अन्तरिक्ष प्रौद्योगिकी की ओर अग्रसर भारत

अन्तरिक्ष प्रौद्योगिकी की ओर अग्रसर भारत

चन्द्रयान-1 ही था जिसने 2008 में चन्द्रमा की सतह पर पहली बार पानी की उपस्थिति के साक्ष्य पूरी दुनिया को प्रस्तुत किए थे।

आज हम बात करेंगे एक ऐसे विषय पर जिस पर दुनिया के विभिन्न देशों के बीच एक होड़ लगी है, और वो हैं चांद को छू लेने, उसको अपना बना लेने की, इसके लिए दुनिया के शीर्ष देश स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए तथा स्पेस टेक्नोलॉजी में बादशाहत हासिल करने के लिए अपने चन्द्र मिशन भेज रहे हैं जिनका उद्देश्य अनुसंधान का कम और स्वयं की प्रतिष्ठा का ज्यादा लग रहा है। इसी क्रम में रूस, जापान, इजराइल जैसे देशों के चन्द्र मिशन चांद को छूने की जल्दबाजी में सॉफ्ट लैंडिंग के बजाए हार्ड लैंडिंग ही कर रहे हैं। गौरतलब है कि हाल ही में रूस का चन्द्र मिशन चन्द्रमा की सतह पर क्रैश कर गया था, इसलिए कहा भी जाता है कि जल्दबाजी व राजनीतिक  दबाव  में लिए गए निर्णय सदैव घातक एवं नुकसानदायी होते हैं, वैसे रूस अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में कदम रखने वाला प्रथम राष्ट्र था, जिसने 1957 में स्पूतनिक नामक उपग्रह को सर्वप्रथम अंतरिक्ष में भेजा था। अब ऐसा लगता है कि दुनिया के देशों की हाल ही में चन्द्रमा को लेकर कुछ ज्यादा ही रूचि दिख रही है। इन सबको देखते हुए हमें कुछ-कुछ शीत युद्ध की याद आने लगी है,जब स्वयं को बेहतर सिद्ध करने के लिए सोवियत संघ एवं यूएस के मध्य स्पेस वार शुरू हुई थी, जो कि एक अंधी स्पेस रेस थी और उस समय नाशा का बजट यूएस के कुल बजट का 5 प्रतिशत तक था। लेकिन समय के साथ अमेरिका का चन्द्र मिशन ‘अपोलो’ तथा रूस के ‘लुना’ मिशन में लोगों की रूचि कम होने लगी, क्योंकि यूएस सन 1969 ई. में ही अपोलो-11 के द्वारा नील आर्म स्ट्रांग को चन्द्रमा की सतह पर उतारकर एक कीर्तिमान स्थापित कर चुका था। अत: यूएस इस स्पेस रेस का एक अकेला और एक मात्र खिलाड़ी होने एवं प्रतिस्पर्धा में किसी अन्य राष्ट्र के न होने के कारण यह स्पेसवार खत्म होने लगी। लेकिन अब पुन: एक लम्बे समय के अन्तराल पश्चात् चन्द्रमा को लेकर एक ऐसी ही जंग छिड़ी हुई है अब इस जंग में अमेरिका, चीन, रूस, जापान सहित कई देश सम्मिलित हो चुके हैं।

