सतरंगी सियासत

सतरंगी सियासत

असल में, ज्यों-ज्यों विधानसभा चुनाव निकट आ रहे कांग्रेस और भाजपा में इसी तरह के राजनीतिक खुलासे होते रहेंगे।

निशाना कहां?
सीएम अशोक गहलोत ने कांग्रेस सरकार को बचाने के मामले में वसुंधरा राजे का नाम लेकर निशाना कहां साधा? असल में, ज्यों-ज्यों विधानसभा चुनाव निकट आ रहे कांग्रेस और भाजपा में इसी तरह के राजनीतिक खुलासे होते रहेंगे। माना जा रहा। गहलोत पर लगातार पार्टी आलाकमान का दबाव। सचिन पायलट और उनके साथियों का राजनीतिक पुनर्वास हो। जिसे पर गहलोत कतई राजी नहीं। उधर, भाजपा में राजे लगातार अपने नेतृत्व पर उन्हें सीएम चेहरा घोषित करने का दबाव बना रहीं। अब जबकि गहलोत ने खुलासा कर दिया। तो भाजपा में भी चर्चा तो होगी ही। वैसे भी गहलोत कोई हल्के नेता नहीं। उनकी बातों के गहरे मायने। सो, उन्होंने एक ही बयान से कांग्रेस आलाकमान को संकेत कर दिया। वह भाजपा के साथ मिलने की कोशिश करने वालों के साथ काम नहीं कर पाएंगे। बल्कि चुनाव तक अपनी ही चलाएंगे।

मणिपुर का घटनाक्रम!
पूर्वोत्तर का राज्य मणिपुर नकारात्मक खबरों से देश का ध्यान खींच रहा। असल में, मणिपर जल उठा। शुरूआत मैतेय समुदाय को एसटी का दर्जा देने की मांग और उससे पैदा हुए कुकी समुदाय में डर की आशंका से। राज्य के करीब आधे जिले हिंसा की चपेट में आ गए। एक एंगल इसमें मिशनरीज का भी आ रहा। जिन्होंने बीते कई दशकों से ईसायत का फैलाव किया। चर्च के बढ़ते प्रभाव एवं उस पर संभावित शिकंजे का परिणाम भी यह हिंसा बताई जा रही। लेकिन सच क्या? अमित शाह को चुनावी राज्य कर्नाटक का दौरा छोड़ मणिपुर की हिंसा की निगरानी करनी पड़ी। मुख्य धारा के मीडिया की नजर पूरी तरह से कर्नाटक चुनाव पर रही। उसके बावजूद यदि राजधानी दिल्ली में मणिुपर हिंसा की चर्चा। तो हालात की गंभीरता को समझा जा सकता। इधर, सरकार ने तत्परता से हालात को काबू किया।

जिसका डर था!
महाराष्ट्र में एमवीए के गठन के बाद से जिसका डर था। वही हो रहा। शरद पवार ने उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके कामकाज के तौर तरीकों और प्रशानिक क्षमता पर सवाल उठाए। फिर उद्धव ठाकरे ने भी जवाब दिया। कहा, पवार समय रहते अपने उत्ताराधिकारी का चयन नहीं कर पाए। ना ऐसा नेता को गढ़ पाए। मतलब एमवीए टूटने के कगार पर। ढाई साल सरकार चली। सबके मतलब निकल गए। अब एक दूसरे में दोष नजर आने लगे। असल में, उद्धव ठाकरे के संगठन कौशल पर नहीं। बल्कि राजनीतिक समझ पर पवार की टिप्पणी थी। जिसे ठाकरे झेल नहीं पाए। क्योंकि यह उनके राजनीतिक भविष्य का सवाल। वहीं, एनसीपी चीफ को भी अपनी पार्टी की चिंता। जो लगभग टूट के कगार पर जा पहुंची थी। लेकिन पवार ने अपने राजनीतिक कौशल से इसे बचा लिया। लेकिन कितने दिन के लिए?

