समृद्ध राजस्थानी भाषा की उपेक्षा कब तक

भाषा व्यक्ति के भावों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है। पशु-पक्षी,कीट-पतंगे आदि सब जीवों की अपनी-अपनी भाषाएं हैं।

समृद्ध राजस्थानी भाषा की उपेक्षा कब तक

अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी भाषा की अपनी विशिष्ट परम्पराएं एवं परिवेश रहा है। राजस्थानी बोलने वालों की संख्या आज विश्व में 16 करोड़ तक पहुंच गई है।

भाषा व्यक्ति के भावों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम होती है। पशु-पक्षी,कीट-पतंगे आदि सब जीवों की अपनी-अपनी भाषाएं हैं। ईश्वर की सर्वोतम कृति होने के नाते मानव ने अपनी भाषा का इतना विकास कर लिया कि वो छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी बात को अपने शब्दों से प्रकट कर देता है। अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी भाषा की अपनी विशिष्ट परम्पराएं एवं परिवेश रहा है। राजस्थानी बोलने वालों की संख्या आज विश्व में 16 करोड़ तक पहुंच गई है।  हिन्दी, बंगला,तेलगू,तमिल और मराठी के बाद इस दृष्टि से राजस्थानी का ही नाम आता है। मध्यकाल में मेवाड़,ढूंढाड़,हाड़ोती,गोड़वाड़, मेरवाड़ा, शेखावाटी,जंगळधर,मेवात व सवाळख अदि नाम शुरू हुए। कर्नल जेम्स टॉड की पुस्तक एनाल्स एण्ड एंटीक्रिटीज ऑफ  राजस्थान में सर्वप्रथम राजस्थान का नाम आया, उससे पहले यह प्रदेश राजपूताना के नाम से पुकारा जाता था। आजादी मिलने के बाद इस प्रदेश का नाम राजपूताना की जगह राजस्थान रखा गया। राजस्थान के स्थानवासी नाम से यहां की भाषा का नाम राजस्थानी रखा गया। इससे स्पष्ट है कि राजस्थानी अति प्राचीन भाषा है। इसका राजस्थानी नाम जरूर नया है, पहले यह मरूभाषा के नाम से जानी जाती थी। मध्यकाल में यह मरू गुर्जर कहलाई और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात इसका नाम राजस्थानी पड़ा।


सर जॉर्ज ग्रियर्सन नें जब लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ  इण्डिया नामक महान ग्रन्थ लिखा तो उन्होंने राजस्थान में बोली जाने वाली इकसार व्याकरण के ढांचे के सभी बोलियों का एक कुटुम्ब एक परिवार माना और जैसे गुजरात की गुजराती है वैसे ही राजस्थानी भाषा को राजस्थानी नाम दिया। ग्रियर्यन के सामने भी सम्भवत: कर्नल टॉड की पुस्तक का आधार था। भाषा-भूगोल की दृष्टि से राजस्थान के पूर्व में (उत्तर-दक्षिण तक) ब्रज भाषा, दक्षिण में (पूर्व से पश्चिम तक) बुन्देली,मराठी, भीली, खानदेसी और गुजराती, पश्चिम  में (दक्षिण से उत्तर तक) सिंधी, लहंदा और उत्तर में (पश्चिम से पूर्व तक)   लहंदा,पंजाबी और बांगरू है। विंध्याचल और आबू पर्वत के बीच के पर्वतों में भीली बोली जाती है। अंग्रेजों ने अपनी राजनैतिक सुविधा के लिए मालवा को राजस्थान से अलग कर दिया, परन्तु लोक के संस्कारों, रहन-सहन, बोलचाल, वेशभूषा आदि की दृष्टि से वह राजस्थान का स्वाभाविक अंश है।  मध्यप्रदेश के सात  जिले मन्दसौर, रतलाम, राजगढ़ , उज्जैन, देवास , इन्दौर व धार को मध्यप्रदेश सरकार आज भी मालवी भाषी मानती है। हरियाणा के रोहतक, सोनीपत, हिसार, सिरसा, गुड़गांव, जीन्द ,महेन्द्रगढ़ आदि की भाषा बांगड़ू बोली राजस्थानी भाषा का ही एक रूप है। इससे यह स्पष्ट होता है कि राजस्थानी भाषा का  विस्तार कई दूसरे प्रदेशों तक है। राजनैतिक व्यवस्था और व्यवस्था के स्वरूप ने इस भाषा के विस्तार क्षेत्र को कुंठित कर दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनैतिक तौर पर मनचाहे ढंग से राजस्थानी को हिन्दी की उप भाषा मानकर इसके विकास को बहुत बड़ी क्षति पहुंचाई गई, जो आज भी पूरी नहीं हो पा रही है।


