आग्रह भी किया, लेकिन उस पर चीन का मौन साधे रखना, चिंता का कारण तो है ही, इसके विपरीत भारत ने इस देश को मानवीय सहायता से लेकर आर्थिक रूप से उबरने में पूरी तरह मदद दी। भारत को तो इस बात पर भी हैरानी है कि श्रीलंका ने उसकी आपत्ति को नकारते हुए चीनी खुफिया जहाज को 16 से 22 अगस्त तक अपने बंदरगाह में लंगर डालने की इजाजत दी। जो कि भारत के सामने हिंद महासागर में सुरक्षा से जुड़ी एक बड़ी चुनौती पैदा हो गई है। यह खुद श्रीलंका के हित में भी नहीं है। श्रीलंका को भी अपनी विदेश और आर्थिक नीतियों को पुनर्निरीक्षण करने की जरूरत है। भारत को अपने क्वाड देशों अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर ठोस काम करना होगा।

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(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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