इराक में शांति और स्थिरता की बहाली जरूरी

हिंसक वारदातों की कमी और भी चिंतित कर दिया

इराक में शांति और स्थिरता की बहाली जरूरी

हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को इराक में शांति बनाए रखने की अपील तक जारी करनी पड़ी।

क्रेन-रूस युद्ध, चीन-ताइवान के बीच चल रहे तनाव भरे माहौल से गुजर रही दुनिया को, पिछले सप्ताह इराक में हिंसक वारदातों की कमी और भी चिंतित कर दिया है। हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को इराक में शांति बनाए रखने की अपील तक जारी करनी पड़ी। सुरक्षा परिषद ने सभी राजनीतिक दलों से संयम बरतने और देश में लागू होने जा रहे सुधारों को बढ़ावा देने का आह्वान किया। इराक में अराजकता भरी घटनाओं से चिंतित होकर पड़ोसी ईरान और कुवैत देशों ने बतौर सुरक्षा अपनी सीमाओं पर चौकसी बढ़ा दी। वहां रह रहे अपने-अपने नागरिकों के लिए एडवाइजरी भी जारी कर दी है। इराक के बदले हालात से सिर्फ पड़ोसी देश ही नहीं, बल्कि भारत को भी चिंतित कर दिया है। भले ही कोई सीधा खतरा ना हो, लेकिन वहां हजारों की संख्या में भारतीय कामगार हिंसा प्रभावित बसरा, नजफ  और कर्बला इलाके में रहते हैं। अपने नागरिकों की सुरक्षा के अलावा वहां से आयातित तेल आपूर्ति के प्रभावित होने की भी आशंका हैं। भारत अपने कुल आयातित तेल की एक-चौथाई आपूर्ति इराक से ही करता है। पिछले सप्ताह, इराक के कद्दावर शिया नेता और धर्म गुरु मुक्तदा अल-सद्र ने अचानक राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा क्या कर दी, जिससे दुखी होकर उनके समर्थक सड़कों पर उतर आए।  100 से अधिक लोग जख्मी हुए जिन्हें उपचार के लिए अस्पतालों में भर्ती करना पड़ा। हालात पर काबू पाने के लिए कर्फ्यू लगाने की नौबत तक बनी। राजधानी बगदाद के ग्रीन जोन स्थित संसद भवन में घुसकर प्रदर्शनकारियों ने उस पर कब्जा कर लिया। बाद में अल-सद्र की ओर से की गई अपील के बाद ही संसद भवन खाली हो सका। हालात बिगड़ने के पीछे प्रमुख कारण वहां की राजनीतिक परिस्थितियां हैं। शिया नेता अलसद्र ने संन्यास लेने के पीछे मुख्य वजह यह बताई गई कि सरकार से भ्रष्टाचार खत्म करने और देश में सुधारों को लागू करने में देश के अन्य शिया नेता और दल नाकाम रहे हैं। पिछले वर्ष अक्टूबर माह में इराक में संसदीय चुनाव हुए थे।

तीन सौ उनतीस सदस्यीय संसद में अल-सद्र के गठबंधन ने सबसे अधिक सीटें जीती थीं, लेकिन वह बहुमत अर्जित करने में कामयाब नहीं हो सका था। तभी से वहां राजनीतिक गतिरोध के हालात चले आ रहे थे। इतने लंबे अर्से से जारी रहे गतिरोध की वजह से देश के आम लोगों में निराशा घर करने लगी  थी। उस पर सुरसा की तरह बढ़ रही महंगाई और बेरोजगारी की समस्या भी गहरा जा रही थी। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का यह आंकलन भी रहा है कि अल-सद्र राजनीतिक अस्थिरता को दूर करने के लिए अन्य दलों से बात करने को लेकर भी राजी नहीं थे। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता रहा कि अन्य दल ईरान समर्थक माने जाते हैं। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि बहुमत वाले दल को देश हित में अपने पूर्वाग्रहों को त्यागते हुए गठबंधन सरकार बनाने पर जोर दिया जाता। ताकि समय रहते देश की घरेलु समस्याओं के समाधान करने के साथ वित्तीय स्थिति को भी संभाला जा सकता था। संसद में बड़े दल के नेताओं को ऐसी परिस्थितियों में चाहिए था कि वह सरकार गठित करने में अन्य लोकतांत्रिक देशों मसलन भारत, इस्राइल जैसे देशों में गठबंधन सरकार के मॉडल को अपनाते। लेकिन इराकी नेताओं के बीच संशय की राजनीति ने साझा सरकार के गठन में अवरोध पैदा किए रखा। परिणाम यह निकला कि पिछले दस माह बीतने के बावजूद ना तो राष्ट्रपति और ना ही प्रधानमंत्री चुने जा सके। तत्कालीन प्रधानमंत्री अल-कदीमी ही बतौर कार्यवाहक सरकार की कमान अब तक संभाले हुए हैं। 

इराक जैसा देश, जहां शिया आबादी साठ प्रतिशत से अधिक है, तो सुन्नी तीस फीसदी से अधिक। करीब तीन प्रतिशत ईसाई है। लोकतंत्र की कामयाबी तभी संभव है जब सभी वर्गों की शासन में भागीदारी हो। इससे विकास की संभावनाएं भी बलवती होती हैं। ऐसे में सभी वर्ग के नेताओं के बीच देश हित में समन्वय भी जरूरी है। यह सर्वविदित है कि इराक एक तेल संपन्न देश है। रूस- यूक्रेन में बीच चलते युद्ध और मौजूदा वैश्विक हालात का वह पूरा लाभ उठा सकता था, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता से वह इसका लाभ नहीं उठा सका। वह भी इस स्थिति में जब उसके समर्थन में पूरा पश्चिम है, जहां तक राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने की बात है, तो यह भी एक विकल्प हो सकता है कि देश में फिर से संसदीय चुनाव कराए जाएं। लेकिन देश के सामाजिक तानेबाने को देखते हुए। 
(ये लेखक के अपने विचार है)

 

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