Birth Anniversary: अपनी निर्मित फिल्मों से दर्शकों को दीवाना बनाया विमल रॉय ने
बिमल रॉय ने अपनी बनायी फिल्मों के जरिए कई छुपी हुयी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का मौका दिया जिनमें संगीतकार सलिल चौधरी और गीतकार गुलजार जैसे बड़े नाम शामिल है।
मुंबई। भारतीय सिनेमा जगत में विमल रॉय को एक ऐसे फिल्मकार के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने पारिवारिक सामाजिक और साफ सुथरी फिल्में बनाकर लगभग तीन दशक तक सिने प्रेमियों के दिल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
विमल रॉय का जन्म 12 जुलाई 1909 को ढ़ाका (वर्तमान में बंगलादेश) में हुआ था। उनके पिता जमींदार थे। पिता की मृत्यु के बाद पारिवारिक विवाद के कारण उन्हें जमींदारी से बेदखल होना पड़ा। इसके बाद वह अपने परिवार को लेकर कलकत्ता चले गये। कलकता में उनकी मुलाकात फिल्मकार पी.सी. बरूआ से हुयी जिन्होंने उनकी प्रतिभा पहचान कर प्रचार सहायक के तौर पर काम करने का मौका दिया। इस बीच उनकी मुलाकात न्यू थियेटर के नितिन बोस से हुयी जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचाना और बतौर छायाकर काम करने का मौका दिया। इस दौरान उन्होंने डाकू मंसूर, माया, मुक्ति जैसी कई फिल्मों में छायांकन किया लेकिन इनसे उन्हें कोई खास फायदा नही पहुंचा। वर्ष 1936 में प्रदर्शित फिल्म देवदास बिमल राम्य के सिने करियर की अहम फिल्म साबित हुयी।फिल्म देवदास में उन्होंने बतौर छायाकार के अलावा निर्देशक पी.सी. बरूआ के साथ सहायक के तौर पर भी काम किया था।फिल्म हिट रही और वह फिल्म इंडस्ट्री में कुछ हद तक अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गये।
वर्ष 1944 में विमल रॉय ने बंग्ला फिल्म 'उयर पाथेर' का निर्देशन किया। यह फिल्म भारतीय समाज में फैले जातिगत भेदभाव से प्रेरित थी। फिल्म को जोरदार सफलता मिली। चालीस के दशक के अंत में न्यू थियेटर के बंद होने से वह मुंबई आ गये। मुंबई आने पर उन्होंने बांबे टॉकीज से जुड़े। इस काम के लिये अभिनेता अशोक कुमार ने उनकी काफी मदद की। वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म 'दो बीघा जमीन' के जरिये उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा। उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी के लिये प्रतीक चिह्न बंबई विश्वविद्यालय का राजा भाई टावर रखा। फिल्म दो बीघा जमीन उनके सिने करियर में अहम पड़ाव साबित हुई।इस फिल्म की कामयाबी के बाद बलराज साहनी और विमल रॉय शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे।
फिल्म दो बीघा जमीन के माध्यम से विमल रॉय ने एक रिक्शावाले के किरदार में बलराज साहनी के रूप में पेश किया। फिल्म की शुरूआत के समय निर्देशक विमल राय सोचते थे कि बलराज साहनी शायद इस किरदार को अच्छी तरह से निभा सके। बहुत कम लोगो को मालूम होगा कि शंभू महतो के किरदार के लिये विमल राय पहले बलराज साहनी का चयन नहीं कर नासिर हुसैन, जसराज या त्रिलोक कपूर को मौका देना चाहते थे। इसका कारण यह था कि बलराज वास्तविक जिंदगी में वह बहुत पढ़े लिखे इंसान थे। लेकिन उन्होंने विमल रॉय की सोच को गलत साबित करते हुये फिल्म में अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया। फिल्म दो बीघा जमीन से जुड़ा एक रोचक तथ्य है कि रिक्शेवाले को फिल्मी पर्दे पर साकार करने के लिये बलराज साहनी ने कोलकाता की सड़कों पर 15 दिनों तक खुद रिक्शा चलाया और रिक्शेवालों की जिंदगी के बारे में उनसे बातचीत की।
