रामलीला संस्कृति, आस्था और चरित्र-निर्माण का मंच

परंपरा ग्लोबल स्तर तक 

रामलीला संस्कृति, आस्था और चरित्र-निर्माण का मंच

भारतवर्ष की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं में रामलीला का एक विशिष्ट स्थान है।

भारतवर्ष की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं में रामलीला का एक विशिष्ट स्थान है। यह मात्र एक नाट्य प्रस्तुति नहीं, बल्कि हमारी सनातन विरासत, धार्मिक चेतना, और नैतिक मूल्यों का जीवंत मंचन है। रामलीला, महान भारतीय महाकाव्य ह्णरामायणह्ण का वार्षिक नाट्य-रूपांतरण है, जो नवरात्रि से विजयादशमी तक देशभर में बड़े ही श्रद्धा, उत्साह और भव्यता के साथ आयोजित की जाती है। यह आयोजन न केवल प्रभु श्रीराम के जीवन की घटनाओं को मंच पर प्रस्तुत करता है, बल्कि समाज को धर्म, साहस, करुणा, त्याग और कर्तव्य की शिक्षा भी देता है। यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों को न केवल उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती है, बल्कि उनके जीवन में नैतिकता और आध्यात्मिकता के बीज भी बोती है। रामलीला एक धार्मिक अनुष्ठान की भांति होती है, जिसमें भाग लेने वाले कलाकारों से लेकर उसे देखने वाले दर्शक तक, सभी किसी न किसी रूप में आध्यात्मिक रूपांतरण का अनुभव करते हैं।

गूढ़ नैतिक संदेश है :

यह प्रस्तुति केवल एक कथा नहीं होती, यह एक शास्त्रीय दर्शन का जीवंत अनुभव है, जो जीवन में धर्म और मर्यादा के आदर्शों को स्थापित करता है। राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, भरत, रावण, विभीषण आदि पात्रों की भूमिका में छिपे गूढ़ संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने हजारों वर्ष पूर्व थे। रामलीला के प्रत्येक दृश्य के पीछे कोई न कोई गूढ़ नैतिक संदेश छिपा होता है। श्रीराम धर्म, सत्य, त्याग और मर्यादा के प्रतीक हैं। उनका जीवन सिखाता है कि कठिनतम परिस्थितियों में भी धर्म का पालन ही सच्चा मार्ग है। माता सीता की पवित्रता, धैर्य और समर्पण महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं। हनुमान की नि:स्वार्थ भक्ति, सेवा और बलिदान युवाओं को संकल्पबद्ध जीवन की प्रेरणा देता है। भरत का त्याग,लक्ष्मण की सेवा और विभीषण की विवेकशीलता,ये सभी आदर्श चरित्र हमें सिखाते हैं कि नैतिकता, कर्तव्य और भाईचारा किसी भी समाज की रीढ़ होते हैं। रामलीला हमें यह सिखाती है कि सत्ता में रहते हुए भी नम्रता और विनम्रता बनाए रखना कितना आवश्यक है। रावण जैसे विद्वान का पतन केवल अहंकार और अधर्म के कारण होता है।

जीवन का नैतिक पाठ :

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रामलीला का प्रभाव केवल धार्मिक या आध्यात्मिक स्तर तक सीमित नहीं है,यह सामाजिक समरसता और सामूहिक चेतना का भी माध्यम है। गांव, कस्बे और शहर हर स्थान पर जब रामलीला होती है, तो पूरा समाज एक साथ जुड़ता है। बच्चे अपने जीवन का पहला नैतिक पाठ यहीं से सीखते हैं। युवा वर्ग सेवा, अनुशासन और सहभागिता के गुण अपनाते हैं। अपनी परंपरा से जुड़ाव और संतोष की अनुभूति होती है। सामाजिक वर्गों में भेदभाव मिटता है, क्योंकि मंचन और आयोजन में हर जाति, वर्ग और आयु के लोग मिलकर भाग लेते हैं। रामलीला इस तरह एक जीवंत पाठशाला बन जाती है, जहां नैतिकता,सदाचार, करुणा और कर्तव्य का शिक्षण स्वत: ही होता है। हालांकि, बीते कुछ दशकों में भौतिकवाद और डिजिटल युग की बढ़ती चकाचौंध ने सांस्कृतिक परंपराओं को गहराई से प्रभावित किया है। मोबाइल,इंटरनेट,ओटीटी प्लेटफॉर्म और टेलीविजन जैसे मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने सामूहिक आयोजनों की जगह लेना शुरू कर दिया है।

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परंपरा से अनभिज्ञ :

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इसका प्रभाव यह हुआ है कि युवा वर्ग की रामलीला में रुचि कम होने लगी है। दर्शकों की संख्या में कमी आई है। मंचन की गुणवत्ता और गंभीरता पर भी असर पड़ा है। स्थानीय समितियों को आर्थिक और तकनीकी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाली पीढ़ियां इस महान परंपरा से अनभिज्ञ रह जाएंगी। यह केवल एक सांस्कृतिक क्षति नहीं होगी, बल्कि हमारी नैतिक और आध्यात्मिक जड़ों को भी कमजोर करेगी। रामलीला की प्रासंगिकता बनाए रखने और उसे पुनर्जीवित करने के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। समाज, शैक्षणिक संस्थान और प्रशासन मिलकर कुछ उपायों पर कार्य कर सकते हैं। विद्यालयों और महाविद्यालयों में ह्णरामायणह्ण और ह्णरामलीलाह्ण के सांस्कृतिक व नैतिक पक्षों पर विशेष नाटक, सेमिनार और प्रतियोगिताएं आयोजित की जाएं। रामलीला मंचन में बच्चों और युवाओं को भूमिकाओं, पृष्ठभूमि सज्जा, निर्देशन और आयोजन के प्रबंधन में सक्रिय रूप से जोड़ा जाए।

परंपरा ग्लोबल स्तर तक :

सोशल मीडिया, यूट्यूब और अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से रामलीला के लाइव प्रसारण और झलकियां प्रसारित की जाएं, ताकि यह परंपरा ग्लोबल स्तर तक पहुंचे और प्रवासी भारतीय भी इससे जुड़ सकें। रामलीला केवल एक वार्षिक उत्सव नहीं है, यह हमारी ह्णसंस्कृति, आस्था और मूल्यों का जीवंत मंचह्ण है। यह आयोजन न केवल हमें हमारे धार्मिक इतिहास से जोड़ता है, बल्कि आज के समाज को नैतिकता, त्याग और धर्म के आदर्शों की याद दिलाता है। आज जब समाज दिशाहीनता, नैतिक पतन और आत्मकेन्द्रित जीवनशैली की ओर बढ़ रहा है,रामलीला जैसे आयोजनों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। यह समय की पुकार है कि हम इस परंपरा को केवल बचाएं ही नहीं, बल्कि उसमें नवाचार और उत्साह का संचार करें। यदि समाज, शिक्षा जगत और शासनकृतीनों मिलकर प्रयास करें, तो निश्चित ही रामलीला की लौ आने वाली पीढ़ियों के अंत:करण को आलोकित करती रहेगी। यह हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को सुरक्षित रखते हुए, आने वाले कल को एक आदर्श दिशा प्रदान करेगी।

-राजेंद्र कुमार शर्मा
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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