होली सो होली, कैसे हों होली के रंग?

होली सो होली, मतलब जो बीत गया सो बीत गया। जो बाकी बचा है उसे सम्भाला जाए और आगे बढ़ा जाए।

होली सो होली, कैसे हों होली के रंग?

होली सो होली, मतलब जो बीत गया सो बीत गया।

इए इस होली पर एक नई दृष्टि से विचार करते हैं। होली सो होली, मतलब जो बीत गया सो बीत गया। जो बाकी बचा है उसे सम्भाला जाए और आगे बढ़ा जाए। बीत गई सो बात गई, उस बात का शिकवा कौन करें। जो तीर कमान से निकल गया उस तीर का पीछा कौन करें? आपने अक्सर देखा-सुना होगा कि ज्यादातर लोग पिसे हुए को पीसते रहते हैं। जो बीत गया उसको बार-बार याद करते रहते हैं या यों कहें कि यादों की जुगाली करते रहते हैं। जो घटनाएं पूर्व में घट चुकी है उनको याद करके दुखी होने से क्या फायदा? हां, अगर कोई अच्छी बात हुई है पूर्व में तो उसे याद करके ख़ुश हुआ जा सकता है। भूतकाल में अगर कोई गलती हुई है, कोई भूल हुई है तो उसे सुधारा जा सकता है। उससे शिक्षा ली जा सकती है और आगे बढ़ा जा सकता है। लोग अक्सर बोल रहे होते हैं-हम हमारे जमाने में हम इतना काम करते थे साहब! हमारे जमाने में घी-तेल ये भाव था। हम ऐसे करते थे, वैसे करते थे। और ना जाने क्या- क्या? महिलाएं अक्सर कहती रहती हैं-हम घर का इतना काम करती थी, साथ में दस-दस बच्चों को पालती थी। खेतों में काम करती थीं, ऊपर से गाय-भैंस का काम अलग। और आजकल की ये बहुएं? तौबा-तौबा! ये सब सोच-सोच के वे दु:खी होती रहती हैं। किसी ने वर्षों पहले कोई बात कह दी तो बस उसको जिन्दगी भर पकड़े रहती है।ये जो हमारा उपचेतन (सब कौन्सियस) मन है ये चेतन मन (कॉन्शियस माइंड) का बड़ा अच्छा निजी सचिव है। पुरानी फाइल कबाड़ में से निकालकर बॉस (चेतन मन) के सामने पेश करता रहता है। फलस्वरूप आदमी भूतकाल का रोना रोता रहता है और अपने आपको दुखी करता रहता है।


याद रखिए फ्यूज बल्ब की कोई कीमत नहीं होती, चाहे वो कितने भी वॉट का रहा हो। कीमत तो जलते हुए बल्ब की ही होती है चाहे वो फिर जीरो वॉट का ही क्यों न हो! आप क्या थे, आपने क्या-क्या किया,कौन-कौन से सुख-दु:ख झेलें, उससे कोई मतलब नहीं है।आप वर्तमान में क्या हैं? आज क्या कर रहे हैं? आज क्या स्थिति है आपकी, वह मायने रखती है। आप अगर भूतकाल का ही रोना रोते रहते हैं तो तय मानिए आप एक फ्यूज बल्ब ही है। तो इस होली पर प्रण लें कि होली सो होली, मतलब बीती बातों, यादों, घटनाओं  को याद करके आप दु:खी नहीं होंगे। लोगों को माफ करना सीखें, माफ करें और आगे बढ़े। आप तो किसी को माफ करते नहीं और चाहते हैं कि भगवान आपको माफ  कर दें। ये कैसे सम्भव है? आप तो किसी का भला करते नहीं, किसी पर दया करते नहीं और भगवान से चाहते हैं कि वो आप पर दया करें, आपका भला करें। कैसी विडम्बना है? आदमी समझना नहीं चाहता बल्कि समझाना चाहता है। चाहता है कि दूसरे ही एडजस्ट करें, उसके साथ, वो किसी के साथ  ना करें। हम सदा दूसरों से ही अपेक्षा रखते हैं, क्या हम भी कभी दूसरे की अपेक्षाओं पर खरे उतरते है? मां-बाप, पत्नी, बच्चोंं, समाज, मित्रों, देश की और भगवान की भी कुछ अपेक्षाएं हैं हमसे, क्या हम उन्हें पूरा करते है? जरा ईमानदारी से सोचिएगा!


