संविधान-संसद-सर्वोच्च न्यायालय

संविधान आम कानूनों की तरह नहीं है

संविधान-संसद-सर्वोच्च न्यायालय

अगर सरकार जब चाहे संविधान बदल सकती है तो मूल अधिकारों का कोई महत्व नहीं रह जाता है। अत: संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, शक्तियों का बंटवारा, न्यायिक संरक्षा, धर्म निरपेक्षता, संगीय व्यवस्था व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा, राष्ट्र की अखण्डता भारत के मूलभूत स्वरूप के रूप है, जिनमें भारतीय संसद संशोधन  नहीं कर सकती।

दिनांक 11.01.2023 को जयपुर बिरला भवन में आयोजित 83वां अन्तरराष्ट्रीय पीठासीन अधिकारी कान्फ्रेंस को सम्बोधित करते हुए भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने विचार व्यक्त किए कि सन् 1973 में केशवानंद भारती प्रकरण में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय में भारतीय संविधान के संशोधन किए जाने के क्षेत्र में संसद के सीमित अधिकार बाबत निर्णय गलत रहा है और उससे एक गलत परम्परा प्रांरभ हुई है। उनका विचार था कि निर्णय ने निर्धारित किया कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन उसके ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ में संशोधन नहीं कर सकती है। उनका कथन था कि न्याय पालिका के प्रति सम्मान के साथ में उक्त निर्णय से असहमत हूं।  क्या संसद का निर्णय किसी अन्य अर्थोरिटी के अधीन हो सकता है। राजसभा के सभापति के पद ग्रहण किए जाते समय अपने प्रांरम्भिक अभिव्यक्ति में मैंने ऐसा अभिव्यक्त किया था और उक्त अभिव्यक्ति के बारे में मेरे को कोई संदेह नहीं है। भारत संभवतया: एकमात्र राष्ट्र होगा, जहां संसद द्वारा पारित संविधान के संशोधन को न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया गया।’भारत के उपराष्टÑपति जगदीप धनकड की उक्त अभिव्यक्ति में देश में एक नई बहस छेड़ दी है।

राष्ट्रीय महत्व के उक्त बिन्दु पर विचारण से पूर्व भारतीय संविधान के संशोधन बाबत उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों पर विचारण आवश्यक है। सन् 1973 में केशवानंद बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ में अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एक मात्र प्रतिबंध यह है कि किसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में 31 अक्टूबर 1972 से 24 अपै्रल 1973 तक हुई। (एआईआर 1973 सुप्रीम कोर्ट 1461)

देश के न्यायिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वाला शायद कोई केशवानंद भारती के नाम से अपरिचित हो। 24 अपै्रल 1973 को माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले मे दिए गए ऐतिहासिक फैसले के कारण केशवानंद भारतीय इतिहास का सर्वविदित नाम हो गया। इस निर्णय ने भारत में लोकतंत्र की स्थापना को नई दिशा प्रदान की। 

कासर बोर्ड केरल का सबसे उत्तरी जिला है। पश्चिम में समुद्र और पूर्व में कर्नाटक से घिरे इस इलाके का सदियों का पुराना एक शेव मठ है, जो एडनीर में स्थित है। यह मठ नवीं सदी के महान संत और अद्वैत वेंदात दर्शन के प्रणेता आदि गुरू शंकराचार्य से जुड़ा है। इस मठ का इतिहास करीबन 1200 साल पुराना माना जाता है। इस मठ के प्रमुख को केरल के शंकराचार्य का दर्जा दिया जाता है इसलिए स्वामी केशवानंद भारती केरल के शंकराचार्य माने जाते थे, उन्होनें महज 19 साल की अवस्था में संन्यास लिया था। कुछ वर्ष बाद गुरु के निधन के वजह से वे मुखिया बने। मठ के पास हजारों एकड़ जमीन थी, परन्तु ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृव्य में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार के केरल भूमि सुधार अधिनियम, 1963 से मठ की हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहित कर ली गई तथा इस अधिनियम को भारत के संविधान की नवीं सूची में ढाल दिया गया, जिससे इस पर न्यायिक पुनरावलोकन नहीं हो सके। स्वामी केशवानंद भारती ने सरकार के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी। केरल हाईकोर्ट के समक्ष सन् 1970 में दायर याचिका में केशवांनद भारती ने संविधान के अनुच्छेद 26 का हवाला देते हुए मांग की कि उनको अपनी धार्मिक सम्पदा का प्रबंध करने का मूल अधिकार दिलाया जाए, उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 31 में सम्पत्ति के मूल अधिकार पर पाबंदी लगाने वाले केन्द्र सरकार के 24वें, 25वें और 29वें संशोधन को चुनौती दी। केरल हाईकोर्ट में हार के उपरांत मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया गया। देश की शीर्ष अदालत ने पाया कि इस मामले में संवैधानिक व्याख्या की आवश्यकता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या देश के संसद के पास संवैधानिक संशोधन के जरिए मौलिक अधिकारों सहित किसी भी अन्य हिस्से में असीमित संशोधन का अधिकार है? शीर्ष अदालत ने इस मामले में पूर्व के गोलखनाथ मामले में बनी 11 जजों के संविधान पीठ से बड़ी 13 जजों की पीठ बनाई। सन् 1972 के अंत में इस मामले की लगातार सुनवाई 68 दिनों तक चली। उच्चतम न्यायालय ने 703 पृष्ठ के अपने फैसले में केवल 1 वोट के अंतर से 7:6 स्वामी केशवानंद भारती के विरोध मे फैसला दिया। इस प्रकार केशवानंद भारती मामले ने गोलखनाथ के निर्णय को परिवर्तित कर दिया, जिसके अनुसार अब न्यायालय ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर तो सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन वह नहीं सकती है, जिससे संविधान के मूलभूत ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई परिवर्तन होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो। इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि देश में संविधान से उपर कोई भी नहीं  है। संसद भी नहीं है। अगर इस मामले में 7 जज यह फैसला नहीं देते और संसद को संविधान में किसी भी हद तक संशोधन के अधिकार मिल गए होते तो शायद देश में गणतंत्र व्यवस्था भी सुरक्षित नहीं रह पाती। 

