जन्माष्टमी आज : कोटा के असली राजा माने जाते हैं भगवान श्रीकृष्ण
महाराव भीमसिंह प्रथम ने कोटा का नाम कर दिया था नंदग्राम
रियासतकाल से ही कोटा कृष्ण भक्ति का प्रधान केन्द्र रहा है। महाराव भीमसिंह प्रथम कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने कोटा का नाम नंदग्राम कर दिया था।
कोटा। जन्माष्टमी का पावन त्यौहार आज शहर में अत्यंत उत्साह और जोश के साथ मनाया जा रहा है। भगवान कृष्ण के जन्म जन्माष्टमी पर पुराने कोटा का नंदग्राम इलाके का कोना-कोना कृष्णमय हो उठता है। कोटा में जन्माष्टमी परंपरा और उत्साह के साथ मनाई जाती है। रात 12 बजे जैसे ही कान्हा का जन्म होता है नंदग्राम श्रीकृष्ण के जयकारों से गूंज उठता है। कान्हा के प्रेम में रंगे भक्त भी अपने घर में श्रीकृष्ण के विभिन्न रूपों की झांकियां सजाकर घर को मंदिर बना देते हैं। भगवान श्री कृष्ण को माखन-मिश्री, पंजिरी, सूखे मेवों आदि के भोग लगाए जा रहे हैं। कोटा सिर्फ शिक्षा नगरी ही नहीं है बल्कि श्रद्धालुओं के लिए धार्मिक आस्था का भी केन्द्र है। रियासतकाल से ही कोटा कृष्ण भक्ति का प्रधान केन्द्र रहा है। महाराव भीमसिंह प्रथम कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने कोटा का नाम नंदग्राम कर दिया था। शहर के परकोटे के भीतर पाटनपोल में श्री प्रथम बल्लमपीठ श्री मथुराधीश जी का मंदिर स्थित है। इसी क्षेत्र में रियासतकालीन श्री बृजनाथ जी भगवान का मंदिर, श्री फूल बिहारी जी का मंदिर, श्री महाप्रभु जी का बड़ा मंदिर, भगवान लक्ष्मीनारायण मंदिर चारभुजा जी का मंदिर सहित कई प्राचीन मंदिर है। जिनके प्रति आस्था लोगों में आज भी है। वल्लभ संप्रदाय की प्रमुख पीठ श्री मथुराधीश जी होने से यहां जन्माष्टमी पर अवकाश नहीं होता बल्कि अगले दिन नंद उत्सव पर कोटा मेंअवकाश रहता है। किशोरपुरा दरवाजे से लेकर बड़े मथुराधीश जी मंदिर तक का क्षेत्र नंदग्राम कहलाता है। नंदग्राम में करीब 150 छोटे-बडेÞ कृष्ण मंदिर है। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर शहर के प्राचीन कृष्ण मंदिरों के प्रति लोगों की क्यों है आस्था इस बारे में जानते हैं।
भगवान श्री बृजनाथ जी : महाराव भीमसिंह थे कृष्ण के अनन्य भक्त
जब महाराव भीमसिंह प्रथम ने वल्लभ कुल की दीक्षा ली थी तब ही उन्होंने इस मंदिर की स्थापना की और बृजनाथ जी को यहां विराजमान किया। उन्होंने अपने शासनकाल में 17वीं शताब्दी में ही मंदिर का निर्माण किया। उसके बाद महाराव दुर्जनशाल सिंह मथुराधीश जी को लेकर आए। मथुराधीश जी की स्थापना से भी पहले की स्थापना बृजनाथ जी की है। ये वह प्रतिमा है जिसे महाराव भीमसिंह प्रथम हमेशा अपने साथ रखते थे। जहां भी वह युद्ध में जाते थे अपने साथ हाथी के ओहदे पर भगवान श्री बृजनाथ जी की प्रतिमा को साथ में रखते थे। यहां से ही कोटा कृष्ण भक्ति का केन्द्र बनना शुरू हुआ। उसके बाद उन्होंने कोटा का नाम बदल कर नंदग्राम कर दिया। वह कृष्ण के इतने परम