राजस्थानी समस्त राजस्थान की अपनी भाषा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी की इस बहन का कहीं किसी तरह का विरोध नहीं है। अंतर इतना ही है कि राजस्थानी राजस्थान की धरती के वासियों की मातृभाषा है। मातृभाषा से राष्ट्रभाषा का हमेशा मान बढ़ा हैै। लेकिन राजस्थान में बाहर से आए शिक्षित लोगों ने जो कि इस धरती की प्रकृति और भाषा से अंजान थे, हिन्दी को मातृभाषा बतलाना और पढ़ाना शुरू कर दिया। बिना इस अंतर को जाने या जानते हुए भी सरकारी सर्वेक्षणों में मातृभाषा के हाशिए में हिन्दी को लिख शुरू से ही राजस्थान वासियों को भ्रमित करना शुरू कर दिया। बाल मानस पर धरी यह छाप राजस्थानी भाषा की महत्ता को राजस्थान की नई पीढ़ी को निरन्तर न समझने के लिए तैयार कर दिया। इसके दुष्परिणाम स्वरूप राजस्थानी भाषा की गति और विकास को भारी धक्का लगा। बाद में इस गति को सुधारने के लिए राजस्थान वासियों को आंदोलन का सहारा लेना पड़ा। सन् 2000 में एक राष्ट्र स्तरीय संगठन खड़ा कर राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए पूरे प्रदेश में जागृति लाई गई। जगह-जगह धरने, प्रदर्शन सम्मेलन हुए। आम जन की आवाज जयपुर तक पहुंची, सुपरिणाम स्वरूप 25 अगस्त 2003 को राजस्थान विधानसभा नें सर्वसम्मति से राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता का संकल्प (प्रस्ताव) पारित कर केन्द्र सरकार को भेज दिया।


राजनैतिक उदासीनता के कारण राजस्थान सरकार की ओर से  भेजा गया वह संकल्प केन्द्र सरकार के ठंडे बस्ते में है। यदि राजस्थान सरकार चाहे तो सर्वसम्मति से पारित संकल्प को आधार मानते हुए राजस्थानी भाषा को प्रदेश में द्वितीय राजभाषा का दर्जा दे सकती है, इसमें कोई कानूनी अड़चन नहीं है। पूर्व में छत्तीसगढ़ प्रदेश में ऐसा ही हो चुका है। विश्व मातृ भाषा दिवस पर राजस्थान प्रदेश के समस्त प्रदेशवासियों का नैतिक दायित्व बनता है कि वो अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों, विधायकों ,सांसदों एवं राजनेताओं से अपनी मातृभाषा को मान्यता का सम्मान शीघ्र दिलवाने हित दबाव बनाएं।  शांतिप्रिय आंदोलन को सरकारें हमेशा नजरअंदाज करती आई हंै,इसलिए अब आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए बाल, युवा, प्रौढ़ ,वृद्ध एवं महिलाओं को अपनी ताकत दिखााने का समय आ गया है।  

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      -पवन पहाड़िया
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

   

राजस्थानी समस्त राजस्थान की अपनी भाषा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी की इस बहन का कहीं किसी तरह का विरोध नहीं है। अंतर इतना ही है कि राजस्थानी राजस्थान की धरती के वासियों की मातृभाषा है। मातृभाषा से राष्ट्रभाषा का हमेशा मान बढ़ा हैै। लेकिन राजस्थान में बाहर से आए शिक्षित लोगों ने जो कि इस धरती की प्रकृति और भाषा से अंजान थे। हिन्दी को मातृभाषा बतलाना और पढ़ाना शुरू कर दिया।

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