हिन्दी : अंतस की सचेतन अभिव्यक्ति

हिन्दी का सफर किसी भी अन्य भाषा की ही तरह सतत विकासशील रहा है

हिन्दी : अंतस की सचेतन अभिव्यक्ति

साहित्यिक हिन्दी का प्रसार भारतेन्दु हरिश्चन्द के पदार्पण से प्रारम्भ होता है। इसके साथ ही शुरू होता है दौर लघु पत्रिकाओं का। स्वयं भारतेन्दु कविवचनसुधा के साथ सम्पादकीय परम्परा को प्रारम्भ करते हैं।

साहित्य विधाओं के भीतर आकार लेता है और विधाएँ विभिन्न मनोभावों और जीवन-यथार्थ के ताने-बाने से आगे बढ़ती हैं। हिन्दी का सफर किसी भी अन्य भाषा की ही तरह सतत विकासशील रहा है। इसका विकास यों तो संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश की विकास-सरणियों से गुजरता है, परन्तु साहित्यिक हिन्दी का प्रसार भारतेन्दु हरिश्चन्द के पदार्पण से प्रारम्भ होता है। इसके साथ ही शुरू होता है दौर लघु पत्रिकाओं का। स्वयं भारतेन्दु कविवचनसुधा के साथ सम्पादकीय परम्परा को प्रारम्भ करते हैं। गद्य के साथ-साथ हिन्दी पद्य की भी भाषा बनती है। भारतेन्दु व उनके मण्डल में बालकृष्ण भट्ट, हिन्दी प्रदीप (1877ई.), प्रताप नारायण मिश्र, ब्राह्मण (1880 ई.), अम्बिकादत्त व्यास (पीयूष प्रवाह), ठाकुर जगमोहनसिंह आदि अनेक पत्रिकाओं का संपादन कर साहित्यिक पत्रकारिता की नींव रख रहे थे।

हिन्दी की अनेक पत्र-पत्रिकाएँ वीणा, बनासजन, हंस, नया ज्ञानोदय, पहल, पक्षधर, वसुधा, पाखी, कथादेश, अनुसंधान, वाङमय, मधुमती आदि प्रतिबद्धता के साथ महत्त्वपूर्ण व संग्रहणीय अंक निकाल रही हैं, जिससे हिन्दी की  विधाओं, समकालीन लेखन और विविध विमर्शों केन्द्रित रचनाओं का व्याप तो अनवरत बढ़ ही रहा है, साथ ही साथ पाठकों की सांस्कृतिक समझ भी विकसित हो रही है। ऐसे में हिन्दी के लिए लघुपत्रिकाओं का होना एक वरदान है; परन्तु वे भी पाठकों की कमी का शिकार हैं। वे सम्पूर्ण बौद्धिक खुराक हैं, लेकिन पहुँच उतनी नहीं। 

हिन्दी साहित्य में हिन्दी भाषा की स्थिति को देखें तो जहाँ पहले लेखकों का ध्यान इस ओर रहता था कि हिन्दी परिष्कृत और प्रांजल रूप से सामने आए अब साहित्यिक रचनाएँ दैनन्दिन भाषिक प्रयोग पर अधिक जोर दे रही हैं।  हिन्दी भाषा के साथ-साथ उसका साहित्य वंचितों और उपेक्षितों को केन्द्र में लाने की ओर लगातार ध्यान दे रहा है। इस कड़ी में असगर वजाहत, मंजूर एहतेशाम, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, बजरंग तिवाड़ी, मृणाल पांडे, प्रियदर्शन, वंदना राग, सुजाता आदि रचनाकार  महत्त्वपूर्ण साहित्यिक अवदान देकर साहित्य, आलोचना  और सरोकारों को अपनी आवाज दे रहे हैं। आज हिन्दी की 200 से अधिक पत्रिकाएँ हैं, परन्तु इस से कई गुना अधिक वेब और ई-पत्रिकाएँ हैं। ऐसे में भाषिक सजगता के आग्रहों को लेकर कितनी पत्रिकाएँ संचालित हो रही हैं, कौन प्रतिबद्धता के साथ साहित्यिक सरोकारों पर बात कर रहा है, यह विश्लेषण का विषय है। इस दौड़ में शब्दाकंन, समालोचन, कविताकोश, रेख्ता, हिन्दवी आदि महत्त्वपूर्ण सामग्री पाठकों तक पहुँचा रहे हैं। 

