स्वास्थ्य क्षेत्र की बढ़ती चुनौतियां

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को देखा जाए तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की बड़ी कमी है।

स्वास्थ्य क्षेत्र की बढ़ती चुनौतियां

यहां डॉक्टरों तथा आबादी का अनुपात संतोषजनक नहीं है,

भारतीय समाज में सदियों से धारणा रही है ‘जान है तो जहान है’ तथा ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया’। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:’ अर्थात ‘सब सुखी हों और सभी रोगमुक्त हों’ मूलमंत्र में यही स्वास्थ्य भावना निहित है। लोगों के स्वास्थ्य स्तर को सुधारने तथा स्वास्थ्य को लेकर प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 7 अप्रैल को वैश्विक स्तर ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने का प्रमुख उद्देश्य दुनिया के हर व्यक्ति को इलाज की अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना, उनका स्वास्थ्य बेहतर बनाना, उनके स्वास्थ्य स्तर को ऊंचा उठाना तथा समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक कर स्वस्थ वातावरण बनाते हुए स्वस्थ रखना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के बैनर तले मनाए जाने वाले इस दिवस की शुरुआत 7 अप्रैल 1950 को हुई थी और यह दिवस मनाने के लिए इसी तारीख का निर्धारण डब्ल्यूएचओ की संस्थापना वर्षगांठ को चिन्हित करने के उद्देश्य से किया गया था।


सम्पूर्ण विश्व को निरोगी बनाने के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ नामक वैश्विक संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को हुई थी, जिसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में है। कुल 193 देशों ने मिलकर जेनेवा में इस वैश्विक संस्था की नींव रखी थी, जिसका मुख्य उद्देश्य यही है कि दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा हो, बीमार होने पर उसे बेहतर इलाज की पर्याप्त सुविधा मिल सके। संस्था की पहली बैठक 24 जुलाई 1948 को हुई थी और इसकी स्थापना के समय इसके संविधान पर 61 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। संगठन की स्थापना के दो वर्ष बाद ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाने की परम्परा शुरू की गई। इस वर्ष पूरी दुनिया 72वां विश्व स्वास्थ्य दिवस मना रही है। संयुक्त राष्ट्र का अहम हिस्सा ‘डब्ल्यूएचओ’ दुनिया के तमाम देशों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग और मानक विकसित करने वाली संस्था है। इस संस्था का प्रमुख कार्य विश्वभर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना और उन्हें सुलझाने में सहयोग करना है। अपनी स्थापना के बाद इस वैश्विक संस्था ने ‘स्मॉल पॉक्स’ जैसी बीमारी को जड़ से खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और टीबी, एड्स, पोलियो, रक्ताल्पता, नेत्रहीनता, मलेरिया, सार्स, मर्स,  इबोला जैसी खतरनाक बीमारियों के बाद कोरोना की रोकथाम के लिए भी जी-जान से जुटी है। इस संस्था के माध्यम से प्रयास किया जाता है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहे।


विश्व स्वास्थ्य संगठन का पहला लक्ष्य वैश्विक स्वास्थ्य कवरेज रहा है लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि समुदाय में सभी लोगों को अपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाएं व देखभाल मिले। हालांकि दुनिया के तमाम देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन कोरोना जैसे वायरसों के समक्ष जब अमेरिका जैसे विकसित देश को भी बेबस अवस्था में देखा और वहां भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी सामान की भारी कमी नजर आई, तब पूरी दुनिया को अहसास हुआ कि अभी भी जन-जन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन तो स्वयं मानता है कि दुनिया की कम से कम आधी आबादी को आज भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। विश्वभर में अरबों लोगों को स्वास्थ्य देखभाल हासिल नहीं होती। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वास्थ्य देखभाल में से किसी एक को चुनने पर विवश होना पड़ता है।


