नाटो के सामने अब नई चुनौतियां

नाटो के सामने अब नई चुनौतियां

पिछले सप्ताह संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन की 75 वीं वर्षगांठ के अवसर पर त्रिदिवसीय शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ।

पिछले सप्ताह संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डीसी में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन की 75 वीं वर्षगांठ के अवसर पर त्रिदिवसीय शिखर सम्मेलन संपन्न हुआ। इस सम्मेलन पर पूरे विश्व की नजरें टिकी हुई थीं। सम्मेलन में सभी सदस्यों ने एक स्वर से यूक्रेन के साथ एकजुटता दिखाते हुए उसे पर्याप्त सुरक्षा सहायता जारी रखने का फैसला लिया गया। तो दूसरी ओर चीन को आड़े हाथों लेकर उस पर तीखे प्रहार किए। सम्मेलन में यह भी तय हुआ कि अगला शिखर सम्मेलन अगले वर्ष जून माह में नीदरलैंड की राजधानी हेग में आयोजित किया जाएगा। 75 वां शिखर सम्मेलन ऐसे वक्त पर हुआ जब इसका नेतृत्व करने वाले देश अमेरिका में अगले नवंबर माह में राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहे हैं। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के कीर स्टॉर्मर नए प्रधानमंत्री बने हैं। अमेरिकी चुनाव के नतीजे आने के बाद ही सम्मेलन में लिए गए तमाम महत्वपूर्ण फैसलों का क्रियान्वयन और रणनीति की दशा और दिशा सुनिश्चित हो पाएगी। 

शिखर सम्मेलन को मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन ने संबोधित किया है। उन्होंने अपने संबोधन में यह समझाने की पूरी कोशिश की कि नाटो को इस अवसर का उपयोग जश्न मनाने के लिए इसलिए करना चाहिए , क्योंकि अमेरिका को इस गठबंधन से काफी लाभ मिला है। इसकी सदस्यता में एक ओर जहां वृद्धि हुई तो दूसरी ओर रक्षा पर यूरोपीय राज्यों के बढ़े बजटीय व्यय की रूपरेखा भी तैयार हुई। 

उन्होंने यूक्रेन युद्ध में रूस की सहायता करने पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की कड़ी निंदा की। चेतावनी दी कि यदि बीजिंग ने मास्को को सहायता देना तुरंत बंद नहीं किया तो उसे इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। लेकिन सम्मेलन में बाइडन की जुबान की लड़खड़ाहट ने उनकी कमजोरी को भी जाहिर कर दिया। जब उन्होंने पास खड़े यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को पुतिन और कमला हैरिस को ट्रंप के नाम से संबोधित किया। इससे पहले राष्ट्रपति चुनाव के लिए हुई पहली बहस में बाइडन को ट्रंप के मुकाबले मिली हार तथा उनकी जुबानी फिसलन ने उनकी बढ़ती उम्र की ओर डेमोक्रेटिक पार्टी को गंभीरता से सोचने को विवष कर दिया है। पार्टी के भीतर उनसे चुनावी मैदान से हटने का दबाव बन रहा है। लेकिन इसके बावजूद वे चुनाव लडने पर अड़े हुए हैं। यदि वे मैदान पर डटे रहे तो चुनावी नतीजे रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में जा सकते हैं। दूसरी ओर नाटो को लेकर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के नजरिए पर भी गौर करना होगा। अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में टं्रप ने नाटो गठबंधन में शामिल देशों की व्यय साझा करने की अनिच्छा की खुलकर आलोचना की थी। ऐसे में उनका मत था कि वैश्विक सुरक्षा की जिम्मेदारी के वहन से अमेरिका को मिलता क्या है? हालांकि अब हालात में काफी बदलाव आ चुका है। अधिकांष यूरोपीय देश, अपनी जीडीपी के दो फीसदी हिस्से के बराबर धन देने के दायित्व को पूरा कर रहे हैं। ट्रंप को लेकर यह धारणा भी है कि वे पुतिन के करीबी हैं। 

खैर, अमेरिकानीत इस सैन्य संधि संगठन के सामने मौजूदा वैष्विक परिदृश्य में दो प्रमुख चुनौतियां उभर कर सामने आ रही हैं। एक तो यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़े रूस को चीन की ओर से मदद मिलना। तो दूसरी ओर चीन का हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में वर्चस्व बढाने की नीति, इस के साथ उसकी परमाणु हथियारों और अंतरिक्ष क्षेत्र में आक्रामक क्षमता हासिल कर लेना। सम्मेलन के केंद्र में चीन का मुद्दा हालांकि पहले भी वर्ष 2019 के सम्मेलन में उठा था। लेकिन तब नाटो के वक्तव्य में चीन के जिक्र की भाषा इतनी कड़ी नहीं थी। लेकिन इस बार की तीखी घोषणा के तुरंत बाद चीन ने प्रतिक्रिया दी। उसने रूस की मदद के लगाए आरोपों को सरासर झूठ बताया है। उसकी ओर से जोर देकर कहा गया है कि रूस और चीन के बीच व्यापार और मैत्री का उद्देश्य किसी तीसरे पक्ष को निशाना बनाना नहीं है। लेकिन नाटो की ताजा घोषणा की भाषा ने रूस-यूक्रेन युद्ध को अब नाटो-चीन के बीच छद्म युद्ध में बदल दिया है। खैर, इतना जरूर हुआ कि नाटो की शिखर वार्ता शुरू होने से पहले यूक्रेन को अमेरिकी एफ-16 लड़ाकू विमानों की पहली खेप डेनमार्क और नीदरलैंड से भेज दी गई है। आने वाले दिनों में इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। उसे रूसी हवाई हमलों से बचाव करने में भी मदद मिलेगी।

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सम्मेलन में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की ओर से यूक्रेन की नाटो संगठन की सदस्यता को लेकर स्पष्ट और मजबूत सेतू की बात तो जरूर कही गई है। लेकिन अंतिम फैसला युद्ध समाप्ति के बाद ही संभव हो पाएगा। तेजी से बदलते वैश्विक माहौल में आने वाली नई चुनौतियों से नाटो अब कैसे निपटता है, यह कठिन परीक्षा की घड़ी होगी।

-महेश चंद्र शर्मा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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