सतरंगी सियासत

सतरंगी सियासत

राजस्थान समेत पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के निहितार्थ क्या होंगे? इसके लिए अभी से उत्सुकता। कांग्रेस मजबूत हुई। तो वह क्षेत्रीय दलों पर लोकसभा चुनाव में उनके प्रभाव वाले प्रदेशों में भी ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाएगी।

निहितार्थ?
राजस्थान समेत पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के निहितार्थ क्या होंगे? इसके लिए अभी से उत्सुकता। कांग्रेस मजबूत हुई। तो वह क्षेत्रीय दलों पर लोकसभा चुनाव में उनके प्रभाव वाले प्रदेशों में भी ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाएगी। और कांग्रेस हारी। तो क्षेत्रीय दल प्रमुख विपक्षी दल पर हावी होंगे। ऐसे में तीन दिसंबर को आईएनडीआईए गठबंधन के भविष्य का भी निर्णय होने की संभावना। हालांकि अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी कह चुकीं। उनके राज्यों में वही विपक्ष के अगुवा रहेंगे। हां, शरद पवार अभी भी डगमगाए से दिख रहे। लेकिन डीएमके तो अकेले अपने दम पर तमिलनाडु में सत्तारूढ़। उधर, बिहार में राजद और जदयू के बीच पेंच कांग्रेस का। लेकिन लालू यादव केन्द्र में रहेंगे। क्योंकि मामला तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य का! सो, उलझन कांग्रेस की बढ़ने की संभावना। ऐसे में, उसके राजनीतिक प्रबंधन की भी परीक्षा होगी!

किसकी मांग ज्यादा?
राजस्थान में भाजपा प्रत्याशियों के बीच सबसे ज्यादा मांग किसकी? शायद पीएम मोदी की। फिर अमित शाह और जेपी नड्डा की मांग स्वाभाविक। लेकिन मांग तो योगी जी की भी। लेकिन यदि पैमाना उम्मीदवारों द्वारा चुनावी प्रचार के लिए नेताओं की मांग को माना जाए। तो वसुंधरा राजे कहां? क्योंकि वह पूर्व सीएम के साथ पार्टी उपाध्यक्ष भी। उनके काफी समर्थकों को टिकट दिया गया, ऐसी चर्चा। लेकिन अब चुनावी प्रचार के लिए उतनी मांग नहीं। ऐसी भी चर्चा। उधर, कांग्रेस में राहुल गांधी के दौरे अब शुरू हुए। तो सचिन पायलट भी सिमित विधानसभा क्षेत्रों तक ही पहुंच रहे। हां, सीएम अशोक गहलोत प्रदेश के हर कोने में जाने वाले। प्रत्याशियों की ओर से उनकी मांग भी। फिर मल्लिकार्जन खड़गे और प्रियंका गांधी भी मैदान में। वह चुनावी घोषणा से पहले भी आ चुके। जबकि पीएम तो कई बार राजस्थान पहुंचे।

चुनावी लय में मोदी!
तो पीएम मोदी की राजस्थान में दीपावली बाद ज्यादा सक्रियता बढ़ गई। वैसे भी भाजपा का निर्णय। राजस्थान को ‘लुक आफ्टर’ मोदी करेंगे। जबकि मध्यप्रदेश को अमित शाह, छत्तीसगढ़ को जेपी नड्डा ओर तेलंगाना को संगठन महामंत्री बीएल संतोष देखेंगे। सो, राजस्थान में पीएम मोदी भाजपा के पक्ष में चुनावी धुंआधार प्रचार करेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं। असल में, जब चुनावी माहौल बनना शुरू हुआ था। तो जानकारों की नजरें राजस्थान पर ही टिकी हुई थीं। क्योंकि यहां भाजपा करीब दो दशक बाद पीढ़ीगत बदलाव के मुहाने पर। और जब खुद पीएम मोदी की निगरानी में ही सब कुछ होना। तो यकायक अनुशासनहीनता की भी संभावना कम ही। और न ही आतंरिक अनुशासन टूटेगा। साथ ही नेताओं एवं कार्यकर्ताओं में एकजुटता और उत्साह भी बना रहेगा। क्योंकि जब मैदान में खुद पीएम हों। तो रूठने-मनाने का झंझट भी कम ही।

