Maharana Pratap Jayanti : पराक्रम और शौर्य के प्रतीक महाराणा प्रताप

Maharana Pratap Jayanti : पराक्रम और शौर्य के प्रतीक महाराणा प्रताप

भारतीय इतिहास में राजपूताने का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। यहां के रणबांकुरों ने देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने में संकोच नहीं किया।

भारतीय इतिहास में राजपूताने का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। यहां के रणबांकुरों ने देश, जाति, धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने में संकोच नहीं किया। वीरों की इस भूमि में राजपूतों के छोटे-बड़े अनेक राज्य रहे हैं, जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष किया। इन्हीं राज्यों में मेवाड़ का अपना अलग ही स्थान है। जिसमें  महाराणा प्रताप जैसे महान वीर ने जन्म लिया। मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप अपने पराक्रम और शौर्य के लिए पूरी दुनिया में मिसाल के तौर पर जाने जाते हैं। एक ऐसे राजपूत राजा जो जीवनपर्यन्त मुगलों से लड़ते रहे,जिसने जंगलों में रहना पसंद किया,लेकिन कभी विदेशी मुगलों की गुलामी स्वीकार नहीं की थी।  

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के कुम्भलगढ़ में सिसोदिया कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराणा उदयसिंह द्वितीय और माता का नाम रानी जीवंत कंवर था। महाराणा प्रताप अपने भाइयों में सबसे बड़े थे। इसलिए उनको मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया गया। महाराणा प्रताप के समय में दिल्ली पर अकबर का शासन था और अकबर की नीति हिन्दू राजाओं की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजा को अपने नियन्त्रण में लेने की थी। 1567 में जब राजकुमार प्रताप को उत्तराधिकारी बनाया गया उस वक्त उनकी उम्र केवल 27 वर्ष थी। उस वक्त मुगल सेना ने चितौड़गढ़ को चारो और से घेर लिया था। तब महाराणा उदयसिंह मुगलों से लड़ने के बजाय चितौड़गढ़ छोड़कर परिवार सहित गोगुन्दा चले गये। महाराणा प्रतापसिंह फिर से चितौड़गढ़ जाकर मुगलों से सामना करना चाहते थे। लेकिन उनके परिवार ने चितौड़गढ़ जाने से मना कर दिया। गोगुन्दा में रहते हुए महाराणा उदयसिंह और उसके विश्वासपात्रों ने मेवाड़ की अस्थायी सरकार बना ली थी। 1572 में महाराणा उदय सिंह अपने पुत्र प्रताप को महाराणा का खिताब दिया। उसके बाद उनकी मृत्यु हो गयी। वैसे महाराणा उदय सिंह अपने अंतिम समय में अपनी प्रिय रानी भटियानी के पुत्र जगमाल सिंह को राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे। प्रताप ने अपने पिता की अंतिम इच्छा के अनुसार उसके सौतेले भाई जगमाल को राजा बनाने का निश्चय किया। लेकिन मेवाड़ के विश्वासपात्र चुंडावत राजपूतों ने जगमाल सिंह को राजगद्दी छोड़ने को बाध्य कर दिया। तब जगमाल सिंह ने बदला लेने के लिए अजमेर जाकर अकबर की सेना में शामिल हो गया और उसके बदले में उसको जहाजपुर की जागीर मिल गयी। इस दौरान राजकुमार प्रताप को मेवाड़ के 54 वे शासक के साथ महाराणा का खिताब मिला। 1572 में प्रताप सिंह मेवाड़ के महाराणा बन गये थे। लेकिन वो पिछले पांच सालो में चितौड़गढ़ नहीं गये थे। महाराणा प्रताप को अपने पिता के चितौड़गढ़ को पुन: देख बिना मौत हो जाने का बहुत अफसोस था। अकबर ने चितौड़गढ़ पर तो कब्जा कर लिया था। अकबर ने कई बार अपने दूतों को महाराणा प्रताप से संधि करने के लिए भेजा। लेकिन महाराणा प्रताप ने संधि प्रस्तावों को ठुकरा दिया। 1573 में संधि प्रस्तावों को ठुकराने के बाद अकबर ने मेवाड़ का बाहरी राज्यों से सम्पर्क तोड़ दिया और मेवाड़ के सहयोगी दलों को अलग थलग कर दिया। महाराणा प्रताप ने मुगलों से सामना करने के लिए अपनी सेना को अरावली की पहाड़ियों में भेज दिया। महाराणा प्रताप खुद जंगलों में रहने लगे ताकि वो जान सकें कि स्वंत्रतता और अधिकारों को पाने के लिए कितना दर्द सहना पड़ता है। उन्होंने पत्तल पर भोजन किया, जमीन पर सोये और दाढ़ी नहीं बनाई। दरिद्रता के दौर में वो  कच्ची झोपड़ियों में रहते थे जो मिटटी और बांस की बनी होती थी। 18 जून 1576 को महाराण प्रताप के 20 हजार और मुगल सेना के 80 हजार सैनिकों के बीच हल्दीघाटी का युद्ध शुरू हो गया। उस समय मुगल सेना की कमान अकबर के सेनापति मान सिंह ने संभाली थी। महाराणा प्रताप की सेना मुगलों की सेना को खदेड़ रही थी। महाराणा प्रताप की सेना में झालामान,डोडिया भील ,रामदास राठौड़ और हाकिम खा सूर जैसे शूरवीर थे। मुगलों के पास तोपें और विशाल सेना थी। लेकिन प्रताप की सेना के पास केवल हिम्मत और साहसी जांबाजों की सेना के अलावा कुछ भी नही था। इतिहासकार कर्नल टॉड ने हल्दी घाटी के युद्व को मेवाड़ की थर्मोपल्ली की संज्ञा दी है। इस युद्व में महाराणा प्रताप का स्वामी भक्त एवं प्रिय घोड़ा चेतक मारा गया। हल्दी घाटी के युद्व में पराजय के बावजूद महाराणा प्रताप के यश और कीर्ति में कोई कमी नहीं आई। बल्कि हल्दी घाटी को इस युद्व ने समूचे भारत के स्वाधीनता प्रेमियों के लिए पूजनीय क्षेत्र बना दिया। वहीं इस युद्व ने महाराणा प्रताप को जननायक के रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्व कर दिया। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में अपने पहले पुत्र अमर सिंह को सिंहासन पर बैठाया। महाराणा प्रताप शिकार के दौरान बुरी तरह घायल हो गये और उनकी 56 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गयी।  
-रमेश सर्राफ धमोरा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Post Comment

Comment List

Latest News