प्रकृति को संभालने की नीतियां बनाने की जरूरत

सुविधाएं असंतुलित रुप में अभिशाप

प्रकृति को संभालने की नीतियां बनाने की जरूरत

पचास वर्ष पूर्व तक भारत और भारत जैसे देशों में वैज्ञानिक औद्योगिक उन्नति अच्छी धारणा थी। भारत जैसे देशों के विपरीत पश्चिम के विकसित देशों में तो उन्नति की अच्छाई सौ-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व समाप्त हो गई थी।

दुनिया में प्रगति के दुष्परिणाम स्पष्ट दिखने लगे हैं। विभिन्न प्रगतिगत वस्तुएं एवं सुविधाएं सीमित व संतुलित रूप में तो वरदान होती हैं, परंतु असीम व असंतुलित रूप में इन्हें अभिशाप बनने में देर नहीं लगती। आज भी अनेक आधुनिक सुख-सुविधाएं अपनी विसंगतियों और आधिक्य के कारण जंजाल बन चुकी हैं। पचास वर्ष पूर्व तक भारत और भारत जैसे देशों में वैज्ञानिक औद्योगिक उन्नति अच्छी धारणा थी। भारत जैसे देशों के विपरीत पश्चिम के विकसित देशों में तो उन्नति की अच्छाई सौ-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व समाप्त हो गई थी। कहने का आशय यही है कि विज्ञान, उद्योग आधारित जो भी विकास दुनिया में हुआ वह प्रारंभ में ही ठीक लगता था। ऐसा इसलिए था, क्योंकि वैज्ञानिक, आधुनिक, औद्योगिक उन्नति एक संतुलित सीमा में थी। तब ऐसी उन्नति के साथ पारंपरिक सादे जीवन का एक स्वाभाविक सामंजस्य भी कायम था। चूंकि तब आज वाली उन्नति, प्रगति और आधुनिक गतिविधि अधिक न थी तथा तत्कालीन लोगों ने उन्नतिकरण व प्रगतिशीलता को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं माना था इसीलिए जीवन में एक प्रकृति प्रदत्त रस, गंध, अनुभव व व्यवहार था। जीवन से मनुष्य को विशेष अनुराग था। जीवन का मानवीय लक्ष्य स्पष्ट था। परंतु आज हर मनुष्य, यहां तक कि सादा-जीवन जीने की उत्कट अभिलाषा रखने वाला मनुष्य भी चाहे-अनचाहे आधुनिक प्रगति का विकट विषदंश झेलने को विवश है।

घरों और कारखानों में चलने वाली छोटी-बड़ी विद्युत चालित मशीनें, दिन-रात सड़कों पर दौड़ते-भागते लाखों-करोड़ों वाहन, परस्पर संघषर्ण करते वाहनों के तरह-तरह के कल-पुर्जे, चौबीसों घंटे ध्वनि प्रदूषण फैलाते टेलीविजन और अन्य यंत्र, विवाह इत्यादि कार्यक्रमों में खुले में बजते डीजे की विकराल ध्वनियां, असभ्य लोगों की अनावश्यक बातों का हो-हल्ला, मोबाइल फोन की सम्पर्क-आवृत्तियां प्राप्त करने के लिए आवासीय नगरों-परिसरों पर स्थान-स्थान पर खड़े किए गए दूरसंचार कंपनियों के लंबे-लंबे टॉवरों, मोबाइल फोन से निकलने वाली स्वास्थ्यघाती विकिरणें, मोबाइल फोन पर इंटरनेट की सहायता से प्रसारित अनावश्यक चलचित्र (वीडियो), चित्र और सूचनाएं मनुष्य को जीता-जागता उपकरण बना चुकी हैं। मनुष्य की सामान्य प्राकृतिक दिनचर्या भी उसके वश में नहीं रही। वह मन ही मन में संकल्प कर, लाख चाह कर भी इन जंजालों व झंझावातों से नहीं छूट पा रहा।