होली के रंग-होली पर हम लोग ये प्रयास करते हैं कि सामने वाले पर जरा पक्का रंग लगाया जाए जो कई दिनों तक न छूटे और वो हमको याद रखे। दुकानदार के पास जाते हैं और बोलते हैं- भैया जरा पक्का वाला रंग देना जो आसानी से नहीं उतरे।  आप किसी पर कितना भी पक्का रंग लगाएं दो, चार दिन में उतर ही जाता है। तो क्यों नहीं कोई ऐसा रंग लगाया जाए जो हरदम ही उस पर चढ़ा रहे और वो आपको हमेशा याद रखें। ऐसा कौन सा रंग हो सकता है। ऐसा रंग है प्रेम का रंग। ऐसा रंग है अपनेपन का रंग, दया का रंग, करुणा का रंग, उल्लास-उमंग-तरंग का रंग, मस्ती का रंग! दूसरों से निस्वार्थ प्रेम करके देखिए, निष्काम भाव से उनका सहयोग करके देखिए, वो आपको हमेशा याद रखेंगे। लोगों को अपना बनाने की कोशिश कीजिए। याद रखें दिल से कही बात दिल तक जाती है और देर तक असर करती है। जब निस्वार्थ भाव से खुश होकर किसी की सेवा की जाती है तो वह सीधे परमात्मा तक पहुंचती है। भगवान के रजिस्टर में आपका नाम लिखा जाता है। लोगों को खुशियां बाँटे,  उनका दु:ख हरे, उन्हें माफ  करना सीखें।
एक तो वे लोग होते हैं जो भगवान को याद करते हंै और दूसरे वे लोग होते हैं जिनको भगवान याद करते हैं।और वे वो ही लोग होते हैं जो उपरोक्त वर्णित रंग दूसरों को लगाते हैं। हम भगवान को पकड़े तो हमारी पकड़ छूट सकती है, ढीली पड़ सकती है। पर भगवान ही हमको पकड़ ले तो फिर उसकी पकड़ छुटती नहीं। पर याद रखिए अकड़ से पकड़ छूट जाती है। अत: अकड़े नहीं।उस मालिक को सब कुछ बर्दाश्त है पर किसी की अकड़ या अहंकार बर्दाश्त नहीं। आपने दूसरों को तो रंग लगा दिया अब जरा स्वयं को स्वयं रंगने का प्रयास करें। जिससे आप भी रंगीन दिखे, केवल रंगीन दिखे ही नहीं बल्कि रंगीन बने। तो स्वयं को कौन सा रंग लगाएं? इस होली से ख़ुद को भक्ति का रंग लगाएं। थोड़ी देर सुबह शाम उस मालिक की बन्दगी कर लिया करें, जिसने इतना कुछ दे रखा है और वह भी बिल्कुल फ्री! 


उसका जरा धन्यवाद कर लिया करें, आभार प्रकट कर लिया करें, उसकी देनों के प्रति। फिर अपने आपको नियमों का, मर्यादा का, अनुशासन का, मधुरता का रंग भी लगाएं। कायदे में रहोगे तो फायदे में रहोगे। अपने आपको नियमों में, मर्यादा में, अनुशासन में ढालना सीखे। अपने प्रति कठोरता और दूसरो के प्रति उदारता बरतिए। याद रखे कठिनाइयों की तरफ  चलने से जिन्दगी आसान हो जाती है और सुविधाओं की तरफ, आसानियों की तरफ भागने से जिन्दगी कठिन हो जाती है।अपने आपको मुस्कुराहट का रंग लगाएं, गाते-गुनगुनाते रहे, हंसते-हंसाते रहे। फुल बनकर मुस्कुराना जिन्दगी है, गम भुलाकर मुस्कुराना जिन्दगी है। जीत कर खुश हुए तो क्या, हार कर भी मुस्कुराना जिन्दगी है।

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         -ललित शर्मा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


होली-विशेष
याद रखिए फ्यूज बल्ब की कोई कीमत नहीं होती, चाहे वो कितने भी वॉट का रहा हो। कीमत तो जलते हुए बल्ब की ही होती है चाहे वो फिर जीरो वॉट का ही क्यों न हो! आप क्या थे, आपने क्या-क्या किया,कौन-कौन से सुख-दु:ख झेले, उससे कोई मतलब नहीं है।आप वर्तमान में क्या हैं? आज क्या कर रहे हैं?

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