भक्त थे की शेरगढ़ (बारां) को राधा जी का स्थान बरसाना बना दिया और उन्होंने उसे बरसाना नाम दे दिया। यहां से ही कोटा में वल्लभ कुल की परंपरा की शुरूआत हुई। उसके बाद फिर दुर्जनसाल सिंह के समय मथुराधीश जी कोटा पधारे और प्रथम पीठ की स्थापना हुई उसके बाद से कोटा वल्लभ कुल के प्रमुख स्थलों में से एक माना जाने लगा। क्योंकि वल्लभ कुल की प्रथम पीठ कोटा में मथुराधीश जी के रूप में विराजमान है। इस तरह कोटा कृष्ण भक्ति का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया। महाराव भीमसिंह के समय से ही कोटा राजपरिवार में परंपरा रही जब भी राज दरबार लगता था तो सिंहासन भगवान कृष्ण के लिए ही लगता था। महाराव भीमसिंह प्रथम के समय से कोटा में प्रचलन प्रारंभ हुआ कि जो असली राजा है या असली मालिक है कोटा के वह भगवान कृष्ण है। कोटा में आज भी मथुराधीश जी वाला क्षेत्र नंदग्राम कहलाता है इसी वजह से कोटा में जन्माष्टमी का अवकाश दूसरे दिन नंद महोत्सव पर होता है।
-पं. आशुतोष दाधीच , क्यूरेटर, राव माधोसिंह म्यूजियम गढ़ पैलेस
भगवान मथुराधीश जी : पाटन पोल द्वार के पास रुक गया था प्रभु का रथ
वल्लभ संप्रदाय में भगवान श्री कृष्ण के सप्त स्वरूपों की सेवा की जाती है। पाटनपोल स्थित श्री मथुराधीश मंदिर वल्लभ संप्रदाय की प्रथम पीठ और तीर्थ है। जिसके अनुयायी देश विदेश में मौजूद हैं। संवत 1795 में कोटा के महाराज दुर्जनशाल ने प्रभु को कोटा पधराया था। कोटा नगर में पाटनपोल द्वार के पास प्रभु का रथ रुक गया तो तत्कालीन आचार्य गोस्वामी गोपीनाथ महाराज ने आज्ञा दी कि प्रभु की यहीं विराजने की इच्छा है। तब कोटा राज्य के दीवान द्वारकादास राय ने अपनी हवेली को गोस्वामी जी के सुपुर्द कर दिया था। गोस्वामी जी ने उसी हवेली में कुछ फेरबदल कराकर प्रभु को विराजमान किया। तब से अभी तक प्रभु इसी हवेली में विराजमान हैं। यहाँ वल्लभ कुल सम्प्रदाय की रीत के अनुसार सेवा होती है । इससे पहले ठाकुर जी की प्रतिमा को महाराव दुर्जनसाल बूंदी से लेकर आए थे। मंदिर में प्रतिदिन मंगला आरती, ग्वाल, राजभोग, आरती, उत्थापन, शयन के दर्शन होते हैं। हालांकि शयन के दर्शन रामनवमी से बंद रहते है तथा कार्तिक सुदी अष्टमी में खुलने लग जाते है । मंदिर पर सामान्य दिनों में 2 हजार, अवकाश वाले दिनों में 3 से 4 हजार, पर्वों पर 10 से 12 हजार एवं सम्पूर्ण वर्ष में लगभग 12 से 15 लाख भक्त दर्शन करते हैं।
- गोस्वामी मिलन कुमार बावा, श्री मथुराधीश मंदिर प्रथम पीठ
लक्ष्मीनारायण मंदिर : एक साथ विराजे हैं भगवान नारायण-मां लक्ष्मी
कोटा गढ़ के समीप स्थित भगवान लक्ष्मीनारायण मंदिर 600 साल प्राचीन है। इस मंदिर में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही विराजमान है। यहां लक्ष्मीनाथ जी (युगल जोड़ी) की छवि है। भगवान नारायण अ ौर मां लक्ष्मी एक साथ विराजमान है। जन्माष्टमी पर यहां बहुत बढ़िया उत्सव होता है। तीनों मंदिरों की श्रृंखला यहां एक साथ है। लक्ष्मीनारायण जी, चारभुजा जी और श्रीनाथ जी तीनों ही क्रमबद्ध है और यहां से ही नंदग्राम की शुरूआत होती है। जो मुख्य मथुराधीश जी मंदिर तक नंदग्राम में करीब 150 छोटे-बडे कृष्ण मंदिर है।
