डिजिटल लाइफस्टाइल का नतीजा इलेक्ट्रॉनिक कचरे में डूबती दुनिया

साल 2020-21 में ई-कचरा 4500 एफिल टावरों के बराबर हो गया था

डिजिटल लाइफस्टाइल का नतीजा इलेक्ट्रॉनिक कचरे में डूबती दुनिया

एक अनुमान के मुताबिक साल 2030 में इलेक्ट्रॉनिक कचरे का सालाना उत्पादन 7.4 करोड़ मीट्रिक टन हो जायेगा, जबकि फिलहाल करीब 6 करोड़ मीट्रिक टन है।

आज दुनिया की आबादी आठ अरब से ज्यादा है और साल 2022 के अंत में दुनिया में करीब 18 अरब मोबाइल फोन चलन में थे, इसका मतलब यह है कि दुनिया की मौजूदा आबादी के दो गुने से ज्यादा मोबाइल फोन चलन में हैं। इनमें हर साल करीब 30 से 35 मिलियन मोबाइल फोन किसी काम के नहीं रहते यानी ई-वेस्ट या कहें इलेक्ट्रॉनिक कचरे में तब्दील हो जाते हैं। दुनिया पहले से ही कई तरह के प्रदूषणों से घिरी थी, अब इनमें एक बड़ा प्रदूषण ई-कचरा भी हो गया है। भले इस बार विश्व पर्यावरण दिवस की थीम प्लास्टिक के कचरे से निपटने पर फोकस हो, लेकिन जल्द ही पर्यावरण दिवस की थीम इलेक्ट्रॉनिक  कचरे से निपटने पर भी होगी। क्योंकि एक तरफ जहां इस डिजिटल लाइफस्टाइल के कारण लोगों की पारंपरिक जीवनशैली में बहुत तेजी आ गई है, वहीं हमारी जिंदगी में पहले से ही परेशान कर रहे कई तरह के प्रदूषणों में अब ई-कचरा भी एक बड़ा प्रदूषण बन गया है। 

ज्यादा जहरीला और खतरनाक
इलेक्ट्रॉनिक कचरे  में पारा, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम पायी जाती हैं, इसलिए यह बाकी कचरों के मुकाबले  ज्यादा जहरीला और सजगता की मांग करता है।  चूंकि कचरे की चिंता से हम अपनी लाइफस्टाइल में यू-टर्न तो नहीं कर सकते, लेकिन इतना तो कर ही सकते हैं कि हम अपनी लाइफस्टाइल की जरूरतों को समझकर इलेक्टॉनिक कचरे को कम से कम पैदा होने दें।  ई - कचरा  कुदरत के दूसरे कचरों के मुकाबले कहीं ज्यादा जटिल है।

कहां से आता है ई कचरा
जिस तरह से विकासशील देशों के करीब करीब सभी शहरों में हर दिन जितना घरेलू कचरा निकलता है, वह एक जगह इकट्ठा होने पर हर एक दो साल बाद कचरे के पहाड़ के रूप में बदल जाता है। ठीक यही बात इलेक्ट्रॉनिक कचरे के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के परिदृश्य में भी लागू होती है। चाहे अमीर देश हो या गरीब, सभी देशों में बहुत तेजी से लोगों की जीवनशैली का कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण मजबूत हिस्सा बन गये हैं। चाह मोबाइल फोन हों, लैपटॉप हों, टैबलेट हों, हेयर ड्रायर हों, टोस्टर हों, हैड फोन हों, रिमोट कंट्रोल घड़ियां, लोहा, हार्ड ड्राइव, राउटर कीबोर्ड और माउस ये सब डिजिटल उपकरण हैं जो उपयोग में एक वक्त के बाद इलेक्ट्रॉनिक कचरे में बदल जाते हैं। वैसे भी इलेक्ट्रॉनिककचरे की परिभाषा यह है कि मुख्य रूप से छोड़ दिये गये या प्रयोग में नहीं आ रहे, वे उपकरण इलेक्ट्रॉनिक कचरा कहलाते हैं, जिनके संचालन के लिए बिजली का इस्तेमाल किया जाता है।

कचरे की खतरनाक दुनिया
एक अनुमान के मुताबिक साल 2030 में इलेक्ट्रॉनिक कचरे का सालाना उत्पादन 7.4 करोड़ मीट्रिक टन हो जायेगा, जबकि फिलहाल करीब 6 करोड़ मीट्रिक टन है। दुनिया में पिछले एक दशक के भीतर कितनी तेजी से ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ा है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्विटजरलैंड में आज हर साल एक व्यक्ति करीब 18 किलो ई-कचरा पैदा करता है। हालांकि भारत में इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट करने वालों की दर अभी स्विटजरलैंड के मुकाबले 10 गुना कम है, क्योंकि भारत में औसतन व्यक्ति हर साल 2 किलोग्राम इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करता है। लेकिन भारत और स्विटजरलैंड की आबादी में इतना ज्यादा फर्क है कि भले स्विटजरलैंड में हर कोई हिंदुस्तानियों के मुकाबले साल 8 गुना ई-कचरा पैदा करता हो, लेकिन जब बात कुल वजन की आती है, तो हिंदुस्तान में स्विटजरलैंड से 800 फीसदी से ज्यादा कचरा पैदा होता है। साल 2019 में भारत में 32.3 लाख मीट्रिक टन इलेक्ट्रॉनिक  कचरा पैदा हुआ था, जो कि समूचे अफ्रीका में पैदा हुए इलेक्ट्रॉनिक  कचरे से ज्यादा था। पिछले तीन सालों में भारत में यह कचरा करीब 40 लाख मीट्रिक टन सालाना हो गया है।

दुनिया में हर गुजरते दिन के साथ बढ़ रहा ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा किस कदर डरावना है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 2020-21 में यह ई-कचरा 4500 एफिल टावरों के बराबर हो गया था और अगर यह माना जाये कि 10 फीसदी की रफ्तार से पिछले तीन सालों में यह कचरा बढ़ा होगा, तो आज यह करीब 600 एफिल टावरों के बराबर हो रहा होगा। यह कितना ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक  कचरा है,इसका अनुमान इस बात से लगाइये कि कहा गया है कि न्यूयार्क से बैंकॉक और बैंकॉक से वापस न्यूयार्क तक करीब 28000 किलोमीटर लंबी सड़क इस कचरे से बनायी जा सकती है। 

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