जन-स्वास्थ्य से जुड़े कुछ वैश्विक तथ्यों पर ध्यान दिया जाए तो हालांकि टीकाकरण, परिवार नियोजन, एचआईवी के लिए एंटीरिट्रोवायरल उपचार तथा मलेरिया की रोकथाम में सुधार हुआ है लेकिन चिंता की स्थिति यह है कि अभी भी दुनिया की आधी से अधिक आबादी तक आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच नहीं है। विश्वभर में 80 करोड़ से भी ज्यादा लोग अपने घर के बजट का कम से कम दस फीसदी स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर खर्च करते हैं। यही नहीं, स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर बड़ा खर्च करने के कारण दस करोड़ से ज्यादा लोग अत्यधिक गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। चिंता की स्थिति यह है कि पिछले कुछ दशकों में एक ओर जहां स्वास्थ्य क्षेत्र ने काफी प्रगति की है, वहीं कुछ वर्षों के भीतर एड्स, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के प्रकोप के साथ हृदय रोग, मधुमेह, क्षय रोग, मोटापा, तनाव जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियां निरन्तर बढ़ रही हैं।अगर भारत की बात की जाए तो मौजूदा कोरोना काल को छोड़ दें तो आर्थिक दृष्टि से देश में पिछले दशकों में तीव्र गति से आर्थिक विकास हुआ लेकिन कड़वा सच यह भी है कि तेज गति से आर्थिक विकास के बावजूद इसी देश में करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार हैं।
    - योगेश कुमार गोयल
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार तीन वर्ष की अवस्था वाले तीन फीसदी से भी अधिक बच्चों का विकास अपनी उम्र के हिसाब से नहीं हो सका है और चालीस फीसदी से अधिक बच्चे अपनी अवस्था की तुलना में कम वजन के हैं। इनमें करीब अस्सी फीसदी बच्चे रक्ताल्पता (अनीमिया) से पीड़ित हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक दस में से सात बच्चे अनीमिया से पीड़ित हैं जबकि महिलाओं की तीस फीसदी से ज्यादा आबादी कुपोषण की शिकार है। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक देश में अभी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह मुफ्त नहीं हैं और जो हैं, उनकी स्थिति संतोषजनक नहीं है। विश्व बैंक की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका अपनी जीडीपी का 16.9 फीसदी, जर्मनी 11.2, जापान 10.9, कनाडा 10.7, यूके 9.8 तथा आस्ट्रेलिया 9.3 फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं जबकि भारत में यह जीडीपी का महज 3.54 फीसदी ही है और उसमें से भी सरकारी खर्च का योगदान केवल 1.54 फीसदी ही है।

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भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को देखा जाए तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की बड़ी कमी है। यहां डॉक्टरों तथा आबादी का अनुपात संतोषजनक नहीं है, बिस्तरों की उपलब्धता बेहद कम है। देश में सवा अरब से अधिक आबादी के लिए 47 हजार लोगों पर सिर्फ एक सरकारी अस्पताल है। देशभर के सरकारी अस्पतालों में इतनी बड़ी आबादी के लिए करीब सात लाख बिस्तर हैं। सरकारी अस्पतालों में करीब 1.17 लाख डॉक्टर हैं अर्थात दस हजार से अधिक लोगों पर महज एक डॉक्टर ही उपलब्ध है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमानुसार प्रति एक हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। कुछ राज्यों में तो स्थिति यह है कि 40 से 70 हजार ग्रामीण आबादी पर केवल एक सरकारी डॉक्टर है। भारतीय चिकित्सा परिषद के अनुसार देश में 50 फीसदी से भी ज्यादा झोलाझाप डॉक्टर हैं। परिषद का मानना है कि शहरी क्षेत्रों में जहां योग्य चिकित्सकों की संख्या 58 फीसदी है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह 19 प्रतिशत से भी कम है। बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य दिवस के माध्यम से जहां समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया जाता है, वहीं इसका सबसे महत्वपूर्ण बिन्दू यही होता है कि लोगों को स्वस्थ वातावरण बनाकर स्वस्थ रहना सिखाया जा सके। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होना ही मानव-स्वास्थ्य की परिभाषा है।

विश्व स्वास्थ्य दिवस
दुनिया के तमाम देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन कोरोना जैसे वायरसों के समक्ष जब अमेरिका जैसे विकसित देश को भी बेबस अवस्था में देखा और वहां भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी सामान की भारी कमी नजर आई, तब पूरी दुनिया को अहसास हुआ कि अभी भी जन-जन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

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