सतरंगी सियासत
जातीय महापंचायतें!
पहले राजपूत समाज, फिर जाट समाज और अब ब्राह्मण समाज की महापंचायतें हो चुकीं। तीनों ने समाजों की मांग। अगला मुख्यमंत्री उनके समाज से हो। हां, ऐसी जातीय महापंचायतें आगे और समाजों की भी होगीं। इसमें संदेह नहीं।
जातीय महापंचायतें!
राजस्थान में विधानसभा चुनाव का रंग जम रहा। सो, प्रमुख समाज अपनी धमक और हनक दिखाने को आगे आ रहे। अब इनका राज्य के प्रमुख दलों पर क्या असर पड़ेगा। यह तो देखने वाली बात। लेकिन सबसे पहले राजपूत समाज, फिर जाट समाज और अब ब्राह्मण समाज की महापंचायतें हो चुकीं। तीनों ने समाजों की मांग। अगला मुख्यमंत्री उनके समाज से हो। हां, ऐसी जातीय महापंचायतें आगे और समाजों की भी होगीं। इसमें संदेह नहीं। सो, यह चुनावी आहट और माहौल गरमाने का तरीका। लेकिन राजस्थान में ऐसा पहले भी होता आया। वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में जाति एक प्रकार से राजनीतिक दबाव समूह का भी काम करती। वैसे भी ऐसे समय में इन जातिय महापंचायतों को आयोजित करने वाले लोगों की पूछ इन दिनों बढ़ सी जाती। हां, इन सबका कितना लाभ मिलता। यह सभी जानते हैं। लेकिन इनके जरिए पहचान जरूर मिल जाती।
असमंजस के हालात!
राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता मानहानि के एक मामले में अदालत द्वारा दोषी करार देने के बाद खत्म हो गई। अब सामने तुरंत यह सवाल कि इसका सामना कैसे किया जाए। पार्टी के सामने इससे निपटने का तरीका राजनीतिक एवं कानूनी दोनों ही विकल्प। लेकिन अभी तक पार्टी के वकील किस कोर्ट में कब जाएंगे। यह किसी को पता नहीं। सिर्फ इस बारे में चर्चा होने की बात सामने आ रही। इसी प्रकार राजनीतिक लड़ाई की शुरूआत राजघाट पर रविवार को आयोजित हुए सत्याग्रह से हो चुकी। देशभर में पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर भी उतर गए। लेकिन एक बात पर मामला अटक गया बताया। पार्टी सांसद इसके विरोध में इस्तीफा दें या न दें! क्योंकि ऐसा ही कांग्रेस ने साल 1980 में किया गया था। जब इंदिरा गांधी की भी सदस्यता खत्म कर दी गई थी। कहीं मामला असमंजस का तो नहीं?
कर्नाटक का इंतजार!
प्रदेश भाजपा में भले ही लकीर खिंचने की नौबत। लेकिन इंतजार कर्नाटक चुनाव खत्म होने तक का। फिलहाल शीर्ष भाजपा नेतृत्व का सारा फोकस उधर ही। क्योंकि यह राज्य दक्षिण का द्वार। जहां से तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, केरल एवं तमिलनाडु भी आसपास ही। सो, हल्के से नहीं लिया जा सकता। न कोई जोखिम। असल में, पिछले साल मार्च में जब यूपी में भाजपा ने प्रचंड जीत दर्ज की थी। तभी से तस्वीर साफ होने लगी थी। फिर त्रिपुरा के नतीजों ने काफी कुछ साफ कर दिया। अब अंतिम बिसात कर्नाटक चुनाव के बाद बिछाई जाएगी। ऐसा माना जा रहा। ताकि राजस्थान में कोई भ्रम नहीं रहे। वैसे भी प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद पर बदलाव करके कुछ नरमाई का संकेत जरूर चला गया हो। लेकिन रणनीति बहुत पहले ही बन चुकी। होगा वही जो पार्टी नेतृत्व चाहेगा और उसी के अनुसार सबको चलना होगा।
असर का आकलन
राहुल गांधी की सांसदी क्या गई। अब इसके असर एवं परिणाम का आकलन दोनों ओर से हो रहा। सरकार अपनी ओर से चिश्चिंतता का आभास दे रही। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं। चर्चा तो यह भी कि कर्नाटक चुनाव के साथ ही वायनाड उपचुनाव का कार्यक्रम भी घोषित कर दिया जाएगा। लेकिन यदि ऊपरी अदालत की व्यवस्था कहीं विपरीत आई तो? क्योंकि ऐसा लक्ष्यद्वीप के सांसद के मामले में हो चुकी। सो, सरकार दोनों ही परिस्थितियों की तैयारी कर रही। हां, गांधी परिवार के वारिस की सांसदी छिनने के बाद कांग्रेस कार्यकताओं की प्रक्रिया कैसी रही। यह सभी ने देख रहे। वहीं, कांग्रेस देशभर में इसे कानूनी मसले से इतर राजनीतिक मामला बनाएगी। इसमें किसी को संदेह नहीं। इसीलिए कुछ चीजों में देरी होने जैसा आभास हो रहा। लेकिन यह सच। कांग्रेस के लिए यह आपदा और अवसर दोनों। जिसमें वह लगी हुई।
विपक्षी एकता!
ज्यों-ज्यों अगले आम चुनाव-2024 की आहट। विपक्षी दलों की एकता चर्चा का विषय। यदि वायनाड लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव हुआ। तो कांग्रेस एवं वामदलों की एकता का राग सामने आ जाएगा। वहीं, कई समविचारी दलों ने राहुल गांधी की सांसदी जाने का विरोध किया। लेकिन जदयू के नीतीश कुमार ने कुछ कहने के बजाए चुप्पी साध ली। ममता बनर्जी बिल्कुल कांग्रेस के दायरे से बाहर। तो बीआरएस के केसीआर अपनी धुन में आगे बढ़ने को आतुर। हां, आम आदमी पार्टी जरुर कांग्रेस के सुर में सुर मिला रही। लेकिन कब तक? वह वहीं पैर पसारने को आमादा। जहां कांग्रेस का ठीक ठाक प्रभाव। हालांकि राहुल गांधी ने उन्हें समर्थन देने के लिए विपक्षी नेताओं को धन्यवाद दिया। लेकिन जब चुनाव नजदीक आएंगे। तो विपक्षी नेता कितना कांग्रेस को अपनाएगें। यह देखने वाली बात होगी। क्योंकि फिलहाल तो राजद और सपा भी अपने में फंसी हुईं।
-दिल्ली डेस्क
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