24 अपै्रल 1973 को चीफ  जस्टिस सीकरी और उच्चतम न्यायालय के 12 अन्य न्यायाधीशों ने न्यायिक इतिहास का यह सबसे महत्वपूर्ण निर्णय दिया कि संविधान संरचना के कुछ प्रमुख मूलभूत तत्व जिनमें अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन नहीं किया जा सकता अर्थात् संविधान की सर्वोच्चता, विधायका, कार्यपालिका एंव न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा गणराज्य एंव लोकतांत्रिक स्वरूप वाली सरकार, संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र, राष्टÑ की एकता एवं अखण्डता, संसदीय प्रणाली, व्यक्ति की स्वतंत्रता एंव गरिमा, मौलिक अधिकारों और नीति
निदेशक तत्वों के बीच सौहार्द और संतुलन, न्याय तक प्रभावकारी पहुंच एवं एक कल्याण राज्य की स्थापना का जन आदेश। 

इस निर्णय के उपरान्त  नवीं अनुसूची का न्यायिक अवलोकन किया जा सकता है। उक्त निर्णय के उपरान्त कई विदेशी संवैधानिक अदालतों ने भी प्रेरणा ली। केशवानंद के फैसले के 16 साल बाद बंग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने अनवर हुसैन चौधरी बनाम बंग्लादेश में मूल संरचना सिद्वान्त को मान्यता दी। केशवानंद के केस ने अफ्र ीकी महाद्वीप का भी ध्यान आकर्षित किया। गोलखनाथ बनाम पंजाब राज्य केस में उच्चतम न्यायालय ने सन् 1967 में यह व्यवस्था दी थी कि संविधान में वर्णित मूल अधिकारों में संसद द्वारा कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। (गोलखनाथ बनाम पंजाब राज्य- एआईआर 1643)

हाल ही में जनवरी 2023 में मुम्बई बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित 18वां नानी पालकीवाला मेमोरियल लेकचर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधिपति डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने अभिव्यक्त किया कि भारतीय संविधान का मूल ढ़ाचा उत्तरी धु्रव (नोर्थ स्टार) की भांति न्यायपालिका का संविधान के व्याख्या में मार्गदर्शन का कार्य करता है।

भारत के संविधान के मूलभूत ढांचे की फिलोसपी भारतीय संविधान की सर्वोच्चता को निर्धारित करती है। साथ ही कानून का शासन, शक्तियों का बंटवारा, न्याय पुनरावलोकन, धर्म निरपेक्षता, संज्ञेय प्रणाली, व्यक्ति की स्वतंत्रता और सम्मान और राष्टÑ की एकता मूल ढांचे के स्वरूप है। संविधान के मूलभूत ढांचे के सिद्वान्त को भारत ने जर्मनी राष्टÑ से ग्रहण किया। केशवानंद भारती केस की सुनवाई की 13 सदसीय संवैधानिक पीठ के समक्ष भारत के प्रसिद्ध संविधान विशेषज्ञ एडवोकेट नानकी पालकीवाला ने संविधान के मूलभूत ढांचे पर प्रकाश डाला, जिसमें कुल सुनवाई 5 माह की अवधि मे 66  दिनों की सुनवाई मे 31 दिन नानकी पालकीवाला ने संवैधानिक पहलुओं पर बहस की कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति अवश्य प्राप्त है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढाचे में परिवर्तन की शक्ति प्राप्त नहीं है। संविधान की सरंचना राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख व्यक्तियों द्वारा की गई थी। अंतोगतवा देश के न्यायविदों का एकमत है कि भारतीय संसद भारत के संविधान के मूलभूत ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती। 

संवैधानिक वैधता से ज्यादा बढ़ी संवैधानिक नैतिकता है। संविधान आम कानूनों की तरह नहीं है, जिनमें आमूलचूल बदलाव किया जा सकता है। अगर सरकार जब चाहे संविधान बदल सकती है तो मूल अधिकारों का कोई महत्व नहीं रह जाता है। अत: संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, शक्तियों का बंटवारा, न्यायिक संरक्षा, धर्म निरपेक्षता, संगीय व्यवस्था व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा, राष्टÑ की अखण्डता भारत के मूलभूत स्वरूप के रूप है, जिनमें भारतीय संसद संशोधन  नहीं कर सकती। देश में सर्वोच्चता संविधान को प्राप्त है, ना कि संसद, कार्यपालिका अथवा न्यायपालिका।

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