कश्मीरी पंडितों का हो पुनर्वास

कश्मीर के पंड़ितों पर अत्याचार हो रहे थे

कश्मीरी पंडितों का हो पुनर्वास

कश्मीरी पंड़ितों पर अत्याचार का यह सिलसिला 1990 से नहीं शुरू हुआ, इसका इतिहास बड़ा पुराना है। लगभग चार सौ साल पुराना, जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था, तब भी कश्मीरी पंड़ितों पर अत्याचार हो रहे थे।

कश्मीरी पंड़ितों पर अत्याचार का यह सिलसिला 1990 से नहीं शुरू हुआ, इसका इतिहास बड़ा पुराना है। लगभग चार सौ साल पुराना, जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था, तब भी कश्मीर के पंड़ितों पर अत्याचार हो रहे थे। हिंदुओं को प्रताड़ित किया जा रहा था। औरंगजेब के समय से ही कश्मीरी पंड़ितों और हिंदुओं को प्रताड़ित करके धर्म परिवर्तन का सिलसिला शुरू हुआ था। कश्मीर फाइल्स फिल्म के माध्यम से इन दिनों कश्मीरी पंड़ितों के पलायन और उन पर हुए बर्बर अत्याचारों का मुद्दा चर्चा में है। फिल्म में दिखाए गए दृश्यों को लेकर भी बहसें हो रही हैं। निर्माता विवेक अग्निहोत्री का कहना है कि उसने जितने भी दृश्य दिखाएं हैं, वे  सब प्रामाणिक हैं और उन कश्मीरी पंड़ितों के द्वारा बताए गए हैं, जिन्होंने वहां से पलायन किया। इसमें दो राय नहीं कि सारे दृश्य प्रामाणिक हैं लेकिन  यह भी सच है कि दृश्यों के माध्यम से जो भयावह सच सामने आता है, वह उत्तेजना उतपन्न करता ही है। वर्षों पहले जब प्रख्यात उपन्यासकार भीष्म साहनी का उपन्यास तमस आया था, तो उसकी थोड़ी-बहुत ही प्रतिक्रिया हुई लेकिन जैसे ही उपन्यास टीवी सीरियल के माध्यम से  दृश्यमान हुआ, तो देश भर में उत्तेजना फैली। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि सीरियल में  भारत विभाजन के समय के दु:खद दृश्यों को जीवंत करके दिखाने की कोशिश की गई थी।  

फिल्म को देखकर देश दुनिया भर में फैले हिंदुओं का, कश्मीरी पंड़ितों का खून खोलना स्वाभाविक था, क्योंकि वह अपने सामने आतंकवादियों  द्वारा की गई हिंसा देख रहे थे। वैसे मैं बिल्कुल मानने को राजी नहीं हूं कि हर मुसलमान आतंकवादी है। थोड़े- बहुत जरूर हो सकते हैं, लेकिन पूरी बिरादरी आतंकवादी हो और हिंदुओं से नफरत करने वाली हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिल्म में अगर एक-दो दृश्य ऐसे भी होते, जिसमें किसी मुस्लिम परिवार ने खतरे उठा कर हिंदू परिवार की सुरक्षा की तो यह फिल्म एक महान फिल्म भी बन सकती थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, इसलिए इस फिल्म की आलोचना भी हो रही है। अभी हाल ही में दक्षिण भारत की एक फिल्म आई ‘पुष्पा’ काफी चर्चित हुई। वह मैंने भी देखी लेकिन पूरी फिल्म  देख नहीं पाया, क्योंकि उसमें हर थोड़े अंतराल के बाद बेहद वीभत्स ढंग से हिंसा के दृश्य फिल्माए गए थे। एक अपराधी को महिमामंडित किया जा रहा था।  फिल्म तो खैर अपनी जगह है लेकिन असली मुद्दा यह है कि पिछले बत्तीस सालों से भारत सरकार ने कश्मीरी पंड़ितों के पुनर्वास की दिशा में आखिर क्यों कोई ठोस काम नहीं किया।  होना तो यह चाहिए था कि जिन कश्मीरी पंड़ितों को अपने घर छोड़ने पड़े, उनके घर वापस दिलाने की त्वरित कार्रवाई की जाती, उन्हें में नए घर बना कर देने चाहिए या एक पूरा आवासीय परिसर विकसित किया जाना चाहिए  था, जहां बेघर हुए कश्मीरी पंड़ितों को बसाया जाता, लेकिन इस दिशा में अब तक कोई काम नहीं हुआ।

कश्मीरी पंड़ितों पर अत्याचार का यह सिलसिला 1990 से नहीं शुरू हुआ, इसका इतिहास बड़ा पुराना है। लगभग चार सौ साल पुराना, जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था, तब भी कश्मीरी पंड़ितों पर अत्याचार हो रहे थे। हिंदुओं को प्रताड़ित किया जा रहा था। औरंगजेब के समय से ही कश्मीरी पंड़ितों और हिंदुओं को प्रताड़ित करके धर्म परिवर्तन का सिलसिला शुरू हुआ था। एक अंतराल के बाद यह सिलसिला रुका, मगर रह-रह कर या तो धर्म परिवर्तन का दबाव बनाया जाता रहा अथवा कश्मीरी पंड़ितों और हिंदुओं के साथ हिंसा का खेल होता रहा। बड़े दु:ख की बात है कि आजादी के बाद से ही कश्मीर अशांति बनी रही। पाकिस्तान में रहने वाले कुछ स्वधर्मी नागरिकों की मदद से समय-समय पर हिंसक गतिविधियां करता ही रहा, लेकिन 1990 तक आते-आते तो अति हो गई, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हजारों कश्मीरी पंड़ितों को कश्मीर छोड़ने पर विवश होना पड़ा। द कश्मीर फाइल्स के प्रदर्शन के बाद अब फिर कश्मीरी पंड़ितों पर हुए अत्याचार की चर्चा हो रही है। हिन्दू फिल्म को देखकर भावुक हो रहे हैं, रो रहे हैं और मीडिया के सामने इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि जो भी दृश्य दिखाए गए हैं, सब सच हैं।

फिल्म निर्माता ने भी यही बात कही है कि  कश्मीर पंड़ितों द्वारा जैसा बताया गया, हमने वैसा ही फिल्मांकन किया है। निर्माता की बात सही है लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि जब हादसे दृश्य में रूपांतरित होती हैं, तो वह एक तरह से जीवंत होकर सामने उपस्थित हो जाती हैं। तब उसका मानसिकता पर विपरीत असर पड़ता है। इस खतरे को समझ कर वैसे दृश्यों को धुंधला करके दिखाना चाहिए थे, मगर कश्मीर फाइल्स में ऐसा नहीं हुआ। मैं इसे फिल्मकार की कलात्मक कमजोरी मानता हूं। हमारे यहां शुरू से कहा गया है, सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात अप्रिय सत्यम। हमें सच दिखाना है लेकिन ऐसा भी सच नहीं दिखाना या कहना जो भयावह हो और उत्तेजना पैदा करने वाला हो। बहरहाल फिल्म अपनी जगह है, मगर कश्मीरी लोगों का पुनर्वास का मुद्दा अपने स्थान पर है, जिसे जल्द-से-जल्द हल किया जाना चाहिए।

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 - गिरीश पंकज (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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