इटली में दक्षिणपंथी सरकार के उदय के मायने
र्ब्रदर्स ऑफ इटली नीत गठबंधन को भारी सफलता
इटली में मेलोनी के गठबंधन की जीत से पहले इस साल अप्रैल में हुए फ्रांस में राष्ट्रपति के चुनाव में दक्षिणपंथी नेता मरीन ले पेन ने लगभग 41.5 फीसदी वोट हासिल किए थे। जो देश में यूक्रेन-युद्ध के बाद सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा।
छले सप्ताह इटली में संसदीय चुनाव सम्पन्न हुए। इसमें धुर दक्षिणपंथी पार्टी र्ब्रदर्स ऑफ इटली नीत गठबंधन को भारी सफलता मिली है। इस गठबंधन का नेतृत्व कर रही जियोर्जिया मैलोनी का अब प्रधानमंत्री बनना तय सा है। वे देश की पहली महिला प्रधानमंत्री होंगी। इस सफलता को ऐतिहासिक माना जा रहा है। माना तो यह भी जा रहा है कि इस जीत का, न केवल यूरोपीय बल्कि वैश्विक राजनीति पर भी प्रभाव पड़ सकता है। वहीं इन चुनावों ने यह भी संदेश दिया है कि सत्ताईस देशों वाले यूरोपीय संघ में अब धुर दक्षिणपंथी भावनाओं का तेजी से उभार हुआ है। जो कि मौजूदा स्थापित दलों की सरकारों के प्रति बढ़ते असंतोष का संकेत है। ऐसे में अब यह आशंकाएं भी जाहिर होने लगी हैं कि कहीं इन देशों की सरकारों और यूरोपीय संघ के बीच नीतिगत टकराव की स्थितियां ना बन जाए।
यहां यह बता दें कि इटली में मेलोनी के गठबंधन की जीत से पहले इस साल अप्रैल में हुए फ्रांस में राष्ट्रपति के चुनाव में दक्षिणपंथी नेता मरीन ले पेन ने लगभग 41.5 फीसदी वोट हासिल किए थे। जो देश में यूक्रेन-युद्ध के बाद सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा। इसी माह स्वीडन में सोशल डेमोक्रेट प्रधानमंत्री मैग्डेलेना एंडरसन की सरकार बनी और स्वीडन डेमोक्रेट दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। और अब इटली में नव-फासीवादी मूल विचारधारा वाली पार्टी अगली सरकार बनाने जा रही है।
रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध दौरान आयोजित इटली के चुनावों में मेलोनी के गठबंधन जिसमें मातेओ साल्वीनी की लीग और सिल्वियो बर्लुस्कोनी की फोर्जा इटालिया को 44 फीसदी मत मिले। इसमें भी मेलोनी की नव फासीवादी ब्रदर्स ऑफ इटली को 26 फीसदी मत मिले हैं। वहीं, प्रतिद्वंद्वी एनरिको लेट्टा के नेतृत्व वाली क्रेंद-वाम डेमोक्रेटिक पार्टी को 29 फीसदी मत ही मिले।
लेट्टा ने हार के परिणामों पर मंथन करने तथा नेता पद को छोड़ने की इच्छा जाहिर की है। उन्होंने माना कि हार के पीछे कुछ कमियां रही हैं। यहां बता दें कि देश के इतिहास में यह पहला ऐसा चुनाव है जिसमें सबसे कम मतदान हुआ है। अब आगामी 13 अक्टूबर को संसद का नया सत्र आरंभ होगा। यहां यह बता दें कि मेलोनी की पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यानी 1945 के बाद यानी 77 साल के बाद सत्ता में लौटी है। तब इसके नेता तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी थे। चुनाव दौरान मेलोनी ने अपनी नव फासीवादी जड़ों और एजेंडा ऑफ गॉड के साथ मातृभूमि और ईसाई पहचान, अप्रवासी विरोधी, कठोर राष्ट्रवादी, संरक्षणवादी, विचारों के साथ सामाजिक रूढ़ीवाद और आर्थिक कल्याणवाद के लोकलुभावन वादों के दम पर चुनाव लड़ा।
मेलोनी की पार्टी की जीत के पीछे, उनकी ओर से लिए गए उस निर्णय को भी सहायक माना जा रहा कि जिसमें उन्होंने निवर्तमान प्रधानमंत्री मारियो ड्रेगी के गठबंधन में शामिल नहीं होने का फैसला लिया था। वहीं, ऊर्जा के दामों में दस गुना वृद्धि, बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी की समस्याओं से उपजे असंतोष को भी वे भुनाने में कामयाब रहीं। उन्होंने समलैंगिकता और गर्भपात से संबंधित कानूनों में कटौती की भी वकालत की है। वे शरणार्थी समस्या के पीछे यूरोपीय संघ को जिम्मेदार मानती हैं। लेकिन यूक्रेन को रक्षा के लिए हथियार देने के जरूर पक्ष में हैं। शरणार्थी समस्या के लिए यूरोपीय संघ को जिम्मेदार बताती हैं। पूरे चुनाव में किसी भी दल के पास ऊर्जा संकट से निपटने का कोई सटीक हल नहीं है। लेकिन साल्विनी बंद पड़े परमाणु संयंत्रों को दुबारा शुरू करने की बात जरूर करते रहे। उनका इस बात पर भी जोर रहा कि यूरोपीय संघ को गैस के दामों की सीमा तय करनी चाहिए। आश्चर्य तो इस बात का रहा है कि इस साल इटली में भीषण गर्मी पड़ी और सूखा पड़ा है, लेकिन जलवायु संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन सका।
वहीं, गठबंधन में साझेदार पार्टी के नेता मातेओ साल्विनी जो अपराधों के लिए प्रवासियों को जिम्मेदार बता रहे थे। वे पूर्व में पुतिन समर्थक रहे थे। उन्होंने रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों के प्रतिबंध पर सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि इन प्रतिबंधों से इटली के आर्थिक हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। यहां बता दें कि राष्ट्रपति सर्जियो मट्टरेल्ला ने वर्ष 2021 में प्रधानमंत्री ग्यूसेप कोंटे के इस्तीफे देने के बाद, यूरोपीय केंद्रीय बैंक के पूर्व प्रमुख मारियो ड्रैगी को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया था। उन्हें राष्ट्रिय एकतावादी सरकार गठित करने के आदेश दिए थे। लेकिन उन्होंने भी अपने गठबंधन सहयोगियों का समर्थन खो दिया था। ऐसे में गत 21 जुलाई 2022 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। लेकिन अब नई सरकार के समक्ष देश की आंतरिक और विदेश नीति के मोर्चों पर चुनौतियों से निपटना होगा। आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने, महंगाई पर नियंत्रण और बेरोजगारी दूर करना, भीषण ऊर्जा संकट से निपटना, गठबंधन की एकता को बनाए रखना किसी चुनौती से कम नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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