घुमंतू समाज की उपेक्षा

इस दौर में हम राजशाही से निकलकर प्रजातंत्र के रास्ते से आगे बढ़े

घुमंतू समाज की उपेक्षा

राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करने वाली सरकारों के सामने 60 लाख की आबादी वाले घुमंतू समाज का विकास शायद ही कभी प्राथमिकता में रहा हो।

जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर रियासतों के राजाओं ने 30 मार्च 1949 को भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये थे।  इससे पहले एकीकरण के तीन चरण हो चुके थे। यह चौथा चरण था और इसके बाद में तीन चरण और हुए। राजस्थान का एकीकरण 7 चरणों में पूरा हुआ। वर्तमान राजस्थान का स्वरूप 1 नवंबर 1956 को सामने आया परंतु चौथे चरण में मानो राजस्थान को मेमंद, मादळिया, गळहार, बाजूबंद सब मिल गये। मानो राजस्थान का सिंगार पूरा हो गया। इसीलिए 30 मार्च ‘राजस्थान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। 19 रियासतों, 3 ठिकानों और एक चीफ़ कमिश्नरी क्षेत्र से मिलकर आज़ाद भारत में राजस्थान एक सूबे के रूप में प्रशासनिक इकाई बनकर उभरा। 

पिछले 75 वर्षों की राजस्थान की यात्रा, प्रजातांत्रिक यात्रा है। इस दौर में हम राजशाही से निकलकर प्रजातंत्र के रास्ते आगे बढ़े। इस यात्रा के सभी मुसाफ़िर एक जैसे नहीं रहे। सभी को इसका एक जैसा फ़ायदा नहीं मिला। यही नहीं, कई और मुद्दे हैं जिन पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए। ऐसा न हो कि उत्सव के शोर में हम उन ज़रूरी मुद्दों को दरकिनार करते जाएँ। यहाँ हम वैसे ही चंद मुद्दों की बात कर रहे हैं। एक बड़ा मुद्दा घुमंतू समुदायों का है। आज़ादी और विलय के बाद राजस्थान ने विकास का जो रास्ता अपनाया वह घुमंतू समुदायों के लिहाज़ से बेहतर नहीं कहा जा सकता है। 

प्रजातंत्र से इन्हें क्या मिला
राजस्थान की सांकृतिक विरासत पर गर्व करने वाली सरकारों के सामने 60 लाख की आबादी वाले घुमंतू समाज का विकास शायद ही कभी प्राथमिकता में रहा हो। यह घुमंतू समुदाय ही हैं जो राजस्थानी संस्कृति को अपने लोकगीत,संगीत,नाट्य आदि के ज़रिये बचाने का काम कर रहे हैं। यही समाज आज अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रहा है।  सामंती काल में इन समाजों को राजाओं- ज़मींदारों का संरक्षण प्राप्त था। दिलचस्प है, उन समाजों के लिए प्रजातंत्र अभिशाप बन गया। 

विकास के नाम पर खानापुरी  
घुमंतू समाज के दर्शन में कभी स्थाई आवास की परिकल्पना नहीं रही। हालाँकि, आज यह समाज हमें ज्यादातर शहरों की गंदी बस्तियों में या गांवों की सीमा पर स्थित गोचर भूमि पर विषम परिस्थितियों में जीवन गुजारता हुआ मिलेगा। सरकारों ने इनके विकास के नाम पर हमेशा खानापुरी करने का काम किया। उदाहरण के लिए, प्रदेश की राजधानी के बीचोबीच कलाकार कॉलोनी बसाई गई। दावे किए गए सरकार  यहां कला से संबंधित समाजों को बसाकर उन्हें सुविधाएं मुहैया करवायेगी। इसे पर्यटन कॉलोनी के रूप में विकसित करेगी। यहाँ सैलानी आकर राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत को समझ सकेंगे। लेकिन परिणाम हमेशा की भांति उलट ही रहे। आज कलाकार कॉलोनी के लोग मूलभूत समस्याओं से वंचित हैं। जो जमीन घुमंतू समाज के लोगों को आवंटित हुई उसके लिए भी उन्हें  वन विभाग से लड़ना पड़ रहा है।

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राजनीतिक ताक़त की कमी 
यह समाज किसी के लिए मज़बूत वोट नहीं है। इनकी आबादी छितरी हुई है। राजनीतिक ताकत न होने के कारण इस समाज के लिए प्रजातंत्र अभिशाप साबित हुआ है। आज किसी सरकारी महकमे में इस समाज सुनवाई नहीं हो पाती। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण आर्थिक विषमता तो है ही शैक्षणिक पिछड़ापन व राजनीतिक प्रतिनिधित्व का न होना भी है।

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पशुधन का बढ़ता संकट 
इसी प्रकार राजस्थान पशुधन में भारत में दूसरा स्थान रखता है। राजस्थान का राज्य पशु ऊंट है। साल 2012 की पशुगणना के मुताबिक राज्य में  3,25,713 ऊंट थे, जो साल 2019 में घटकर 2,12,739 ही रह गये हैं। वहीं अगर पिछले तीस सालों के आंकड़े देखें तो राजस्थान में ऊंटों की संख्या में लगभग 85 प्रतिशत की कमी हुई है। राजस्थान में कृषि का संकट हमेशा से रहा। इसी कारण यहां पशुपालन जीविकोपार्जन का सबसे बड़ा माध्यम रहा। हालाँकि, जिस तरह से राजस्थान में ऊंट और अन्य पशुओं की संख्या कम होती जा रही है, इससे पशुपालन भी ख़तरे में है। 

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राजनीति में जाति 
राजस्थान का राजनीतिक परिदृश्य भी कोई बहुत अच्छा नहीं है। राजनीति, सामंतवाद से अब जातिवाद के भंवर में आ घिरी है। ठीक चुनावों से पहले राजस्थान में जातीय महापंचायतों का हल्ला है। यहां जाति का व्यक्ति अपनी जाति के झंडे के नीचे जबड़े भींचे खड़ा है।

राजस्थान की भाषा क्या है
अपनी भाषा के बिना लोक हमेशा गूंगा होता है। कमोबेश राजस्थान में यही स्थिति बनी हुई है। आजादी के समय राजस्थान की साक्षरता का आंकड़ा दहाई के अंक से भी नीचे था तो क्या यह मान लिया जाए यहां के लोगों के पास कोई भाषा नहीं थी।
क्या राजस्थानी समाज की इतने समृद्ध लोक भाषा को नजरंदाज करना किसी जनहितैषी सरकार का लक्षण था? क्या इस समाज की ज़ुबान को मान्यता नहीं देना अपराध नहीं? 

यहां हमें राजस्थानी के बड़े कवि सी.पी. देवल साहब की कविता की कुछ पंक्तियां याद आती है जो इस स्थिति पर सटीक प्रहार करती है – 
             मूंडौ ढेरियां
आमण-दूमणा बैठा ई हा पाछा
के सुणिज्यौ-
‘गुलाम देस रै नवौ झंडौ चढै
म्है आजाद व्हैग्या
किंग जार्ज वाळौ कलदार अबै खोटौ है
बजार-चलण में कोनीं रैह्यौ ।
म्हैं राजी होय बधावौ उगेरण
गळौ खेंखारियौ ई हौ
के औ कांई
जूना झंडा अर कलदार री जोड़ा-जोड़
म्हांरी भासा ई चलण में नीं रही
खोटै पड़गी!

-दीपक चारण

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