भोग में अत्यधिक लिप्त मनुष्य एक प्रकार से ठीक है। कम से कम वह संवेदनशील, सज्जन और विवेकी मनुष्य की तरह इस चिंता में तो नहीं घुल रहा कि जीवन क्या से क्या हो चुका है। आगे मनुष्य का जीवन क्या दुर्गति झेलेगा और ऐसे में प्रकृति का असंतुलन कितना और कैसे बिगड़ेगा। यदि संवेदना के आधार पर विचारित प्रकृति की विपत्ति को देखें तो लगता नहीं कि आने वाला कोई भी दिन प्राकृतिक संतुलन और शांति का पर्याय होगा। आज वातावरण, पर्यावरण और जलवायु अप्रत्याशित ढंग से प्रदूषित हो रहे हैं। पर्यावरण की यह प्रवृत्ति हो चुकी है कि वह अधिक समय तक मलिन, अस्वच्छ और अनाकर्षक बना रहता है। पृथ्वी, आकाश, जल, वायु, अग्नि जैसे पंचतत्व अपनी प्राकृतिक विशेषता एवं प्रभाव खो चुके हैं। ऋतुएं स्वाभाविक-नैसर्गिक सौंदर्य से विमुख हो चुकी हैं। वसंत जैसी ऋतु भी धुंधीली, काली-कसैली होकर धुंध व धुंए में लिपटी हुई है। फाल्गुन भी जलवायु संकट की भेंट चढ़ चुका है। होली जैसा असीम उमंग और हर्षोल्लास का त्योहार आज अवकाश व व्यवसाय की औपचारिकता मात्र रह गया है। ऋतुओं का जो ऋतुगामी उत्सव और उपयोगिता एक अद्वितीय सम्मोहन के साथ कभी मनुष्य के लिए विद्यमान होती थी, अब वह नहीं है। हालांकि इस मशीनी, आधुनिक, भोगोपभोगी युग में स्वयं मशीन बन चुके अधिसंख्य मनुष्यों के लिए प्रकृति, ऋतु, पर्यावरण और जलवायु विकार कोई चिंता की बात नहीं है, परंतु चेतनशील और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि रखने वाले मनुष्य लिए यह सब प्रतिकूल घटनाएं अत्यंत चिंतनीय हैं।

जीवन की यह आधुनिक दुर्गति मानव को दोहरी मार दे रही है। पहली, शहरीकरण और निर्माण-विनिर्माण से वन-सम्पदा कटती जा रही है। वृक्ष-वनस्पतियां नष्ट होती जा रही हैं। प्रकृति की अपने ही पंचतत्वों को संभालने की प्रक्रिया शक्तिहीन हो रही है। परिणामस्वरूप, ग्रीष्म ऋतु में अधिक ताप होना, शीत ऋतु में असहनीय शीताधिकता होना, पेयजल संकट उत्पन्न होना, जल संकट होना या सुनामी इत्यादि आपदाओं के रूप में चहुं ओर जलजला होना, शुÞद्ध व मिलावट रहित खाद्यान्न उत्पादन में कमी होना और उत्पादित खाद्यान्न में पोषक तत्वों का न होना जैसे जीवनघाती लक्षण उभर रहे हैं। दूसरी, प्रगति की वैश्विक गतिविधियों के सम्मिलित दबाव में पृथ्वी पर प्रकृति को साकार करने में साक्षात भूमिका निभाने वाले वन निरंतर कम हो रहे हैं। चारों ओर सीमेंट, पत्थर, लौह, स्टील, प्लास्टिक और अन्य धातुओं के संयोजन से अप्राकृतिक निर्माण का जोर है। ऐसे में जीवन का विशेषकर मनुष्य जीवन का प्राकृतिक अर्थ क्या रह जाता है! इस पर विश्व के पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और धनिक वर्ग को गंभीरतापूर्वक चिंतन-मनन करना चाहिए। 
           

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-विकेश कुमार बडोला
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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