11 साल की बहन ने सात वर्षीय भाई को दिया नया जीवन
एसएमएस अस्पताल में पहला स्टेम सेल ट्रांसप्लांट
डॉ. शर्मा ने बताया कि जिस बच्चे का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट किया, उसकी जांच में पता चला कि उसे प्योर रेड सेल एप्लासिया नाम की बीमारी हुई थी। इसमें मरीज के बैनमेरो सिस्टम में रेड ब्लड सेल बनना बंद हो जाता है।
जयपुर। सवाई मानसिंह अस्पताल में प्रदेश का पहला स्टेम सेल प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक किया गया। ट्रोमा सेंटर में हुए इस प्रत्यारोपण में सात साल के बच्चे को नया जीवन मिला है। इसमें मरीज की 11 साल की बहन ने स्टेम सेल डोनेट किए हैं। यह प्रत्यारोपण बिल्कुल बोनमैरो ट्रांसप्लांट जैसे ही होता है, लेकिन ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट बनने के बाद किसी भी ब्लड बैंक सेल में ये पहला ट्रीटमेंट किया है। एसएमएस मेडिकल कॉलेज के इम्यूनो हेमेटोलॉजी एंड ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन डिपार्टमेंट की ओर से किए इस स्टेम सेल ट्रांसप्लांट में मरीज की बड़ी बहन के शरीर से 200 एमएल पैरिफिरल ब्लड स्टेम सेल लिए गए, जिसे मरीज की बॉडी में ट्रांसफ्यूजन किया। इस प्रक्रिया में 5.30 घंटे लगे। अब बच्चे और डोनर की 4-5 दिन तक रेगुलर मॉनिटरिंग होगी। इसके लिए दोनों को ऑन्कोलॉजी वार्ड में शिफ्ट कर दिया है।
अस्पताल अधीक्षक डॉ. अचल शर्मा ने बताया कि ऐसा ट्रांसप्लांट किसी भी सरकारी हॉस्पिटल में पहली बार हुआ है, क्योंकि ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट के तहत एसएमएस ट्रोमा सेंटर के ब्लड बैंक को ही इस ट्रीटमेंट को करने का लाइसेंस मिला है। जल्द इस ट्रांसप्लांट की व्यवस्था एसएमएस हॉस्पिटल की मैन बिल्डिंग और स्टेट कैंसर इंस्टीट्यूट में बनने वाले ब्लड बैंक में भी शुरू होगी।
यू चली प्रक्रिया
एसएमएस मेडिकल कॉलेज के सीनियर प्रोफेसर डॉ. अमित शर्मा ने बताया कि इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ट्रांसफ्यूजन मेडिसिन डिपार्टमेंट के अलावा ऑन्कोलॉजी और एनेस्थीसिया डिपार्टमेंट से भी डॉक्टर्स की टीम मौजूद रही। क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा डर डोनर के लिए रहता है। डोनर के पूरे शरीर का ब्लड बाहर लेकर उसमें से जरूरी कॉम्पोनेंट्स को बाहर निकाला जाता है और वापस ब्लड चढ़ाया जाता है। इस दौरान डोनर के बीपीए हार्ट फेलियर, अचानक कैलशियम की कमी होने समेत कई तरह के समस्या आने की आशंकाएं रहती हैं।
डॉ. शर्मा ने बताया कि जिस बच्चे का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट किया, उसकी जांच में पता चला कि उसे प्योर रेड सेल एप्लासिया नाम की बीमारी हुई थी। इसमें मरीज के बैनमेरो सिस्टम में रेड ब्लड सेल बनना बंद हो जाता है। इससे मरीज को 4-5 दिन में खून की जरूरत पड़ने लगती है। ये बीमारी एक तरह से थेलेसीमिया जैसी ही होती है।
30 लाख रुपए आता है खर्च: डॉ. शर्मा ने बताया कि ऐसे मरीज का निजी हॉस्पिटल में इलाज के दौरान 30 लाख तक का खर्च आता है, क्योंकि इस बीमारी में मरीज और डोनर दोनों को कुछ दिन ऐसी ड्रग दी जाती है जो बहुत महंगी होती है। डोनर को दी जाने वाली दवा से उसके बैनमेरो सिस्टम की वर्किंग सिस्टम को बढ़ाया जाता है। इसके अलावा मरीज को ब्लड कॉम्पोनेंट्स ट्रांसफर करने और डोनर से निकालने के लिए जो मशीन और उसमें लगने वाली किट उपयोग की जाती है वह भी काफी महंगी आती है। लेकिन हमने बच्चे का इलाज चिरंजीवी योजना के तहत मुफ्त किया है।
Comment List