खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की नई राहों के अन्वेषी थे स्वामीनाथन
एम.एस. स्वामीनाथन कृषि वैज्ञानिक भर नहीं थे बल्कि कृषि चिंतन से जुड़े विरल व्यक्तित्व थे। यह उनके ही प्रयास थे कि अधिक उपज होने पर किसानों को उत्पादित फसल ओने-पोने दाम में बेचनी नहीं पड़े।
हरित क्रांति के जनक रहे एम. एस. स्वामीनाथन को भारत रत्न की घोषणा महत्वपूर्ण है। उन्होंने हमारे यहां कृषि क्षेत्र में परंपरागत सोच के दायरे को ही नहीं बदला, बल्कि कृषि से जुड़े चिंतन को उन्नत बीज और कृषि उपकरणों से समृद्ध करने की आधुनिक दृष्टि भी दी। यह स्वामीनाथन ही थे जिन्होंने सबसे पहले हमारे यहां उच्च उत्पादकता वाली फसलों के लिए प्रयास प्रारंभ किया। ऐसे दौर में जब देश अकाल की विभिषिका से जूझ रहा था, स्वामीनाथन ने चावल और गेहंू की उन्नत किस्मों के शोध पर ध्यान दिया। खेती के अंतर्गत भूमि की उर्वरा शक्ति को ध्यान में रखते हुए अधिक उपज देने वाली गेहूं की किस्मों, उर्वरकों के समुचित उपयोग और अधिक प्रभावी कृषि तकनीकों का संयोजन करते हुए उन्होंने देश में गेहूं के उत्पादन को दोगुना करने की पहल की। गेहंू ही नहीं चावल की खेती पर भी इस तरह के प्रयोग किए जिससे उत्पादन में वृद्धि हो। गेहूं के मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित करके उन्होंने संकर बीज विकसित किए। उनके द्वारा की गई इस पहल से ही देश में खाद्यान्न की कमी दूर करने पर कार्य किया। इसी से भारत खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्मनिर्भर हुआ।
भारत रत्न पुरस्कार नहीं है। यह वह सम्मान है जिसके तहत भारत को अपनी मौलिक दृष्टि, चिंतन और सोच के साथ अपनी विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न करने के लिए कार्य किया जाता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो स्वामीनाथन का देश को दिया योगदान अपूर्व है। उन्होंने देश को भारतीय खेती की जटिलताओं पर गहरा अध्ययन किया। सिंचाई साधनों के अभाव, भूमि की उर्वरा शक्ति में भिन्नता, जैविक उर्वरकों के उपयोग के बावजूद उत्पादन में कमी और फसलों के उत्पादन के एक ही ढर्रे पर चलते हुए खेती करने की प्रवृति से उत्पादन में कमी को समझते हुए इस तरह के शोध कार्य किए जिनसे देश में कृषि उत्पादन में निरंतर वृद्धि हो। फसल की उपज और उसके उत्पादन की वास्तविक स्थिति के अध्ययन पश्चात उनकी यह स्थापना थी कि फसलों का विविधिकरण जरूरी है। इसके लिए बाकायदा उन्होंने धान जिन क्षेत्रों में ज्यादा होता है, वहां के आंकड़े एकत्र किए। उनका अध्ययन किया और वैश्विक स्तर पर जो कुछ खेती में हो रहा है उसके जरिए इस तरह के बीज, उर्वरकों और कृषि उपकरणों के समन्वय से प्रयोग किए जिससे भारत जैसे भौगोलिक विषमता वाले देश में खेती लाभकारी हो। उत्पादन में आत्मनिर्भरता बढेÞ। उनके प्रयास रंग लाए और इस तरह देश में हरित क्रांति की शुरूआत हुई। पर यह आसान नहीं था, इसके लिए उन्होंने कृषि चिंतन के ऐसे मॉडल पर देशभर में कार्य करने की ओर लोगों को अग्रसर किया जिससे परम्परागत खेती की संस्कृति के संरक्षण के साथ कृषि में उतदन आधुनिकता की ओर देश अग्रसर हो।
एम.एस. स्वामीनाथन कृषि वैज्ञानिक भर नहीं थे बल्कि कृषि चिंतन से जुड़े विरल व्यक्तित्व थे। यह उनके ही प्रयास थे कि अधिक उपज होने पर किसानों को उत्पादित फसल ओने-पोने दाम में बेचनी नहीं पड़े। कृषि भंडारण के साथ विपणन की नवीनतम तकनीक के जरिए उन्होंने खेती को लाभकारी किए जाने पर जोर दिया। बल्कि कृषि में बड़े उद्यमियों के जुड़ाव के जरिए उन्होंने भारतीय खेती को वैश्विक बाजार प्रदान करने में भी महत्ती भूमिका निभाई।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक रहते उन्होंने देश में राष्ट्रीय पादप, पशु और मछली आनुवंशिक ब्यूरो की स्थापना की। अनाज की उच्च उपज वाली फसलों के विकास के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया, उर्वरकों और किटनाशकों के समुचित प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने की मुहिम चलाई और जैव विविधता प्रबंधन के जरिए पारिस्थितिकी संतुलन के लिए भी महत्ती कार्य किया। नब्बे के दशक में कृषि तथा ग्रामीण विकास के लिए चेन्नई में उन्होंने एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउण्डेशन की स्थापना की। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में महिला केन्द्रित आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया।
स्वामीनाथन का भारतीय कृषि को यही बहुत बड़ा योगदान है कि उन्होंने कृषि क्षेत्र में चिंतन की धारा बदली। देश को हरित क्रांति की सौगात दी और कृषि की उस संस्कृति को पुनर्नवा किया, जिससे भारतीय कृषि समृद्धि की राहों पर अग्रसर हो। ऐसा ही हुआ भी।
-डॉ. अरुणा व्यास
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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