दो बीघा जमीन को आज भी भारतीय फिल्म इतिहास की सर्वश्रेष्ठ कलात्मक फिल्मों में शुमार किया जाता है। इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफी सराहा गया तथा कान फिल्म महोत्सव के दौरान इसे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इन सबके साथ ही जब फिल्म इंडस्ट्री के महान शो मैन राजकपूर ने यह फिल्म देखी तो उनकी प्रतिक्रिया रही ''मैं इस फिल्म को क्यों नहीं बना सका। '' विमल रॉय की यह खूबी रही कि वह फिल्म की पटकथा पर जोर दिया करते थे। वर्ष 1954 में प्रदर्शित फिल्म विराज बहू के निर्माण के दौरान जब उन्होंने अभिनेत्री कामिनी कौशल से पूछा कि उन्होंने उपन्यास को कितनी बार पढ़ा है तो कामिनी कौशल ने जवाब दिया ''दो बार'' इस पर उन्होंने कहा ''बीस बार पढ़ो'' बाद में फिल्म बनी तो अभिनेत्री कामिनी कौशल के अभिनय को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो गये।
वर्ष 1955 में उनके सिने करियर की एक और महत्वपूर्ण फिल्म ''देवदास'' प्रदर्शित हुयी। शरत चंद्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन और वैजयंती माला ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फिल्म की सफलता के बाद अभिनेता दिलीप कुमार ने कहा ''मैंने फिल्म इंडस्ट्री में जितना अभिनय करना था कर लिया'' वहीं वैजयंती माला को जब बतौर सह अभिनेत्री फिल्म फेयर पुरस्कार दिया जाने लगा तो उन्होंने यह कहकर पुरस्कार लौटा दिया कि यह उनकी मुख्य भूमिका वाली फिल्म थी। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म ''सुजाता'' विमन राय के सिने करियर के लिये एक और अहम फिल्म साबित हुयी। फिल्म में उन्होंनें अछूत जैसे गहन सामाजिक सरोकार वाले मुद्दे को अपनी फिल्म के माध्यम से पेश किया। फिल्म में अछूत कन्या की भूमिका नूतन ने निभायी थी।
वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म बंदिनी भारतीय सिनेमा जगत में अपनी संपूर्णता के लिये सदा याद की जायेगी। इस फिल्म से जुड़ा एक रोचक पहलू यह भी है फिल्म के निर्माण के पहले फिल्म अभिनेता अशोक कुमार की निर्माता विमल रॉय से अनबन हो गयी थी और वह किसी भी कीमत पर उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह नूतन ही थी जो हर कीमत में अशोक कुमार को अपना नायक बनाना चाहती थी। नूतन के जोर देने पर अशोक कुमार ने फिल्म बंदिनी में काम करना स्वीकार किया था। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बतौर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक सर्वाधिक फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त करने का कीर्तिमान विमल रॉय के नाम दर्ज है। उनको अपने सिने कैरियर में सात बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बिमल रॉय ने अपनी बनायी फिल्मों के जरिए कई छुपी हुयी प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का मौका दिया जिनमें संगीतकार सलिल चौधरी और गीतकार गुलजार जैसे बड़े नाम शामिल है। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म बंदिनी के जरिये गुलजार ने गीतकार के रूप में जबकि वर्ष 1953 में प्रदर्शित फिल्म दो बीघा जमीन की कामयाबी के बाद ही सलिल चौधरी फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुये थे ।
फिल्म इंडस्ट्री में विमल रॉय उन गिने चुने चंद फिल्मकारों में शामिल थे जो फिल्म की संख्या से अधिक उसकी गुणवत्ता पर यकीन रखते हैं इसलिये उन्होंने अपने तीन दशक के सिने करियर में लगभग 30 फिल्मों का ही निर्माण और निर्देशन किया। फिल्म निर्माण के अलावा उन्होंने महल, दीदार, नर्तकी और मेरी सूरत तेरी आंखे जैसी फिल्मों का संपादन भी किया। अपनी निर्मित फिल्मों से लगभग तीन दशक तक दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करने वाले महान फिल्माकार विमल रॉय 08 जनवरी 1965 को इस दुनिया को अलविदा कह गये। उनके निधन के बाद उनकी मौत के बाद उनके पुत्र जॉय विमल राय ने उनपर 55 मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण किया।
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