सतरंगी सियासत
लगता है चुनावी मौसम आ रहा। जमकर बयानबाजी हो रही।
लगता है चुनावी मौसम आ रहा। जमकर बयानबाजी हो रही। जिनको राजनीति में धर्म के उपयोग के परहेज और जिनको गुरेज नहीं। जनता का मन कसेला करने वाले बोल, बोले जा रहे। ऐन चुनाव से पहले हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व में अंतर बताया जा रहा। यहां तक कि हिन्दू धर्म को गांधी जी से जोड़ा जा रहा और हिन्दुत्व को गोडसे से। मतलब माहौल गरमाने की कोशिश। वैसे, नब्बे के दशक में देश की सर्वोच्च अदालत हिन्दुत्व की विस्तृत व्याख्या कर चुकी। कोर्ट ने इसे जीवन दर्शन बताया। लेकिन चुनाव में वोटों की फसल काटने के फेर में सब गड़मड़ हो रहा। फिर विकास और रोजगार जैसे सदाबहार सवाल कहां जाएंगे? जिनकी सामान्य समय में चर्चा सबसे ज्यादा होती। लेकिन चुनाव आते ही इनसे सबसे पहले किनारा किया जाता। शायद यही राजनीति! हां, वोट आम जनता को देना है। वह सब देख, समझ रही है। इसीलिए जब वोट की चोट पड़ती है। तो अच्छे-अच्छे धुरंधर नेताओं का दिमाग ठिकाने आते देर नहीं लगती।
यू-टर्न
पीएम मोदी ने कृषि कानूनों पर गुरुपर्व पर यू-टर्न ले लिया। कई को मानो इसकी उम्मीद नहीं थी। यकायक इतना बड़ा झन्नाटेदार ऐलान! अब इसके फायदे, नुकसान पर विमर्श हो रहा। किसान संगठनों के नेता एवं विपक्ष इसे मोदी की हार और अपनी जीत बता रहे। तो इसके पक्षधर पीएम मोदी से निराश। हां, इसे तातकालिक रूप से चुनावी लाभ के लिए लिया गया निर्णय बताया जा रहा। लेकिन क्या सारा मामला उतना ही। जितना बताया या इसका अर्थ लगाया जा रहा? पंजाब के पूर्व सीएम अमरिन्दर सिंह किसान आंदोलन की आड़ में इसमें खालिस्तानियों की घुसपैठ को राष्टÑीय सुरक्षा का मुद्दा बता चुके। राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल 31 अक्टूबर को देश में आंतरिक सुरक्षा को लेकर बहुत बड़ी बात कह चुके। असल खतरा कहां से। फिर भी यह सही। पंजाब और यूपी के सियासी समीकरण इस फैसले से कुछ बदले हुए से। जहां पंजाब में कांग्रेस के कमजोर होने की संभावना। तो पश्चिमी यूपी में टिकैत के उभरने से विपक्षी वोट बंटने के आसार।
अब आगे क्या?
तो मरुधरा में अब आगे क्या? सालभर से चली आ रही सियासी रस्साकशी का पेंच सुलझता नजर आ रहा या और उलझेगा? मंत्रिमंडल पुनर्गठन के बाद अब उम्मीद है राजनीतिक नियुक्तियां भी जल्द होंगी। फिर संगठन चुनाव की प्रक्रिया चल भी रही। मतलब संगठन में भी अगले साल जुलाई तक पार्टी आकांक्षी नेताओं को एडजस्ट कर दिया जाएगा। लेकिन जो बताया जा रहा। क्या वह लक्ष्य पूरा होगा? यानी साल 2023 में कांग्रेस को फिर से सत्ता में वापस लाना। यही बताकर सारी प्रक्रियाएं की जा रहीं। प्रभारी माकन, सीएम गहलोत एवं सचिन पायलट इसे लगातार दोहरा रहे। लेकिन अभी इसका इंतजार किया जाना चाहिए। क्योंकि विधानसभा चुनाव में दो साल बाकी। हां, कांग्रेस में अब एक नई बात हो गई। महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा, गांधी परिवार में एक मजबूत पावर सेंटर होकर उभरीं। राजस्थान के मसले में वह केन्द्रीय भूमिका में। लगता है सब कुछ योजना के अनुरूप जमीन पर उतरवा लिया। इसमें अजय माकन की भूमिका मध्यस्थ की। जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।
यात्रा के बहाने...
तो पूर्व सीएम वसुंधरा राजे मेवाड़ यात्रा पर निकलने जा रहीं। मकसद मंदिरों में ढोक लगाना और नए-पुराने कार्यकर्ताओं से मेल मिलाप बताया जा रहा। कोरोना में दिवंगत हुए विधायकों के परिजनों से भी मिलेंगी। लेकिन क्या सब वही, जो बताया जा रहा? हां, नेता प्रतिपक्ष कटारिया ने इस कदम पर आपत्ति जताई। माना जा रहा। पूर्व सीएम प्रदेश में अपनी सियासी ताकत आजमा रहीं। साथ में अपने-परायों को संदेश भी। वह अभी चुकी हुई नहीं। बल्कि साल 2023 की तैयारियों में अभी से जुट भी गर्इं अब भाजपा नेतृत्व क्या करेगा? यह देखने वाली बात। लेकिन यह तय। राजस्थान भाजपा में वर्चस्व को लेकर पासे चल दिए गए! कौन आगे बढ़ेगा और कौन पीछे छूटेगा। इसमें अभी समय। नेतृत्व भी शायद इसलिए इंतजार कर रहा कि सबका दम देख लिया जाए। फिर फैसला लिया जाए। जब जैसी जरुरत होगी। कदम आगे बढ़ाया जाएगा। लेकिन चुनावी चौसर दोनों ही ओर से आगे बढ़ाई जा रही। पहले संगठन और बाद में सत्ता की बाजी किसके हाथ लगेगी?
ऐसा तो नहीं!
तीन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ ही कश्मीर में भी हलचल। पूर्व सीएम महबूबा कह रहीं। अब अनुच्छेद-370 को भी वापस लिया जाए। फिर सीएए विरोधी भी सक्रिय। इसे भी वापस लिया जाए। वैसे वापसी तो भूमि अधिग्रहण बिल की भी हुई थी। वैसे ही संभव है, कृषि कानूनों को भी नए तरीकों से वापस संसद में नए सिरे से लाया जाए। उसके लिए जरुरी विमर्श भी संबंधित पक्षों से कर लिया जाए। खैर, बात कश्मीर की। कश्मीर में साल 2015 के चुनाव के बाद भाजपा-पीडीपी की गठबंधन सरकार बनी थी। उसकी परिणिति 35-ए और अनुच्छेद-370 हटने से हुई। कहीं ऐसा तो नहीं सरकार ने कृषि कानूनों एवं सीएए के बहाने उन सभी की पहचान कर ली हो। जिन्होंने विरोध के नाम पर और अभिव्यक्ति की आजादी के आड़ में कुछ ज्यादा ही बोला हो। वैसे अगले साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव समेत कई सीटें खाली हो रहीं। कहीं सरकार उच्च सदन में पूर्ण बहुमत का इंतजार तो नहीं कर रही?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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