नवरात्र और दुर्गोत्सव पर मिट्टी, शोला से लेकर संगमरमर और फाइबर तक की अनूठी शिल्पकला : हर राज्य में अद्भुत छटा, दुर्गा माँ की प्रतिमाओं की विविध परंपराएं   

कोलकाता का कुम्हारटोली इलाका मूर्तिकारों का तीर्थ 

नवरात्र और दुर्गोत्सव पर मिट्टी, शोला से लेकर संगमरमर और फाइबर तक की अनूठी शिल्पकला : हर राज्य में अद्भुत छटा, दुर्गा माँ की प्रतिमाओं की विविध परंपराएं   

भारत में माँ दुर्गा की पूजा केवल आस्था का पर्व नहीं है, बल्कि कारीगरों की अद्भुत कला और परंपराओं का भी जीवंत उत्सव है

जयपुर डेस्क। भारत में माँ दुर्गा की पूजा केवल आस्था का पर्व नहीं है, बल्कि कारीगरों की अद्भुत कला और परंपराओं का भी जीवंत उत्सव है। नवरात्र और दुर्गा पूजा के दिनों में देश के अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग सामग्रियों से गढ़ी जाने वाली प्रतिमाएं इस बात का प्रमाण हैं कि भारत की सांस्कृतिक एकता उसकी विविधता में ही बसती है।

पूर्वी भारत: मिट्टी और शोला की शिल्पकला  
पूर्वी भारत, विशेषकर पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा और त्रिपुरा की दुर्गा प्रतिमाएं विश्वप्रसिद्ध हैं। कोलकाता का कुमारटुली इलाका मूर्तिकारों का तीर्थ माना जाता है। यहां गंगा की पवित्र मिट्टी, बाँस, पुआल और शोला (सफेद हल्की लकड़ी जैसी सामग्री) से विशाल और आकर्षक प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। मुकुट और आभूषण की सजावट शोला की महीन नक्काशी से की जाती है। इन्हीं प्रतिमाओं के आकर्षण के कारण कोलकाता का दुर्गोत्सव यूनेस्को की Intangible cultural heri सूची में भी शामिल हुआ। 

उत्तर भारत: परंपरा और लोकशिल्प का मेल  
उत्तर भारत में वाराणसी और लखनऊ जैसे शहरों में गंगा तट से निकाली गई मिट्टी से प्रतिमाएं बनाने की परंपरा है। बिहार और झारखंड के गांवों में लोक कारीगर कागज-माचे और सादी मिट्टी से प्रतिमाएं तैयार करते हैं। वहीं शहरी इलाकों में बंगाल शैली का प्रभाव देखा जाता है। खास बात यह है कि यहां अस्थायी प्रतिमाओं के साथ-साथ कई मंदिरों में माँ दुर्गा की संगमरमर और धातु की स्थायी प्रतिमाएँ भी स्थापित की जाती हैं, जो पूरे साल पूजी जाती हैं।

पश्चिम भारत: अनूठी परंपराएं और आधुनिक सामग्री  
राजस्थान के सिरोही जिले में सदियों पुरानी परंपरा आज भी जीवित है - यहाँ माँ दुर्गा की प्रतिमा घी से बनाई जाती है। लगभग 200 किलो से अधिक घी से निर्मित यह प्रतिमा केवल भक्ति ही नहीं, बल्कि शिल्प की अद्वितीय मिसाल मानी जाती है। गुजरात और महाराष्ट्र में नवरात्र और दुर्गा पूजा के दौरान बड़े पंडालों में पीओपी और फाइबर की भव्य प्रतिमाएं सजती हैं, जबकि ग्रामीण और घरों में मिट्टी की प्रतिमाओं की परंपरा जीवित है। संगमरमर पर बारीक नक्काशी भी पश्चिम भारत की खासियत है।

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दक्षिण भारत: स्थायी मूर्तियों की धरोहर  
कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में माँ दुर्गा के विभिन्न रूपों की पत्थर और कांस्य धातु से बनी मूर्तियां मंदिरों की शोभा बढ़ाती हैं। मैसूर की चामुंडेश्वरी, विजयवाड़ा की कनकदुर्गा और मदुरै की मीनाक्षी देवी की प्रतिमाएं भव्यता का उदाहरण हैं। उत्सवों के समय अस्थायी प्रतिमाएं मिट्टी और लकड़ी से तैयार की जाती हैं। केरल में छोटी मूर्तियां नारियल और लकड़ी के उत्पादों से बनाई जाती हैं, जिन पर स्थानीय लोककला की झलक मिलती है। 

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महानगर: परंपरा और आधुनिकता का संगम  
दिल्ली का चिट्टरणजन पार्क पूरे उत्तर भारत में बंगाली दुर्गोत्सव का केंद्र माना जाता है। यहाँ हर साल बंगाल से विशेष ऑर्डर देकर मूर्तियां मंगाई जाती हैं। मुंबई, पुणे और बेंगलुरु जैसे शहरों में भी थीम-आधारित मूर्तियों का चलन बढ़ रहा है, जहाँ कारीगर आधुनिक पीओपी और फाइबर का इस्तेमाल कर सामाजिक संदेश देने वाली प्रतिमाएं रचते हैं।

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