Gulabo Sitabo Movie Review: सर्वाइवल के खेल में मानव-मूल्यों की बलि देते नागरिक

Gulabo Sitabo Movie Review: सर्वाइवल के खेल में मानव-मूल्यों की बलि देते नागरिक

गुलाबो सिताबो के किरदार अपना एक लक्ष्य तय करके बैठे हैं। वह है सर्वाइव करना। इस सर्वाइवल की कबड्डी जिस मैदान में खेली जानी है, फ़िल्म के किरदार उसका ताला लालच के पत्थर से तोड़ना चाहते हैं।

शूजित सरकार की फ़िल्म गुलाबो सिताबो (Gulabo Sitabo) पहले ख़्याल में लालच की कथा नज़र आती है। मगर लालच की सतह के नीचे गोता लगाने पर वर्तमान संकट का अँधेरा दिखाई पड़ता है जहाँ नागरिक अपनी समस्या लिए क़तार में खड़े हुए है और मानव-मूल्य नागरिकों की चींखों के बीच डरकर बैठ गए हैं।

गुलाबो सिताबो के किरदार अपना एक लक्ष्य तय करके बैठे हैं। वह है सर्वाइव करना। इस सर्वाइवल की कबड्डी जिस मैदान में खेली जानी है, फ़िल्म के किरदार उसका ताला लालच के पत्थर से तोड़ना चाहते हैं। राजनीति ने उन्हें इस हाल में पहुँचा दिया है कि उन्हें सर्वाइव करने के अलावा कोई दूसरा काम सूझता ही नहीं है।

मुख्य किरदार मिर्ज़ा (Amitabh Bachchan) हवेली का मालिक बनना चाहता है जो फ़िलहाल उसकी बेग़म के नाम है। वो हवेली के बाहर कहानी सुनाने वाले से अपनी जेब में चंद सिक्के जुटाता रहता है। अपने किरायदारों (जो बेहद सस्ते किराए में रह रहे हैं) से किराए वसूलने को लेकर ताने कसता है। मिर्ज़ा को लालच इतना है कि खाली हाथ लौटना उसे नागवारा है। कुछ-न-कुछ झपटकर ले ही आता है। भले ही वो किराएदार की ओढ़ने की चद्दर ही क्यों न हो।

दूसरा मुख्य किरदार बाँके (आयुष्मान खुराना) भी अपने परिवार संग सर्वाइवल की कबड्डी खेलने में व्यस्त है। उसका व्यवसाय (आटे पीसने का काम) उसके किरदार को परिभाषित करता हुआ चलता है। घर में तीन बहनें है जिनकी पढ़ाई-लिखाई का खर्चा सर पर है। एक महबूबा है जिसके साथ अच्छी ज़िंदगी जीने के सपने भीतर ही दबे हुए है। सर्वाइवल के चक्कर में आई लव यू कहने की भी फ़ुर्सत नहीं है। किराया बकाया है जिस पर आए दिन नोक-झोंक होती है। इन सबके बीच उसकी ज़िंदगी गेहूँ की तरह पीस रही है। हवेली के बाकी किरायेदार भी बाँके की तरह हवेली के बिकने पर अपने-अपने लिए रहने की जगह का जुगाड़ करने में लगे हुए है।

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वकील (Brijendra Kala) और सरकारी अधिकारी (Vijay Raaz) अपनी तिकड़मबाजी से डीलिंग कराने को आतुर है। फ़िल्म में अलग-अलग स्तरों पर दिखाई दे रहे इस लालच के मूल में सर्वाइव करने की जद्दोजहद है। अब सवाल उठता है कि इस खेल में आखिर जीत किसकी होगी? इसका जवाब बड़ा छोटा-सा है जिसके पास संसाधन है। चाँदी उन्हीं की कटेगी। बाकी मुँह ताकते रह जाएँगे और एक दिन बाँके की पूर्व प्रेमिका उसकी चक्की पर आर्गेनिक आटा माँगकर औकात दिखाकर चली जाएगी।

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लखनऊ शहर जिसमें कथा कही गई है। हम उसके इतिहास से परिचित है। नवाबों के शहर में शान-शौकत का केंद्र रही इमारतें मौन खड़ी है। सत्ताधारी नागरिकों की सुध लेने नहीं आते। उन्हें भटकने के लिए छोड़ दिया गया है। जैसे मौजूदा कोविड 19 संकट के समय में मजदूरों को। यही मानव-मूल्य पराजित होते नज़र आते हैं। मिर्ज़ा अपनी बेग़म के मरने का इंतजार कर रहा है।

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शादीशुदा सरकारी कर्मचारी अपने से आधे उम्र की लड़की को अपने बिस्तर पर ले आया है। वकील यह बात सुनकर ख़ुश है कि मिर्ज़ा का एक संबंधी मर चुका है। जिस कारण वसीयत के कागज़ जल्दी बन जाएँगे। फ़िल्म एक ऐसे सच को भी सामने रखती है जिसका सामना हम निजी ज़िंदगी में रोज़ करते हैं। वह है कि कैसे मुट्ठीभर लोग विज्ञान की बैसाखी अपनी बगलों में दबाकर आम नागरिकों के भविष्य को संकट में डाल देते हैं। पुरातत्व विभाग हवेली की वैज्ञानिक ढंग से जाँच तो कर देता हैं। मगर उसमें रहनेवाले लोगों को अब जिस संकट से गुजरना पड़ेगा उसका समाधान नहीं खोजा जाता।

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