हिन्दी का लेखक वही हो सकता है जिसे हिन्दी की समझ हो’, यदि  महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के इस सूत्र वाक्य को वर्तमान हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता अपना लेते हैं तो भाषिक दुराग्रहों और भाषाई अड़चनों से सहज ही बचा जा सकता है। भाषा को लेकर मौजूदा लेखक अतिउत्साही हैं, वे शब्द की प्रकृति को जाने बगैर ही उस पर आधिकारिक तौर पर लिखने और प्रकाशित होने की बात करते हैं जो हिन्दी के लिए चिंताजनक है। 
यदि हिन्दी का प्रयोक्ता हिन्दी के शुद्ध प्रयोग का यदि आग्रही हो जाता है तो बात कुछ बन सकती है। आधुनिक हिन्दी  में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी और संकर शब्दों का प्रचलन है। इन भिन्न- भिन्न स्वरूप वाले शब्दों की सम्यक् प्रकृति का याथातथ्य  ज्ञान ही हमें, हिन्दी के प्रयोग, उसकी शब्द-सम्पदा के माहात्म्य को सुरक्षित व संरक्षित करने में सहायता प्रदान कर सकता है। 

जन-आंदोलनों की भी भाषा रही हिंदी के महत्त्व को गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बड़े सुंदर रूप में प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था, ‘भारतीय भाषाएँ नदियाँ हैं और हिंदी महानदी’। हिन्दी में भोजपुरी, राजस्थानी, मराठी आदि के शब्द आज लेखन में भी प्रयुक्त हो रहे हैं।  हिन्दी के इसी समरसताजन्य महत्त्व, सर्वव्यापी प्रयोग-प्रसार और लोकप्रयिता को देखते हुए आज कम्प्यूटर पर हिन्दी पठन-पाठन-लेखन के अनेक सॉफ्टवेयर ईजाद हो चुके हैं। 
भाषा का व्यावहारिक पक्ष हो या सैद्धान्तिक, आज अंतर्जाल पर हिन्दी की अनेक दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध हैं। यू ट्यूब पर भी हिन्दी कविता चैनल, साहित्य जगत में काफी लोकप्रिय है। फेसबुक और ट्वीटर पर लेखकों के पेज हंै। विविध भारती और आकाशवाणी पर हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर बहुत कुछ है। स्पष्ट है हिन्दी की इस लोकप्रियता का एक बड़ा कारण इस भाषा के प्रयोक्ता ही तो हैं, जिनमें सतत इजाफा हो रहा है। गीतांजली श्री की रेत समाधि को बुकर पुरस्कार हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाता है और भाषा के प्रयोक्ताओं और साहित्यकारों के लिए एक जिम्मेदारी भी तय करता है।  हिन्दी भाषा के सौन्दर्य को अक्षुण्ण रखने के लिए और साहित्य को कालजयी बनाने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग और रचनाकारों को चिंतन  करना होगा। साहित्य से पहले भाषा पर विचार करना होगा, उसकी व्याकरणिक कोटियों के प्रति सटीक जानकारी प्राथमिक शिक्षा से ही बच्चों को देनी होगी ताकि सटीक प्रार्थना-पत्र और अशुद्धियाँ नहीं लिख पाने का दोष हम युवापीढ़ी को न दे सकें। उसके भाषिक प्रयोगों को समृद्ध बनाकर उसका सुचिंतित प्रयोग कर ही हम भाषा का सहेजन-संरक्षण और संवर्धन कर सकते हैं। 

-विमलेश शर्मा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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