सतरंगी सियासत
कांग्रेस की चुनावी और सांगठनिक रणनीति चर्चा में। उसकी राजनीतिक लड़ाई मुख्य रूप से भाजपा से। लेकिन उसकी अदावत खुद अपने ही समविचारी दलों से सामने आ रही।
रणनीति!
कांग्रेस की चुनावी और सांगठनिक रणनीति चर्चा में। उसकी राजनीतिक लड़ाई मुख्य रूप से भाजपा से। लेकिन उसकी अदावत खुद अपने ही समविचारी दलों से सामने आ रही। केरल में वामदल, पश्चिम बंगाल में टीएमसी, पंजाब में आम आदमी पार्टी, महाराष्ट्र में शिवसेना, जम्मू-कश्मीर में पीडीपी शामिल। अब मौजूं सवाल। एक ओर तो कांग्रेस आईएनडीआइए की अगुवाई का दावा कर रही। वहीं, दूसरी ओर सहयोगी दल ही उसके सामने मैदान में। ऐसे में नुकसान तो होगा ही। सो, सवाल उठना लाजमी। असल में, कांग्रेस के सामने जो दल गठबंधन के बावजूद डटे हुए। उनकी वर्तमान में राजनीतिक अदावत भाजपा से। फिर वह अपने क्षेत्र या प्रदेश में कांग्रेस को बहुत प्रभावी नहीं मानते। ऐसे में, जब मामला आम चुनाव का। तो कांग्रेस अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहती। वहीं, सहयोगी दलों के लिए भी अपना जनाधार बढ़ाने का अवसर। ऐसे में यह कौन मौका चूकना चाहेगा?
हिंसा का आलम!
चुनावी हिंसा पश्चिम बंगाल की मानो पहचान बन गई। हर बार बेकसूर लोग हताहत होते। लेकिन अब तो केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा कार्रवाई करने पर भी हिंसा। पहले ईडी की टीम पर हमला। अब सीबीआई की टीम भी इसी दायरे में। आरोप टीएमसी पर। इसी कारण ममता सरकार, केन्द्र सरकार और भाजपा के निशाने पर रहती। याद किजिए, साल 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद की हिंसा। उसमें भी बड़ी संख्या में महिलाओं एवं बच्चों को निशाना बनाया गया। यहां तक कि लोगों को पड़ोसी राज्यों में पलायन करके जाना पड़ा। अब फिर से चुनावी माहौल। इसी बीच, त्यौहार भी आ गए। राज्य में पिछली बार रामनवमी पर खूब हिंसा हुई। सो, सरकारी मशीनरी की इस समय भी परीक्षा। लेकिन चुनावी दौर में टीएमसी और भाजपा एक दूसरे पर ताबड़तोड़ आरोप मढ़ने से नहीं चूकते। लेकिन मामला जब संवेदनशील। तो अतिरिक्त सावधानी क्यों नहीं बरती जाती?
कैसी एकता?
जम्मू-कश्मीर में आईएनडीआइए की एकता सामने। कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के बीच तालमेल नहीं हो सका। महबूबा मुफ्ती ने एकतरफा निर्णय लेते हुए अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की। हां, जम्मू रीजन की दो सीटें उन्होंने आईएनडीआइए के लिए छोड़ दीं। बाकी घाटी की तीन सीटों पर खुद लड़ेंगी। इसी के बाद कांग्रेस और एनसी साथ आए। दोनों ने पीडीपी पर गठबंधन तोड़ने का आरोप मढ़ा। अब भाजपा को हराने का संकल्प कहां चला गया? किसका स्वार्थ आड़े आ गया? या किसी को अपनी राजनीतिक जमीन खिसकने का डर सता रहा? इससे भाजपा को लाभ मिलेगा? हालांकि कश्मीर घाटी में भाजपा का प्रभाव कभी नहीं रहा। इसके बावजूद पीडीपी और एनसी का आमने-सामने होना। बहुत कुछ कह रहा। कांग्रेस हालत पहले से ही पतली। उसकी कुछ संभावना बनती भी होगी। तो गुलाम नबी आजाद की पार्टी रंग में भंग डालेगी!
रायता फैल गया!
