आतंकियों को सजा

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में 2008 में हुए सिलसिलेबार बम धमाकों में कुल 49 अपराधियों में से 38 को विशेष अदालत ने सजा-ए-मौत की सजा सुनाई है।

आतंकियों को सजा

स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे बड़ी सजा है।

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में 2008 में हुए सिलसिलेबार बम धमाकों में कुल 49 अपराधियों में से 38 को विशेष अदालत ने सजा-ए-मौत की सजा सुनाई है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे बड़ी सजा है। 38 को मृत्युदंड के अलावा 11 को उम्रकैद की सजा दी गई है। इस आतंकवादी हमले में 56 लोग मारे गए थे और 240 लोग घायल हुए थे। 70 मिनट में 21 बम फटे थे। यदि सूरत में मिले 29 बम और पट जाते तो पता नहीं कितने लोग मरते। इस मामले का फैसला आने में 14 साल लग गए जो हमारी न्याय प्रणाली पर सवाल खड़े करता है। अपराधियों को यदि दो-तीन साल में सजा मिलती और इन्हें मौत की सजा दे दी जाती तो सजा का ज्यादा असर होता। आतंकवादियों को उचित संदेश भी मिलता। लेकिन यह बात भी सही है ऐसे मामले काफी जटिल होते हैं और पुलिस को सबूत जुटाने में काफी समय भी लगता है। न्यायाधीशों ने सबूतों के आधार पर ही सजा सुनाई है तो इस फैसले को साम्प्रदायिक नजरिए से देखना उचित नहीं है जैसा देखा भी जा रहा है। इस हमले की जिम्मेदारी ‘इंडियन मुजाहिदीन’ और ‘स्टूडैंट्स इस्लामिक मूवमेंट आॅफ इंडिया’ नामक संगठनों ने ली थी। पुलिस की जांच से पता चला है कि इस हमले में गुजरात के अलावा मध्यप्रदेश उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, केरल और कर्नाटक के आतंकवादी शामिल थे। यह हमला गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के बदले में किया गया था। इन आतंकियों ने भारत के दूसरे शहरों में भी आतंकी धमाकों की झड़ी लगाई थी। इन्हें शायद पता नहीं है कि इन हमलों में मारे गए लोगों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे। इस सजा का मुख्य संदेश और संबंध यही है कि कोई भी आतंकी संगठन कितनी चालाकी करे, लेकिन वह न्याय के शिकंजे में फंसे बिना नहीं रहेगा। विशेष अदालत ने अपनी और से सजा सुनाकर मामले को अंजाम तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मगर पीड़ित परिवारों को असल न्याय तो तभी मिलेगा जब सभी दोषी फांसी पर लटकाए जाएंगें। अभी तो हर दोषी अपने बचाव में आगे की ऊपरी अदालतों के दरवाजे खटखटाएगा। पहले हाईकोर्ट, फिर सुप्रीमकोर्ट और फिर राष्ट्रपति से राहत देने का आग्रह किया जाएगा। चौदह साल तो विशेष अदालत में लग गए और आगे की अदालतों में न जाने कितना वक्त लगे? पुराने अनुभवों को देखें तो कानूनी दांवपेच खूब चलते हैं और लंबे समय तक मामले लटके रहते हैं और दोषी सजा से बचते रहते हैं। फांसी की सजा की पुष्टि के बाद भी फांसी देने में सालों तक लग जाते हैं। ऐसे में पीड़ित के लिए न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाता।


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