स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माह-ए-रमजान
ईद-उल-फितर से ठीक एक माह पहले रमजान का महीना शुरू होता है। रमजान के पूरे महीने में मुसलमान रोजे यानी उपवास रखते हैं।
ईद-उल-फितर से ठीक एक माह पहले रमजान का महीना शुरू होता है। रमजान के पूरे महीने में मुसलमान रोजे यानी उपवास रखते हैं। रोजा सुबह होने से थोड़ी देर पहले आरंभ होता है और सूरज डूबने तक जारी रहता है। इस बीच खाना-पीना और विलास के सब साधन वर्जित होते हैं। रोजे की हालत में न तो कुछ खा सकते हैं न ही कुछ पी सकते हैं। यहां तक कि पानी और दवा भी नहीं ले सकते। दरअसल, रमजान का पुरा महीना एक त्योहार की भांति मनाया जाता है। बल्कि यूं कहिए कि यह महीना स्वयं एक त्योहार है। मुसलमानों में इस महीने का बड़ी उत्सुकता से इंतजार किया जाता है। जैसा कि रमजान के अंत में ईद-उल-फितर मनाने का अवसर मिलता है। ईद-उल-फितर इस्लामी कैलेण्डर के दसवें महीने शव्वाल के पहले दिन मनाया जाता है। यह त्योहार मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। इस त्योहार को सभी आपस में मिलकर मनाते हैं और खुदा से सुख और शांति के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद का पर्व बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ सैवैया है, जिसे बड़े चाव से खाया जाता हैं।
गौरतलब है कि इस्लाम धर्म के पांच मूल स्तंभ या फर्ज माने गए हैं, जो हर एक मुसलमान की अपनी जिंदगी का मूल विचार होता है। इन पांच फर्ज में एक फर्ज है, रमजान के महीने में रोजा रखना। इस्लामी कैलेंडर के नवें माह में सभी सक्षम मुसलमानों के लिए रोजा रखना अनिवार्य माना गया है। दौड़-भाग और खुदगर्जी भरी जिन्दगी के बीच इंसान को अपने भीतर झांकने और सभी बुराइयों पर लगाम लगाने की मुश्किल कवायद रोजेदार को अल्लाह के करीब पहुंचा देती है। इस माह में रोजेदार अल्लाह के नजदीक आने की कोशिश के लिए भूख-प्यास समेत तमाम इच्छाओं को रोकता हैं। इसके बदले में अल्लाह अपने उस इबादत गुलजार रोजेदार बंदे को अपनी रहमतों और बरकतों से नवाजता है। खुद को खुदा की राह में समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना माह-ए-रमजान न केवल रहमतों और बरकतों की बारिश का वकफा है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और इंसानियत का संदेश भी देता है। रमजान का यह महीना तमाम इंसानों के दुख-दर्द और भूख-प्यास को समझने का महीना है, ताकि रोजेदारों में भले-बुरे को समझने की सलाहियत पैदा हो। वैसे रोजे रखने के दो प्रमुख उद्देश्य है, दुनिया के बाकी आकर्षणों से ध्यान हटाकर अल्लाह (ईश्वर) से निकटता अनुभव की जाए और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो। ऐसे में मौजूदा हालात में रमजान का संदेश और भी प्रासंगिक हो गया है।
रमजान माह की मुख्य खूबियों की बात करें तो महीने भर के रोजे (उपवास) रखना, रात में तरावीह की नमाज पढ़ना, कुरान तिलावत (पारायण) करना, एतेकाफ बैठना यानी गांव और लोगों की अभ्युन्नती व कल्याण के लिए अल्लाह से दुआ (प्रार्थना) करते हुए मौन व्रत रखना और जकात देना शामिल हैं। रमजान में रोजा-नमाज और कुरआन की तिलावत (कुरआन पढ़ने) के साथ जकात और फितरा (दान या चैरिटी) देने का बहुत महत्व है। इस्लाम धर्म के मुताबिक पांच मूल स्तंभों में से जकात एक माना जाता है। हर मुसलमान को अपने धन में से जकात की अदायगी जरूरी है। यह दान धर्म नहीं बल्कि धार्मिक कर या टैक्स माना जाता है और फर्ज भी है। शरीयत में जकात उस माल को कहते हैं जिसे इंसान अल्लाह के दिए हुए माल में से उसके हकदारों के लिए निकालता है। इस्लाम की शरीयत के मुताबिक, हर एक समर्पित मुसलमान को साल (चन्द्र वर्ष) में अपनी आमदनी का 2.5 फीसदी हिस्सा गरीबों को दान में देना चाहिए। इस दान को जकात कहते हैं। इस बीच बड़ा सवाल कि आखिर किस-किस पर जकात देने का फर्ज हैं। अगर परिवार में पांच सदस्य हैं और वे सभी नौकरी या किसी भी जरिए पैसा कमाते हैं तो परिवार के सभी सदस्यों पर जकात देना फर्ज माना जाता है। मसलन, अगर कोई बेटा या बेटी भी नौकरी या कारोबार के जरिए पैसा कमाते हैं, तो सिर्फ उनके मां-बाप अपनी कमाई पर जकात देकर नहीं बच सकते हैं, बल्कि कमाने वाले बेटे या बेटी पर भी जकात देना फर्ज होता है। उल्लेखनीय है कि जकात के बारे में पैगंबर मुहम्मद साहब ने फरमाया है कि जो लोग रमजान के महीने में जकात नहीं देते हैं, उनके रोजे और इबादत कुबूल नहीं होती है। वहीं अगर बात करें फितरे की तो फितरा वो रकम होती है जो खाते-पीते, साधन संपन्न घरानों के लोग आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को देते हैं। ईद की नमाज से पहले इसका अदा करना जरूरी होता है। इस तरह अमीर के साथ ही गरीब की साधन संपन्न के साथ ईद भी मन जाती है। फितरे की रकम भी गरीबों, बेवाओं व यतीमों और सभी जरूरतमंदों को दी जाती है। इसके पीछे सोच यही है कि ईद के दिन कोई खाली हाथ न रहे, क्योंकि यह खुशी का दिन है। और यह खुशी का दिन सभी के लिए हो। जकात और फितरे में बड़ा फर्क यह है कि जकात देना रोजे रखने और नमाज पढ़ने जैसा ही जरूरी होता है, बल्कि फितरा देना इस्लाम के तहत जरूरी नहीं है।
-अली खान
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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