अपनी मरूधरा में भाजपा के लिहाज से छह से आठ सीटें ‘रेड जोन’ में बताई जा रहीं। पार्टी नेतृत्व भी इसे लेकर चिंतित। लेकिन सवाल कांग्रेस का भी। वहां प्रत्याशी तो सभी घोषित हो गए। लेकिन लोचा भी कम नहीं रहा। बांसवाड़ा में आखरी तक सस्पेंस बना रहा। तो राजसमंद में घोषित प्रत्याशी ने चुनाव लड़ने से मना करके पार्टी को असहज कर दिया। फिर जातिगत समीकरण साधने के फेर में भीलवाड़ा में उम्मीदवार बदला गया। यहां से घोषित प्रत्याशी को राजसमंद शिफ्ट किया गया। फिर भारी विवाद के चलते जयपुर शहर के प्रत्याशी को भी बदला गया। चर्चा तो दौसा को साधने के फेर में टोंक-सवाई माधोपुर में भी उलटफेर की रही। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने समझदारी दिखाई। सबसे ज्यादा झमेला हुआ बांसवाड़ा-डूंगरपुर में। कांग्रेस के आखरी तक अनिर्णय की स्थिति ने फजीहत करवाई। मानो उसने ने भाजपा को वॉक ओवर दे दिया हो!
दसवीं बार?
देश में यह 18वीं लोकसभा का चुनाव। साल 2014 में किसी एक दल की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी। ऐसा 1984 के बाद हुआ। उसके बाद तीस साल लग गए। किसी पूर्ण बहुमत वाली सरकार को आने में। खैर, इसी के साथ एक बात और। आजादी के आंदोलन की अगुवाई करने वाली कांग्रेस के लिए यह लगातार दसवां चुनाव। अनुमानों में उसके 272 के आंकड़े को पार कर पाने की संभावना नहीं दिख रही। साल 1991, 2004 और 2009 में वह सहयोगी दलों के साथ ही सरकार चला पाई। इस बीच, 2014 और 2019 में ऐसा हुआ। जब कांग्रेस सौ सीटों का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। साल 1996, 1998, 1999 और 2004 में वह डेढ़ सौ पार नहीं कर सकी। जबकि भाजपा 1991 के बाद से कभी सौ से नीचे नहीं रही। ऐसे में, साल 2024 में दिलचस्प आंकड़े आने की संभावना!
चुनावी प्रचार!
आम चुनाव के पहले चरण के मतदान में अब एक सप्ताह से भी कम समय। भाजपा और कांग्रेस के नेता ताबड़तोड़ जनसभाएं और रोड शो कर रहे। लेकिन चुनावी जोश में जनता के सामने कब नेताओं की जुबान फिसल जाए। पता नहीं चलता। कई बार विवाद होने पर चुनाव आयोग में शिकायत की जाती। आयोग द्वारा संबंधित नेता को नोटिस भेजा जाता। लेकिन ज्यादातर मामलों में इससे ज्यादा कुछ होता नहीं। सवाल यह कि बदजुबानी से क्या किसी दल या नेता को ज्यादा मत मिलते? फिर भी सार्वजनिक रुप से नेताओं द्वारा असंसदीय और अमर्यादित भाषा का प्रयोग किस ओर इशारा? इन सबसे नेताओं की छवि भी नहीं निखरती। बल्कि नुकसान ही ज्यादा होता। सो, उपाय क्या? नैतिक नियंत्रण या फिर कानूनी? शायद स्वनियंत्रण हो। तो ज्यादा अच्छा! राजनीतिक दल स्वयं ही अपनी सीमा रेखा तय कर लें। तो गैर जरुरी बयानबाजी में कमी संभव।
बेमन तो नहीं?
राजस्थान की राजनीति में लंबे समय तक प्रभाव और छाप छोड़ने वाले दो नेताओं की सक्रियता इस बार अपेक्षाकृत कम दिखाई पड़ रही। एक तो अशोक गहलोत और दूसरा नाम वसुंधरा राजे का। हालांकि गहलोत के बेटे वैभव सिरोही-जालौर से। तो राजे के बेटे दुष्यंत बारां-झालावाड़ से चुनावी मैदान में। लेकिन इन दोनों ही नेताओं के प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में कम दौरे होना। क्या संकेत कर रहा? दोनों ही बेमन हो गए या अपने पुत्रों की सीट पर ज्यादा गंभीरता से लगे हुए? इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि प्रदेशव्यापी दौरे नहीं करने से भाजपा एवं कांग्रेस को नुकसान की आशंका। वैसे प्रदेश के सीएम भजनलाल शर्मा खासे सक्रिय। वह लगातार प्रदेशभर में घूम रहे। वहीं, कांग्रेस में भी सचिन पायलट भागदौड़ कर रहे। उन्हें छत्तीसगढ़ का भी प्रभार। उसके बावजूद जहां बुलाया जा रहा। वहां प्रचार के लिए जा रहे।
-दिल्ली डेस्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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