कामयाब रही प्रधानमंत्री की यूरोप-यात्रा

भारत के प्रति बनी धारणा को बदलने में काफी मदद मिली है

कामयाब रही प्रधानमंत्री की यूरोप-यात्रा

तीन यूरोपीय देशों-जर्मनी, फ्रांस और डेनमार्क की यात्रा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वदेश लौट आए हैं। उनकी यात्रा कितनी कामयाब रही, इसे लेकर विश्व भर में उत्सुकता बनी रही।

तीन यूरोपीय देशों-जर्मनी, फ्रांस और डेनमार्क की यात्रा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वदेश लौट आए हैं। उनकी यात्रा कितनी कामयाब रही, इसे लेकर विश्व भर में उत्सुकता बनी रही। इसे काफी हद तक कामयाब कहा जा सकता है। यात्रा ऐसे समय पर हुई जब यूक्रेन-रूस के बीच युद्ध जारी है। इस युद्ध को लेकर रूस की निंदा नहीं करने और अपनाए गए भारतीय तटस्थ रवैये से नाराज पश्चिम की, भारत के प्रति बनी धारणा को बदलने में काफी मदद मिली है। इस यात्रा के दौरान यूरोप की दो प्रमुख आर्थिक शक्तियों जर्मनी, फ्रांस और चार नार्डिक देशों-डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड और नार्वे के समक्ष भारत ने इस युद्ध को लेकर अपने रुख को खुलकर स्पष्ट किया। युद्ध समाप्त होना चाहिए, यह किसी के भी पक्ष में हितकर नहीं, इसमें किसी भी पक्ष की जीत नहीं होगी। शांतिपूर्ण माहौल बने और वार्ता के जरिए समस्या का समाधान निकाला जाए। भारतीय रुख के प्रति सभी देशों ने सहमति जाहिर की। भारत की ओर से इन देशों से आर्थिक, रक्षा, जलवायु परिवर्तन, हरित, नवीन ऊर्जा से संबंधी द्विपक्षीय संबंधों को और प्रगाढ़ बनाने के कई समझौते हुए, जो उल्लेखनीय तो रहे ही, भविष्य में इसके परिणाम सकारात्मक रूप से सामने आएंगे। यह धारणा भी स्पष्ट हुई कि भारत रूस से अपने घनिष्ठ संबंधों के रहते हुए भी वह यूरोपीय देशों से भी विकास के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने को तत्पर है। यहां गौर करने वाली बात यह भी रही कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में निर्बाध कारोबार और पारगमन और सुरक्षा के प्रति यूरोपीय देशों का सहयोगात्मक रूझान दिखाई दिया। यूरोपीय देश जहां रूसी आक्रामकता से, तो भारत चीन की बढ़ती आक्रामकता से चिंतित हैं। ऐसे में यूरोपीय देशों और भारत के बीच सहयोग आज की जरूरत है। यूक्रेन-रूस के युद्ध की समाप्ति के बाद ही सहयोग को किस हद तक अमलीजामा पहनाया जा सकेगा, यह आने वाला समय बताएगा। लेकिन जर्मनी और फ्रांस की ओर से भारत को अच्छे संकेत मिले हैं। यह भी एक तथ्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, शीतयुद्ध दौरान और आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू करने के बावजूद कई कारणों से भारत के यूरोपीय देशों के बीच रिश्तों पर बर्फ जमी रही। लेकिन अब प्रधानमंत्री के ताजा दौरे के बाद संबंधों में जमी बर्फ पिघली है, बल्कि आने वाले दिनों में नए सिरे से गरमाहट बनी है। उम्मीद है, भविष्य में यही गरमाहट, रिश्तों को मजबूत करने में सहायक बनेंगी।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में सोवियत संघ रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका दो महाशक्ति रहे हैं। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका एक मात्र महाशक्ति के रूप रहा। इसे अब चीन की ओर से चुनौती मिल रही है। यानी अब विश्व, तीन महाशक्तियों में बंटा हुआ है। यह महाशक्तियां विकासशील और छोटे देशों को हथियारों और आर्थिक मदद और कर्ज के जरिए अपने पाले में लेने की होड़ में रहती हैं। ऐसे में इन्हें संतुलित रखने के लिए विश्व में अब एक मध्यम शक्ति के उदय की भी जरूरत है। इस दृष्टि से सोचा जाए तो यूरोप में जर्मनी और फ्रांस बड़ी ताकत है, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, आॅस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश। यदि इनमें कोई गठबंधन होता है, तो यह मध्यम शक्ति भविष्य में इन तीन बड़ी महाशक्तियों की मनमानी और गैर जिम्मेदाराना व्यवहारों पर अंकुश और संतुलन बनाए रख सकती है। जरूरत है तो सिर्फ इस ओर पहल की है। क्योंकि पिछले दो विश्व युद्धों और मौजूदा यूक्रेन-रूस के बीच चल रहे युद्ध के दुष्परिणामों से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। विश्व के कई देशों को गेहूं, पेट्रोलियम पदार्थों, इस्पात और अन्य धातुओं के संकट से गुजरना पड़ रहा है।
प्रधानमंत्री की यात्रा यूरोप में सबसे सशक्त आर्थिक शक्ति जर्मनी से शुरू हुई। वह अब एक बड़ी ताकत के रूप में उभरना चाहता है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर उसकी भी रणनीति है। कई यूरोपीय देश भी इस क्षेत्र की अहमियत समझते हुए सहयोग करना चाहते हैं। ऐसे में भारत के साथ जर्मनी के बीच सहमति बनना, उल्लेखनीय उपलब्धि रही। दोनों देश जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसलों पर भी सहयोग बढ़ाने के इच्छुक हैं। भारत का माइग्रेशन एंड मोबिलिटी पार्टनरशिप समझौता हुआ। जर्मनी को भारतीय पेशेवरों को सख्त जरूरत है और तो दूसरी ओर भारत को अपना सेवा का दायरा बढ़ाने की जरूरत। आज जर्मनी तेल-गैस और भारत रक्षा के मामलों पर रूस पर निर्भर हैं। डेनमार्क यात्रा के दौरान जलवायु परिवर्तन और प्रौद्योगिकी संबंधी नवाचारों को लेकर नौ समझौते हुए, अब उन्हें आगे बढ़ाने की कोशिश का मकसद रही यह यात्रा। अक्षय, हरित ऊर्जा के मामले में यहां की तकनीक काफी उन्नत है। दूसरी बात नार्डिक देश जिसमें नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड और आइसलैंड शामिल हैं, इन्हें अभी तक भारत ने ज्यादा अहमियत नहीं दी थी, लेकिन अब प्रधानमंत्री की यात्रा से तवज्जो मिली है। यात्रा का अंतिम पड़ाव फ्रांस रहा। मोदी वहां दुबारा चुने गए राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों से मिले। बधाई दी, द्विपक्षीय संबंधों को और प्रगाढ़ बनाने के संकेत मिले। फ्रांस हमारा अहम कूटनीतिक सहयोगी है। यूक्रेन को लेकर दोनों देशों का रूख समान है। आज मोदी और मैक्रों ही ऐसे वैश्विक नेता हैं, जो व्लादिमीर पुतिन से सीधे फोन पर बात कर सकते हैं। दोनों देशों का इस बात पर जोर रहा कि रूस के साथ बातचीत के रास्ते खुले रहने चाहिए।        
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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