पाबंदी की अनदेखी

पाबंदी की अनदेखी

देश में बढ़ रहे कोरोना के मामलों के मद्देनजर चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में रैलियों, सभाओं आदि पर 22 फरवरी तक पाबंदी को और आगे बढ़ा दिया है।

देश में बढ़ रहे कोरोना के मामलों के मद्देनजर चुनाव आयोग ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में रैलियों, सभाओं आदि पर 22 फरवरी तक पाबंदी को और आगे बढ़ा दिया है। चुनाव आयोग ने प्रचार के मामले में राजनीतिक दलों को थोड़ी छूट भी दी है। राजनीतिक दल अगर कहीं बैठक करना जरूरी समझते हों तो अधिकतम तीन सौ या मीटिंग हॉल की पचास प्रतिशत क्षमता तक की संख्या रखी जा सकती है। वैसे सभी दलों को वर्चुअल यानी इंटरनेट के माध्यम से मतदाताओं से सम्पर्क कर सकते हैं। आयोग का यह फैसला सराहनीय और स्वागत योग्य है। पिछली बार कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच ही पश्चिम बंगाल में उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव कराए गए तो बाद में कोरोना संक्रमण और तेजी से फैला और काफी तादाद में लोगों की मौतें भी हुईं। उससे सबक लेकर ही इस बार आयोग इस तरह की पाबंदी को जरूरी समझा। मगर राजनीतिक दल अपनी मनमानी से बाज नहीं आ रहे हैं। चुनाव आयोग ने जब विधानसभा चुनावों का ऐलान किया था उस समय हाथों-हाथ ही आयोग ने 15 जनवरी तक रैलियों और सभाओं पर रोक लगा दी थी, लेकिन इसके बावजूद भाजपा छोड़कर सपा में गए नेताओं ने पाबंदियों की अनदेखी कर रैली आयोजित की, जिसमें भारी भीड़ के बीच धक्का-मुक्की देखने को मिली और सभा स्थल पर कोरोना संबंधी सावधानियों का जरा भी ध्यान नहीं रखा गया। उस रैली के आयोजन के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। ऐसे में कैसे भरोसा किया जा सकता है कि राजनीतिक दल आयोग के निर्देशों की पूरी तरह पालना करेंगे? हमारे राजनीतिक दल दरअसल में वर्चुअल रैलियों के आयोजन के आदी नहीं हैं। उन्हें विरोधी दलों को अपनी ताकत दिखाने के लिए भीड़ का प्रदर्शन दिखाने की जरूरत होती है। नेताओं को अपने नारों की गूंज सुनने में आनंद मिलता है और उत्साह भी बढ़ता महसूस करते हैं। वर्चुअल संबोधन में उनको आनंद नहीं मिलता न ही संतोष प्राप्त होता है। फिर एक मुश्किल यह भी है कि वर्चुअल रैली की व्यवस्था करना हर दल के वश की बात नहीं है। इसके लिए काफी इंतजाम करने होते हैं। फिर हर श्रोता के पास स्मार्टफोन और इंटरनेट की सुविधा नहीं है। इसलिए नेता किसी न किसी तरह आमने-सामने ही समर्थकों से बात को उचित मानते हैं। यह ठीक है, लेकिन नेताओं को कोरोना के बिगड़े हालातों की गंभीरता को भी समझना चाहिए।

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