आर-पार!
सचिन पायलट इस बार आर पार के मूड में। उनकी टाइमिंग से लग रहा। इस बार तो चुनावी रणनीतिकार पीके का भी ट्विस्ट बताया जा रहा। पायलट कह चुके। उन्हें जनता के सिवाए किसी की परवाह नहीं। कांग्रेस आलाकमान अभी तक उलझा हुआ। इधर कुंआ, उधर खाई वाली स्थिति। हालांकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम कांग्रेस के पक्ष में आ जाने के बाद। काफी कुछ साफ हो रहा। लेकिन इसके लिए वह भी कोई कम जिम्मेदार नहीं। अनावश्यक बयानबाजी, फिर चुप्पी। लेकिन जितना नुकसान होना था, हो चुका। पायलट पर अपने समर्थक कार्यकतार्ओं और नेताओं का दबाव बढ़ रहा। इधर, सीएम गहलोत हर हाल में उन्हें साइड लाइन करने पर आमादा। आलाकमान पायलट को कुछ राहत भी देना चाहे। तो गहलोत मानेंगे नहीं। ऐसे में आगे क्या होगा? जबकि विधानसभा चुनाव नजदीक। फिर प्रभारी एसएस रंधावा का दावा। राजस्थान को पंजाब नहीं बनने देंगे।

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गरम-नरम!
एससी ने महाराष्ट्र को लेकर बहुप्रतिक्षित निर्णय सुना दिया। जो दोनों ही पक्षों के लिए गरम-नरम साबित हो रहा। जहां उद्धव ठाकरे नैतिकता, मयार्दा की दुहाई दे रहे। तो भाजपा एवं सीएम शिंदे के लिए मानो जान बची, लाखें पाए वाला हाल। वरना सरकार बचाने के फेर में गठबंधन पर आन पड़ती। क्योंकि अजित पवार को लेकर शिंदे गुट ने आपत्ति जताई थी। इधर, फिर साबित हुआ। भले ही संगठन चला लें। लेकिन सरकार एवं प्रशासिक कामकाज में उद्धव नौसिखिए। शरद पवार ने सही कहा। वह राजनीति के कच्चे खिलाड़ी। अब फिलहाल भाजपा-शिंदे गुट को सरकार बचाए रखने के लिए जोड़तोड़ करने की जरुरत नहीं। एकनाथ शिंदे सीएम बने रहेंगे। वह पार्टी पर कब्जा बनाए रखेंगे। लेकिन अब आगे आने वाले चुनावों पर सबकी नजरें। जिसमें बीएमसी सबसे महत्वपूर्ण और शिंदे के लिए परीक्षा की घड़ी। जबकि उद्धव ठाकरे के लिए अस्तित्व का सवाल!

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पलीता!
अगले साल होने वाले आम चुनाव को देखते हुए विपक्षी एकता के अभियान पर निकले नितीश कुमार को सबसे पहले रेडकार्ड दिखाया नवीन पटनायक ने। कहा, बीजेडी अकेले ही चुनाव लड़ेगी। फिर ममता से कैसे कोई उम्मीद लगाए। वह खुद अपने को पीएम उम्मीदवार मानतीं। नितीश, शरद पवार एवं उद्धव ठाकरे से मिले। लेकिन यह दोनों नेता अपने ही घर के झंझटों में उलझे हुए। फिर तेलंगाना के केसीआर। जिनकी सबसे बड़ी परीक्षा साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव। उनका कारवां तेलंगाना की सफलता के बाद ही आगे बढ़ने की संभावना। फिर सपा और बसपा पर कोई कैसे भरोसा करेगा? अब बचे खुद नितीश कुमार। जिनकी बिहार में गठबंधन सरकार राजद और कांग्रेस के साथ चल रही। सो, खुद 40 में से कितनी सीटें ले पाएंगे? फिर केजरीवाल उनसे बड़े क्षत्रप। जिनकी दो राज्यों में सरकारें। मतलब विपक्षी एकता को पलीता लगेगा?

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क्षत्रप... कद घटा, बढ़ा!
बीते शनिवार को कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम ने ही नहीं। बल्कि उत्तर प्रदेश में हुए निकाय चुनावों ने भी ध्यान आकर्षित किया। जहां कर्नाटक में भाजपा को भारी निराशा का सामना करना पड़ा। वहीं, अकेले सीएम योगीजी ने अपने दम पर भाजपा को मई की तपती, चिलचिलाती गर्मी में भी ठंडी हवा के झौंके का अहसास कराया। मतलब योगीजी अब भाजपा में सबसे मजबूत और बड़े क्षत्रप। कद तो कांग्रेस में अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का भी बढ़ा। क्योंकि उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में गृह प्रदेश में पार्टी जीत गई। लेकिन भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का कद मानो घटा। क्योंकि खुद के राज्य हिमाचल प्रदेश में भाजपा हार गई। हालांकि नए क्षत्रपों में योगीजी आगे। लेकिन दक्षिण से अब डीके शिव कुमार भी कांग्रेस में नए होंगे। उन्होंने अपने को साबित किया। चाहे जो आरोप लगे हों। लेकिन कभी रूके नहीं। वह चलते रहे।  

-दिल्ली डेस्क 

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