गिनती हो रही!
बीती छह तारीख को कांग्रेस और भाजपा ने सभी टिकटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। कांग्रेस ने एक सीट अपने सहयोगी आरएलडी के लिए छोड़ी। तो भाजपा ने किसी से चुनावी गठबंधन नहीं किया। दोनों ही दलों के करीब दस-दस फीसदी टिकट आखरी दिन घोषित हुए। कांग्रेस के दो दर्जन टिकटों मे ऐसी हौच पौच हुई। मानो अफरा तफरी का सा माहौल रहा। जबकि भाजपा में भी कुछ टिकटों को लेकर अंतिम समय तक यही सब हुआ। इसी बीच, जानकार एक आंकड़े पर गौर करते रहे। किसके हिस्से कितने टिकट आए? खासकर अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे एवं सचिन पायलट। फिर भाजपा में नए नवेले सीएम फेस बने नेताओं का भी नाम चर्चा में। खुद अशोक गहलोत बोले, वह सीएम। लेकिन कई बार उनकी भी नहीं चल पाती। ऐसी प्रकार वसुंधरा राजे के भी कई करीबियों को टिकट से महरूम रहना पड़ा।

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उलटबांसी!
शांति धारीवाल को अंतिम मौके पर टिकट मिलने की चर्चा अभी भी दिल्ली में हो रही। आखिर जब उनको टिकट देना ही था। तो अंतिम समय तक टिकट को रोककर क्यों रखा गया? लेकिन राजनीति की पेचिदगियां नेतृत्व से क्या से क्या न कराए! कई बार तो एकदम उलटबांसी की सी स्थिति बन जाती! असल में, धारीवाल को टिकट पार्टी हित में दिया गया। आखिर पार्टी का हित ही सर्वोपरि। कई बार ‘विनेबिलिटी’ के अलावा निष्ठा की भी परीक्षा होती। जिसमें लग रहा धारीवाल उत्तीर्ण हुए। हालांकि उनके टिकट पर खूब चिकचिक भी हुई। उसके बावजूद कांग्रेस आलाकमान को उन्हें टिकट देना पड़ा। हां, इसमें असली भूमिका सीएम गहलोत की बताई गई। आखिर सीएम, सीएम होता। आलाकमान के लिए सीएम के आग्रह को टालना मुश्किल काम। क्योंकि वह प्रदेश चला रहा होता। वह जमीनी हालात का जानकार भी होता। यही राजनीति की उलटबांसी भी!

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चोली दामन का साथ!
कांग्रेस और ‘आप’ में कभी गरम-कभी नरम वाले रिश्ते। कांग्रेस भले ही देश के किसी भी हिस्से में आप को साथ ले ले। लेकिन पंजाब और दिल्ली का पार्टी कार्यकर्ता शायद ही इसे पचा पाए। ऐसे संकेत खुद कांग्रेस नेता ही दे रहे। मामला आईएनडीआईए गठबंधन की मजबूती का। कांग्रेस का सोच। राज्यवार चुनाव में क्षेत्रीय दल आगे रहें। और आम चुनाव में विपक्ष की अगुवाई कांग्रेस के पास हो। नीतीश कुमार समेत अन्य क्षत्रपों के ईशारों को इसी अर्थ में देखा जा रहा। लेकिन बात अगर अरविंद केजरीवाल की ‘आप’ की हो, तो बात अलग। फिर कांग्रेस यह भी नहीं चाहेगी कि क्षेत्रीय दल एक सीमा से ज्यादा मजबूत हों। लेकिन क्षेत्रीय दल कांग्रेस के मजबूत होने में अपना नुकसान देख रहे। फिर आम चुनाव की बेला में सभी को एक-दूसरे की जरुरत। लेकिन अपना पॉलीटिकल स्पेस कोई नहीं छोड़ना चाहता।
-दिल्ली डेस्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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