जैव विविधता को बनाए रखता है फोग

जैव विविधता को बनाए रखता है फोग

राजस्थान में प्रसिद्ध तथा वर्तमान में लुप्तप्राय वनस्पति फोग के बारे में आजकल की युवा पीढ़ी शायद ही जानती होगी।

राजस्थान में प्रसिद्ध तथा वर्तमान में लुप्तप्राय वनस्पति फोग के बारे में आजकल की युवा पीढ़ी शायद ही जानती होगी। इस वनस्पति के बारे में राजस्थान में कहा जाता है कि फोगला को रायतो, काचरी को साग, बाजरी की रोटी, जाग्या म्हारा भाग। मतलब यह है कि फोग वनस्पति का रायता, काचरी की सब्जी और बाजरा की रोटी नसीब वाले व्यक्ति को ही मिलती है। आज बुजÞुर्ग ही राजस्थान के मेवा कहलाने वाले फोग के विषय में जानते हैं, युवा पीढ़ी इस वनस्पति व इसके गुणों से अपरिचित है। कहना गलत नहीं होगा कि फोग मरु क्षेत्र का या यूं कहें कि राजस्थान का मेवा कहलाता है, लेकिन आज झाड़ी या छोटे वृक्षनुमा फोग हमारे यहां बहुत ही कम रह गए हैं। फोग भारत और पाकिस्तान में मुख्य रूप से पाया जाता है। यह थार रेगिस्तान के अतिरिक्तउत्तरीअमेरिका, पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिणी यूरोप आदि स्थानों पर भी पाया जाता है। स्थानीय लोग इसे फोगड़ा कहते हैं और वनस्पति विज्ञान की भाषा में इसे केलिगोनम पॉलीगोनोइडिस के नाम से जाना जाता हैं। आज दूर-दराज के क्षेत्रों में यह पौधा देखने तक को नसीब नहीं होता या कम देखने को मिलता है। वैसे राजस्थान के बाड़मेर के बायतु क्षेत्र में, जैसलमेर, बीकानेर, गंगानगर, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, सीकर आदि क्षेत्रों में देखने को मिल जाती है। जैसलमेर के नाचना क्षेत्र में इसकी झाड़ियां विशेष रूप से पाई जाती हैं। 60-70 के दशक में ये अच्छी संख्या में मौजूद थे। यह बहुत ही चिंताजनक है कि आज फोग आईयूसीएन की रेड डेटा बुक के संकटग्रस्त पादप की सूची में शामिल है। ईंधन एवं कोयले के लिए इसकी जड़ों के अत्यधिक दोहन के कारण आज थार रेगिस्तान में फोग की मात्रा लगातार घट चुकी है। फोग की लकड़ी की यह विशेषता होती है कि इसकी लकड़ी आग बहुत जल्दी पकड़ लेती है। यहां तक कि गीली होने की स्थिति में भी यह आग जल्दी पकड़ लेती है,  फोग के कम होने का कारण इसका जल्दी आग पकड़ना भी है। यह बहुत ही चिंताजनक है कि थार में अब बहुत कम फोग झाड़ियां देखने को मिलती हैं। स्थानीय भाषा में फोग को फोगाली, फोक तथा तूरनी आदि नामों से जाना जाता है। वास्तव में यह पोलिगोनेएसी कुल का सदस्य है। यह सफेद व काली रंग की एक झाड़ी होती है, जिसमेंअनेक शाखाएं होती है। यह अत्यंत शुष्क एवं ओस दोनों परिस्थितियों में जीवित रह सकने वाला पौधा है। इसमें उच्च पोषण क्षमता वाले अनेक पोषण तत्व पाए जाते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक होते हैं। इसकी जड़ों, फूलों, कलियों तथा बीजों में फ्लवोनोइडस, एल्केलोईडस, टेनिन, स्टेरॉयड, फिनॉल्स, टेर्पेनोईडस आदि पाए जाते हैं तथा कलियों में एथिल होमोवनिलेट पाया जाता है। फोग का पौधा अत्यंत सूखे और पाले दोनों ही परिस्थितियों में जीवित रह सकता है, और इसकी यही खासियत ही इससे थार के अनुकूल भी बनाती है। इसकी तासीर ठंडी होती है और यदि किसी व्यक्ति को लू लग जाए तो इसकी