कितनी सुरक्षित है जीएम फसलों की खेती?
समिति ने बीटी कॉटन की मंजूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाए
यह जानना जरूरी है कि बीटी कॉटन को बोलवर्म (कपास का एक कीट) रोधी बताया गया, लेकिन कुछ साल बाद ही बीटी कॉटन की फसल दूसरे कीटों का शिकार होने लगी, जिससे बचने के लिए मजबूरन किसानों को बड़ी तादाद में कीट नाशकों का इस्तेमाल करना पड़ा।
संयुक्त राष्ट्र संघ की अगुवाई में बने गठबंधन इंटरनेशनल असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर, साइंस एंड टेक्नोलॉजी फॉर डेवलपमेंट (आईएएएसटीडी) जीएम फसलों के सुरक्षित होने पर सवाल उठाता रहा है। इसमें जीएम फसलों की उत्पादकता और कृषि तंत्र में लाभ संबंधी दावों पर संदेह जताया गया है। गौरतलब है दस साल पहले तब भारत की संसदीय समिति की रिपोर्ट ने भी इन सवालों को सही माना था और कहा था आईएएएसटीडी का हस्ताक्षरकर्ता देश होने के नाते भारत इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता। गौरतलब है इस समिति ने बीटी कॉटन की मंजूरी प्रक्रिया पर भी सवाल उठाते हुए इसकी जांच किए जाने की सिफारिश की थी। इस पर गौर करने की जरूरत है कि संसदीय समिति के सामने पेश होकर सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बॉयोलोजी के पूर्व निदेशक डॉ. पीएम भार्गव ने बताया था कि बीटी कॉटन को मंजूरी देने से पहले देश में जरूरी परीक्षण नहीं किए गए और जो परीक्षण किए गए और जो परीक्षण हुए थे वे या खुद कम्पनी ने किए थे या फिर मान्यता प्राप्त लैब में उसके दिए नमूनों पर आधारित थे। गौरतलब है भारत में बीटी कॉटन ने केवल खेती की लागत बढ़ाने का काम नहीं किया है बल्कि कपास उत्पादक किसानों को एक दुश्चक्र में उलझा दिया है। यहां यह जानना जरूरी है कि बीटी कॉटन को बोलवर्म (कपास का एक कीट) रोधी बताया गया, लेकिन कुछ साल बाद ही बीटी कॉटन की फसल दूसरे कीटों का शिकार होने लगी, जिससे बचने के लिए मजबूरन किसानों को बड़ी तादाद में कीट नाशकों का इस्तेमाल करना पड़ा।
बीटी कॉटन के गम्भीर सबूतों के बावजूद व तमाम तथ्यों को जानने के बाद भी अनुवांशिक सवंर्द्धित फसलों को लेकर इसके समर्थक तथ्य को स्वीकारने के लिए राजी नहीं हैं। यही वजह है इसके समर्थक और विरोधियों में गाहे-बगाहे वाक् युद्ध चलता रहता है। पिछले सालों में कई संसद-सत्रों में इस पर चर्चाएं होती रही हैं। गौरतलब है केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने जमीनी परीक्षण की अनुमति से पहले राज्यों की सहमति जरूरी माना है। इससे पूर्व परीक्षण का फैसला करने का अधिकार जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) को हासिल था। अब जीईएसी का एकाधिकार समाप्त हो गया है। इससे जीएम फसलों के इस्तेमाल करने या न करने की सिफारिश जीईएसी नहीं कर सकेगी। लेकिन जीएम समर्थकों को अब भी आशा है कि केंद्र सरकार जी एम फसलों के लिए कानून बनाकर इनकोे उगाने का रास्ता निश्कंटक बना देगी।
वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि जीएम प्रक्रिया के अन्तर्गत पौधे में कीटनाशक के गुण सम्मिलित हो जाते हैं, इस वजह से फसलों की गुणवत्ता पर विपरीत असर पड़ता है। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि जीएम फसलों से निश्चित ही फसल उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि होती है। आठ साल पहले बीटी बैंगन के मामले में संसदीय समिति, सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से गठित तकनीकी विशेषज्ञ समिति और पर्यावरण मंत्रालय की रपट के आधार पर बीटी बैंगन की खेती को प्रतिबंधित या स्थगित कर दिया गया था। लेकिन जीएम फसलों को देशहित में मानने वाले तमाम वैज्ञानिक शोधों, सर्वेक्षणों को दरकिनार कर एक ही रट लगाए हुए है-इससे खाद्यान्न उत्पादन कई गुना बढ़ जाएगा। यदि उनसे पूछा जाए कि इसके प्रभावों के बारे में वैज्ञानिकों की राय के बारे में उनका क्या मानना है तो उस पर मौन साध लेते हैं या कुतर्क पर उतर आते हैं।
1996 में जब जीएम फसलों की शुरुआत हुई तब से इसके समर्थक और विरोधियों में वाक् युद्ध चलता आया है। दोनों के अपने किंतु परंतु हैं और दोनों के अपने प्रमाण हैं। लेकिन यहां सवाल प्रमाण का नहीं, इससे जुड़ी खेती और किसान के भविष्य का है। यह कोई गारंटी ले सकता है कि जीएम फसलों के जितने भी प्रभाव वैज्ञानिक बताते हैं यदि वे सही साबित हुए (दुनिया के तमाम देशों में सही साबित हो चुके हैं) तो देश के किसानों का क्या होगा और ऐसे खाद्यान्न से होने वाली त्रासदी से पार पाने के लिए, उसका विकल्प क्या होगा? बीटी कपास की खेती का परिणाम हमारे सामने है। जिन किसानों ने इसे अपनाया उन्हें कितना इससे फायदा पहुंचा, इस पर गौर करने की जरूरत है। जब तक जीएम फसलों के मजबूत तथ्य हमारे सामने न आएं तब तक ‘जीएम’ को लेकर किसी तरह का निर्णय आत्मघाती ही साबित होगा। इसलिए अच्छा तो यही होगा कि अपने स्वार्थ और हठ को छोड़कर जो किसानों, पर्यावरण, धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए बेहतर हो उसे स्वीकार किया जाए। केद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआईसीआर) द्वारा उद्धृत कपास सलाहकार बोर्ड (सीएबी) के दस्तावेज के अनुसार बीटी कपास से पहले वर्षों में कपास की वृद्धि दर उच्चतर थी और 2002 में बीटी कपास के प्रवेश के बाद वह स्थिर हो गई थी। इतना ही नहीं 2001-2 से 2005-6 के दौरान, बीटी कपास पैदा होने वाला क्षेत्र 18 फीसदी था और उत्पादकता 69 फीसदी थी। लेकिन बीटी कपास के प्रवेश के बाद यह 17 फीसदी और उत्पादकता में कमी होनी शुरू हो गई। फिर तो लगातार कमी आती चली गई।
-अखिलेश आर्येन्दु
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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