इन सब के बीच एक ऐसा देश जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को अपना आदर्श मानता है, प्राणी मात्र के प्रति कल्याण की भावना रखता है, विश्व कल्याण जिनका मूल मंत्र है। दबे पांवों से धीरे-धीरे लेकिन, नियोजित तरीके से अन्तरिक्ष प्रौद्यौगिकी में अपने कदम आगे बढ़ा रहा है जिनकी किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं हैं । जिनका मुकाबला सदैव स्वयं से रहा है और जो स्वयं की असफलताओं को सफलता की सीढ़ी बनाता है, जिनके मिशन का उद्देश्य केवल और केवल अन्तरिक्ष प्रौद्यौगिकी का उपयोग, मानव मात्र के प्रति उपयोगी ही रहता है। दोस्तों हम बात कर रहे हैं हमारे भारत वर्ष की और उनकी अन्तरिक्ष ऐजेन्सी ‘इसरो’ जो अन्तरिक्ष के क्षेत्र में लगातार नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रही है।
आज भले ही हमारे पास यूएस रूस जैसे शक्तिशाली रॉकेट नहीं है जो सीधे ही अन्तरग्रहीय मिशन के लिए स्पेस क्राफ्ट को उनकी कक्षा में पहुंचा सके या चन्द्रयान-3 जैसे मॉडल को सीधे ही ‘लूनर ट्रान्सफर ट्रेजेक्टरी’ में डाल सके, फिर भी इसरो लगातार 2008 से अन्तरग्रहीय मिशन (चन्द्रयान, मंगलयान) को संचालित कर रहा है और वो भी बेहतरीन परिणाम के साथ। 

चन्द्रयान-1 ही था जिसने 2008 में चन्द्रमा की सतह पर पहली बार पानी की उपस्थिति के साक्ष्य पूरी दुनिया को प्रस्तुत किए थे, वह इसरो का मंगलयान-1 ही था जो सितम्बर 2014 को अपने प्रथम प्रयास में ही मंगल की कक्षा में सफलता पूर्वक स्थापित करके एक नया कीर्तिमान स्थापित किया था और प्रथम प्रयास में ही यह कारनामा करने वाला भारत प्रथम राष्टÑ बना था, लेकिन स्मरण रहे ये सभी ‘डीप स्पेस मिशन’ इसरो के द्वारा कम लागत और कम ऊर्जा के साथ अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली रॉकेट के द्वारा ‘स्लींग सॉट टेक्नोलॉजी’ के द्वारा सम्पन्न करवाए जाते हैं, जिसमें उपग्रह या स्पेस क्राफ्ट को पृथ्वी की कक्षा में गुरूत्वाकर्षण शक्ति का प्रयोग करते हुए लगातार घुमाया जाता है, साथ ही, प्रत्येक चक्र में एक निश्चित बिन्दु पर, निश्चित समय के लिए स्पेस क्राफ्ट में लगे इंजन को थ्रस्ट करके उपग्रह या डी-बुस्टीग के द्वारा स्पेस क्राफ्ट की गति को बढ़ाया जाता है। ताकि स्पेस क्राफ्ट अपनी कक्षा को बढ़ता रहे।  

यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि उपग्रह या स्पेस क्राफ्ट पृथ्वी के पलायन वेग (11.2 किमी/ प्रति सैकेंड ) की गति को पार नहीं कर लेता और जैसे ही उपग्रह की गति पलायन वेग ज्यादा हो जाती है तब उसे पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण क्षेत्र के बाहर फेंक दिया जाता है तथा स्पेस क्राफ्ट जिस ग्रह, उपग्रह के लिए बनाया जाता है उसके ‘हाईवे’ पर डाल दिया जाता है जिससे वह स्पेस क्राफ्ट उस पथ पर गति करता हुआ उस ग्रह या उपग्रह के समीप चला जाता हैं। तत्पश्चात् विपरीत दिशा में इंजन को थ्रस्ट करके डी-बूस्टींग के द्वारा स्पेस क्राफ्ट की गति को कम करके संम्बन्धित ग्रह/उपग्रह के गुरूत्वाकर्षण क्षेत्र के अधीन उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया जाता है और यदि वह मिशन सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग का हो जैसा चन्द्रयान-3 में था तब उस परिस्थिति में धीरे-धीरे उस स्पेस क्राफ्ट (पैलॉड) की डी-बु्रस्टींग (गति कम करके ) तथा डी-ऑर्बिटींग (कक्षा को छोटा करके ) करते हुए निर्धारित सतह पर उतारा जाता है। 

-सोहनराम
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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