राजस्थान का पौराणिक लोकोत्सव गणगौर

राजस्थान का पौराणिक लोकोत्सव गणगौर

राजस्थान का नाम सुनते ही मन ख़ुशी से झूम उठता है। राजस्थान के पर्व त्योहार अपने आप में अलग ही महत्व रखते हैं। राजस्थानी परम्परा के लोकोत्सव अपने में एक विरासत को संजोए हुए हैं।

राजस्थान का नाम सुनते ही मन ख़ुशी से झूम उठता है। राजस्थान के पर्व त्योहार अपने आप में अलग ही महत्व रखते हैं। राजस्थानी परम्परा के लोकोत्सव अपने में एक विरासत को संजोए हुए हैं। राजस्थान को देव भूमि कहा जाए तो गलत नहीं होगा। यहां सभी सम्प्रदाय फले-फूले हैं। यहां के शासकों ने विश्व कल्याण की भावना से अभिभूत होकर लोक मान्यताओं का सम्मान किया है। इसी कारण यहां सभी देवी देवताओं के उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं। गणगौर का उत्सव भी ऐसा ही लोकोत्सव है। जिसकी पृष्ठ भूमि पौराणिक है। समय के प्रभाव से उनमें शास्त्राचार के स्थान पर लोकाचार हावी हो गया है। परन्तु भाव भंगिमा में कोई कमी नहीं आई है।

गणगौर भी राजस्थान का ऐसा ही एक प्रमुख लोक पर्व है। लगातार 17 दिनों तक चलने वाला गणगौर का पर्व मूलत: कुंवारी लड़कियों व महिलाओं का त्योहार है। राजस्थान की महिलाएं चाहें दुनिया के किसी भी कोने में हों गणगौर के पर्व को पूरी उत्साह के साथ मनाती हैं। विवाहिता एंव कुंवारी सभी आयु वर्ग की महिलाएं गणगौर की पूजा करती हैं। गणगौर शब्द भगवान शिव और पार्वती के नाम से बना है। गण यानि भगवान शिव और गौर यानि पार्वती। इसलिए शिव-पार्वती की पूजा के रूप में इस त्योहार को मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन से सोलह दिनों तक लड़कियां प्रतिदिन प्रात: काल ईसर-गणगौर को पूजती हैं। जिस लड़की की शादी हो जाती है वो शादी के प्रथम वर्ष अपने पीहर जाकर गणगौर की पूजा करती है। इसी कारण इसे सुहागपर्व भी कहा जाता है। कहा जाता है कि चैत्र शुक्ला तृतीया को राजा हिमाचल की पुत्री गौरी का विवाह शंकर भगवान के साथ हुआ था। उसी की याद में यह त्योहार मनाया जाता है। गणगौर व्रत गौरी तृतीया चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को किया जाता है। इस व्रत का राजस्थान में बड़ा महत्व है। कहते हैं इसी व्रत के दिन देवी पार्वती ने अपनी उंगली से रक्त निकालकर महिलाओं को सुहाग बांटा था। इसलिए महिलाएं इस दिन गणगौर की पूजा करती हैं।

