Axone Movie Review: अखुनि उसी घर में पक सकती है जिस घर का दरवाजा ‘IDEA OF INDIA’ नाम की सड़क की ओर खुलता हो

Axone Movie Review: अखुनि उसी घर में पक सकती है जिस घर का दरवाजा ‘IDEA OF INDIA’ नाम की सड़क की ओर खुलता हो

फ़िल्म हमारे देश के सहिष्णु होने के दावों को पंक्चर करती हुई चलती है। एक समुदाय को उसकी संस्कृति से जुड़ा खाना बनाने के लिए भी दर-दर भटकना पड़ता है।

अखुनि दिल्ली में रह रहे पूर्वोत्तर के युवाओं की एक दिन की कहानी है। इन युवाओं को अपनी एक दोस्त की शादी के लिए अखुनि (पूर्वोत्तर की एक डिश) बनानी है। समस्या है कि इसको पकाने में बड़ी बदबू आती है। यही गुण इस डिश को फ़िल्म में मेटाफ़र के रूप में स्थापित करता है।

भारत में पूर्वोत्तर के लोगों पर तरह-तरह की टिप्पणियाँ की जाती है। सत्ता के केंद्र दिल्ली जहाँ देश को चलाने वाले संविधान की शपथ लेते है, उनकी नाक के नीचे राजधानी की बस्तियों के लोग पूर्वोत्तर से आये प्रवासियों से नस्ल के तौर पर भेदभाव करते है। नस्लभेदी टिप्पणियां करते है।उन्हें चीनी कहकर चिढ़ाया जाता है। फ़िल्म में इसी तरह के कई तुच्छ काम अखुनि के बनने की प्रक्रिया के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं।फ़िल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे एक संस्कृति द्वारा दूसरी संस्कृति को दबाए जाने की घटनाएं अलग-अलग फ्रेम में सामने आती है। ये सभी घटनाएं बिना शोर-शराबे और बिना किसी नाटकीयता के साथ देखने को मिलती है। जैसे धीमी आँच पर पक रहा कोई पकवान रह-रहकर महक फैलाता जा रहा हो।

दो अलग-अलग संस्कृति(उत्तर भारतीय और पूर्वोत्तर) का टकराव संविधान के दो अनुच्छेदों (15 और 19) के आपसी टकराव की छवि को भी उभारता है। जहाँ अनुच्छेद 15 कहता है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। वहीं अनुच्छेद 19(1)(सी) संघ या संगठन बनाने का अधिकार देता है। अब यदि कुछ लोग एक ऐसा खास संगठन बनाकर रहने लग जाए जिसमें वे कुछ लोगों को शामिल नहीं करना चाहते। तब क्या होगा?

फ़िल्म हमारे देश के सहिष्णु होने के दावों को पंक्चर करती हुई चलती है। एक समुदाय को उसकी संस्कृति से जुड़ा खाना बनाने के लिए भी दर-दर भटकना पड़ता है। आदिल हुसैन का किरदार (जो पूरी फ़िल्म में एक शब्द तक नहीं बोलता) इस बात का प्रतीक है कि लोग कितनी दिलचस्पी से पूर्वोत्तर के लोगों की ज़िंदगी पर नज़र गढाए बैठे रहते हैं। प्रवासियों को चीनी कहकर सम्बोधित करने वाला एक उत्तर भारतीय किरदार जब उनमें से किसी एक मुँह से ब्लडी इंडियन सुनता है तो सकपका जाता है। मगर वे अंततः एक साझा समझदारी विकसित कर लेते हैं, जो एक सुखद अनुभव है।

सयानी गुप्ता जिस किरदार को निभा रही है वह अपनी नेपाली पहचान पर पूर्वोत्तर का आवरण चढ़ाकर घूमती है। उसका किरदार उन तमाम लोगों के संकट को दर्शाता है जो अपनी पहचान को लेकर समाज में असहज रहते है। उन्हें डर सताता है कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा।

अंत में दो बातें और जो सबसे ज्यादा ध्यान खींचती है। पहली- मैं समझता हूँ कि इस समस्या को पर्दे पर उकेरने में निर्देशक शायद इसलिए सफल हो पाया है कि उसने इन प्रवासियों को पर्दे पर बहुसंख्यक के रूप में पेश किया है। दूसरी- फ़िल्म बताती है कि अखुनि उसी घर में पक सकती है जिस घर का दरवाजा ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ की सड़क की ओर खुलता हो।

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