पत्तियों का रस निकालकर लू लगने व्यक्ति को पिलाने से वह तत्काल ठीक हो जाता है। इसकी पत्तियों का रस विष प्रतिरोधक माना जाता है। इसकी फलियों से निकलने वाले बीज की रोटी भी बनाई जा सकती है। इतना ही नहीं फोग की पत्तियां मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ाती हैं। रेगिस्तान की विषम परिस्थितियों में उगकर यह उस क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन में अहम भूमिका निभाता है। वैसे इसके पत्तियां नहीं होती हैं और टहनी ही इसकी पत्तियां कहलातीं हैं। चैत्र-फाल्गुन के महीने में या यूं कहें कि होली केआसपास इसके झाड़ीनुमा पेड़ पर गांठनुमा छोटे-छोटे फल आते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में फोगला कहा जाता है, जिन्हें छाछ या दही में इस्तेमाल किया जाता है। वैसे मार्च-अप्रैल में इसकी नई पत्तियां फूटती हैं। इसके पुष्प गुलाबी रंग के होते हैं जो छोटे-छोटे होते हैं, इसके फूलों की महक लुभावनी होती है। कुछ लोग इसके फूलों को तैल में भूनकर भी खाते हैं। फोग की जड़ों को उबालकर कत्थे में मिलाकर इसे मसूड़ों से संबंधित बीमारी में इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान में अधिकतर लुहार फोग की लकड़ी के कोयले का इस्तेमाल खाना बनाने में करते हैं। इसका पौधा धीरे-धीरे बढ़ता है और जमीन से एक से डेढ़ मीटर ऊंचा होता है। तने की लकड़ी मजबूत और रेशेदार होती है यह उन दुर्लभ वनस्पतियों में से एक है जो तेज गर्मी में भी बिना पानी के जिंदा रहती है। यह मिट्टी के अपरदन को रोकता है और मरूस्थलीय प्रसार को रोकने में मददगार है। ऊंट और बकरियां इसे बड़े चाव से खाती हैं और अन्य पशु भी इसे चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इसकी लकड़ी आसानी से सड़ती-गलती नहीं है और प्राचीन समय में राजस्थान के जहाज कहलाने वाले ऊंट की नकेल इसी की लकड़ी से बनाई जाती थी। आज बढ़ते शहरीकरण, अकाल के कारण फोग वनस्पति लुप्तप्राय प्रजातियों की श्रेणी में पहुंच गई है। आधुनिक खेती में ट्रैक्टरों का अधिक प्रयोग के कारण फोग समूल नष्ट हो रही है, क्यों कि इनके प्रयोग से यह जड़ समेत निकल जाती है और दुबारा नहीं पनप पाती है। अंधाधुंध कटाई ने भी फोग के अस्तित्व पर बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। फोग मनुष्य के साथ- साथ पशुओं की जीवन शृंखला का महत्वपूर्ण घटक है, इसलिए इसके संरक्षण की आवश्यकता है। विलायती बबूल ने भी थार रेगिस्तान की जैव-विविधता को भी काफी हद तक प्रभावित किया है, इसका असर भी निश्चित तौर पर फोग पर पड़ा है। विलायती बबूल भारत में आने के बाद से अब तक देशी पेड़-पौधों की 500 से भी अधिक प्रजातियों को खत्म कर चुका है। आज फोग का संरक्षण करने की आवश्यकता है, अन्यथा यह किताबों में ही रह जाएगा। फोग को बचाने के लिए सर्वप्रथम थार रेगिस्तान के किसानों, काश्तकारों को खेती के गलत तरीकों से बचना होगा। उन्हें यह समझाना होगा कि खेती की जमीन तैयार करने के लिए फोग के पौधे को खत्म करना कितना गलत है।  
-सुनील कुमार महला
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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