- पं. विमल शर्मा, पुजारी, लक्ष्मीनारायण मंदिर
300 वर्ष प्राचीन श्री फूल बिहारी जी का मंदिर
पाटनपोल स्थित श्री फूल बिहारी जी का मंदिर 300 वर्ष प्राचीन है। इस मंदिर की स्थापना तत्कालीन कोटा नरेश रामसिंह ने की थी। उनकी महारानी फूल कंवर बाई की इच्छानुसार संवत् 1918 तदानुसार शाके 1784 बैसाख का महीना यानि शुक्ल पक्ष की छठे दिन सोमवार को इस मंदिर की स्थापना की गई। फूल कंवर रानी के कृष्ण इष्टदेव थे। रानी की इच्छा थी की कृष्ण का मंदिर बनवाऊं। वह मीरा बाई की तरह ही कृष्ण की भक्त थी। अष्टधातु की बांसुरी बजाते हुए छोटी मूर्ति कृष्ण की खड़े स्वरूप में है। ये पुष्टि मार्गी मंदिर है। वल्लभ संप्रदाय के प्रथम पीठ के अनुसार ही सेवा की जाती है।
- अश्विनी कुमार,मुखिया,श्री फूल बिहारी जी मंदिर
चरण चौकी : चार महीने बिराजे थे श्रीनाथ जी
श्रीनाथ जी की चरण चौकी कोटा से 18 किमी दूर डाढ़ देवी मार्ग पर मोतीपुरा गांव में स्थापित है। यहां श्री नाथ जी के चरण पूजे जाते है। यहां श्रीनाथ जी चार महीने बिराजे इसलिए इस स्थान की बहुत आस्था लोगों में है।श्रीनाथ जी ठाकुर जी का मंदिर बना हुआ है प्राचीन स्थान है। श्रीनाथजी के चरण की आज भी पूजा होती है। संवत 1726 में जब मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा मंदिरों को तोड़ने का अभियान शुरू किया गया था तब बृज भूमि से सभी विग्रह हिन्दूृ राजाओं के रियासत में लाए गए थे। औरंगजेब ने जब मथुरा पर चढ़ाई की तब मथुरा परिक्रमा परिसर में जतीपुरा में श्रीनाथजी का मंदिर था। वहां से मूर्ति आगरा ,मुरैना गई। मुरैना के बाद तीसरा स्थान कोटा चरण चौकी है जहां चार महीना श्रीनाथजी बिराजे थे। यहां के बाद मूर्ति किशनगढ़, वहां से जोधपुर चौपासनी गई। श्रीनाथजी की मूर्ति सीहाड़ लेकर गए जहां पर उनका भव्य मंदिर बनवाया गया जो आज श्री नाथद्वारा कहलाता है ।
- जयनारायण गुर्जर, सदस्य मोतीपुरा चरण चौकी मंदिर ट्रस्ट
चारभुजा जी का मंदिर : पूरी होती है मनोकामना
गढ़ के पास स्थित चारभुजा जी का मंदिर करीब 250 साल पुराना है। काफी वर्षों पूर्व यह मंदिर हमारे परिवार को राजपूत समाज के किसी व्यक्ति ने दान में दिया और कहा कि इसकी सेवा आप करें। तब से ही इस मंदिर की सेवा कर रहे हैं। वर्तमान में हमारी चौथी पीढ़ी यहां सेवा कर रही है। इस मंदिर में विराजमान चारभुजा जी बाल स्वरूप में है। लोगों की आस्था इस मंदिर के प्रति है कि मन में जो भी मांगते हैं वह कामना पूरी हो जाती है। जन्माष्टमी पर यहां काफी उत्साह का माहौल रहता है। अष्टमी पर जन्माष्टमी तथा नवमी व दशमी को नंदोत्सव मनाया जाता है।
- पं. मुनीश कुमार शुक्ला, पुजारी चारभुजा मंदिर
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