राजस्थान की राजधानी जयपुर में गणगौर उत्सव दो दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। सरकारी कार्यालयों में आधे दिन का अवकाश रहता है। ईसर और गणगौर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा राजमहल से निकलती है। इनको देखने बड़ी संख्या में देशी-विदेशी सैनानी उमड़ते हैं। सभी उत्साह से भाग लेते हैं। इस उत्सव पर एकत्रित भीड़ जिस श्रृद्धा एवं भक्ति के साथ धार्मिक अनुशासन में बंधी गणगौर की जय-जयकार करती हुई भारत की सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह करती है उसे देखकर अन्य धर्मावलम्बी भी इस संस्कृति के प्रति श्रृद्धा भाव से ओत-प्रोत हो जाते हैं। ढूंढाड़ की भांति ही मेवाड़, हाड़ौती, शेखावाटी सहित इस मरुधर प्रदेश के विशाल नगरों में ही नहीं बल्कि गांव-गांव में गणगौर पर्व मनाया जाता है एवं ईसर-गणगौर के गीतों से हर घर गुंजायमान रहता है। उकामदेव मदन की पत्नी रति ने भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया तथा उन्हीं के तीसरे नेत्र से भस्म हुए अपने पति को पुन: जीवन देने की प्रार्थना की। रति की प्रार्थना से प्रसन्न हो भगवान शिव ने कामदेव को पुन: जीवित कर दिया तथा विष्णुलोक जाने का वरदान दिया। उसी की स्मृति में प्रति वर्ष गणगौर का उत्सव मनाया जाता है। गणगौर पर्व पर विवाह के समस्त नेगचार व रस्में की जाती हैं। होलिका दहन के दूसरे दिन गणगौर पूजने वाली लड़कियां होली दहन की राख लाकर उसके आठ पिण्ड बनाती हैं एवं आठ पिण्ड गोबर के बनाती हैं। उन्हें दूब पर रखकर प्रतिदिन पूजा करती हुई दीवार पर एक काजल व एक रोली की टिकी लगाती हैं। शीतलाष्टमी तक इन पिण्डों को पूजा जाता है। फिर मिट्टी से ईसर गणगौर की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजती हैं। 
लड़कियां प्रात: ब्रह्ममुहुर्त में गणगौर पूजते हुए गीत गाती हैं:- गौर ये गणगोर माता खोल किवाड़ी, छोरी खड़ी है तन पूजण वाली। गीत गाने के बाद लड़कियां गणगौर की कहानी सुनती है। दोपहर को गणगौर के भोग लगाया जाता है तथा कुए से लाकर पानी पिलाया जाता है। लड़कियां कुए से ताजा पानी लेकर गीत गाती हुई आती हैं:-म्हारी गौर तिसाई ओ राज घाट्यारी मुकुट करो,बीरमदासजी रो ईसर ओराज, घाटी री मुकुट करो, म्हारी गौरल न थोड़ो पानी पावो जी राज घाटीरी मुकुट करो।

लड़कियां गीतों में गणगौर के प्यासी होने पर काफी चिन्तित लगती है एवं गणगौर को जल्दी से पानी पिलाना चाहती है। पानी पिलाने के बाद गणगौर को गेहूं चने से बनी घूघरी का प्रसाद लगाकर सबको बांटा जाता है और लड़कियां गीत गाती हैं:-म्हारा बाबाजी के माण्डी गणगौर, दादसरा जी के माण्ड्यो रंगरो झूमकड़ो, ल्यायोजी-ल्यायो ननद बाई का बीर, ल्यायो हजारी ढोला झुमकड़ो। रात को गणगौर की आरती की जाती है तथा लड़कियां नाचती हुई गाती हैं। गणगौर पूजन के मध्य आने वाले एक रविवार को लड़कियां उपवास करती हैं। प्रतिदिन शाम को क्रमवार हर लड़की के घर गणगौर ले जाई जाती है। 

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गणगौर की विदाई का बाद कई महिनों तक त्योहार नहीं आते इसलिए कहा गया है-तीज त्योहार बावड़ी ले डूबी गणगौर। अर्थात् जो त्योहार तीज (श्रावणमास) से प्रारम्भ होते हैं उन्हें गणगौर ले जाती है। ईसर-गणगौर को शिव पार्वती का रूप मानकर ही बालाएं उनका पूजन करती हैं। गणगौर के बाद बसन्त ऋतु की विदाई व ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत होती है। दूर प्रान्तों में रहने वाले युवक गणगौर के पर्व पर अपनी नव विवाहित प्रियतमा से मिलने अवश्य आते हैं। जिस गोरी का साजन इस त्योहार पर भी घर नहीं आता वो सजनी नाराजगी से अपनी सास को उलाहना देती है। सासू भलरक जायो ये निकल गई गणगौर, मोल्यो मोड़ों आयो रे।

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-रमेश सर्राफ  धमोरा
ये लेखक के अपने विचार हैं)

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