सतरंगी सियासत

सतरंगी सियासत

राजस्थान से रवीन्द्र सिंह भाटी का नाम अब परिचय का मोहताज नहीं। जैसलमेर-बाड़मेर से उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़कर परंपरागत प्रतिद्वंदी भाजपा-कांग्रेस को पूरे समय परेशान किए रखा।

सुर्खियां बटोर ले गए...
राजस्थान से रवीन्द्र सिंह भाटी का नाम अब परिचय का मोहताज नहीं। जैसलमेर-बाड़मेर से उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़कर परंपरागत प्रतिद्वंदी भाजपा-कांग्रेस को पूरे समय परेशान किए रखा। भाटी अभी पांच माह पूर्व प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में विधायक चुने गए। उन्हें भाजपा ने मनाने की कोशिश तो की। लेकिन भाटी नहीं माने। भाटी का लंदन दौरा चर्चा में आ गया। इसी के साथ भाजपा भाटी के खिलाफ मुखर हो गई। भाटी ने राज्य की सीमा से बाहर भी अपने समर्थकों एवं शुभचिंतकों को प्रचार और मतदान के लिए बुला लिया। बाकी कसर राष्ट्रीय मीडिया ने उन्हें जोरदार ‘हाईप’ देकर पूरी कर दी। उनका नाम तेजी से आगे आया और बढ़ता ही चला गया। जिसे रोकना भाजपा और कांग्रेस के लिए मुश्किल हो गया।

लपेटे में भाजपा
इस चुनाव में एक हाई प्रोफाइल मामला ऐसा उजागर हो गया। जिसमें सत्ताधारी भाजपा लपेटे में। जबकि भाजपा नेताओं की जानकारी में यह सब था। चेताया भी गया। यदि मामला आगे बढ़ा। तो राजनीतिक नुकसान भी संभव। पूर्व पीएम एचडी देवेगौड़ा के पोते और हासन से सांसद प्रज्वल रेवन्ना पर महिलाओं से यौन शोषण के आरोप। मामले की गंभीरता को देखते हुए उनकी पार्टी जद-एस ने रेवन्ना को निलंबित कर दिया। बीती 26 अप्रैल को मतदान हो गया। लेकिन रेवन्ना इसके तुरंत बाद जर्मनी पहुंच गए। मौका हाथ लगा तो कांग्रेस कहां चूकने वाली? फिर मौसम भी चुनावी। सो, रेवन्ना के खिलाफ कार्रवाई की मांग। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने मामले की जांच के लिए तुरंत एसआईटी का गठन कर डाला। अभी मतदान के पांच चरण बाकी। मतलब भाजपा को बैकफुट पर लाने का कांग्रेस के लिए यह बेहतरीन अवसर दिख रहा!

फंस गई कांग्रेस
राजधानी दिल्ली में वैसे भी बवाल मचा हुआ। सीएम केजरीवाल ऐन आम चनाव के मौके पर जेल में। फिर आम आदमी पार्टी का राजधानी दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन। लेकिन चुनाव अभियान लय नहीं पकड़ पा रहा। आप जहां अपनी आंतरिक परेशानियों से दो चार। तो यही हालत कांग्रेस का भी। पहले तो कन्हैया कुमार और उदितराज को उम्मीदवार बनाए जाने से बखेड़ा हुआ। पूर्व सीएम शीला दीक्षित के सांसद रहे बेटे संदीप दीक्षित पार्टी के निर्णय से खफा। कई पार्टी नेता कन्हैया कुमार और उदितराज की उम्मीदवारी को पचा नहीं पा रहे। क्योंकि दोनों ही प्रत्याशी मूल कांग्रेसी नहीं। फिर दिल्ली पीसीसी चीफ अरविन्दर सिंह लवली ने पद ही छोड़ दिया। गजब तो यह हुआ कि कुछ ही घंटों में उनका इस्तीफा स्वीकार भी हो गया। जो कांग्रेस में अमूमन होता नहीं। इसी बीच, प्रभारी दीपक बाबरिया विवादों में आ गए। सो, राजधानी दिल्ली में कांग्रेस फंसी हुई!

चलते-चलते...
चुनावी दौर चलते-चलते न चाहते हुए भी मुकाबला मोदी बनाम राहुल गांधी हो रहा। जिससे कांग्रेस लगातार बच रही थी। जबकि भाजपा की शुरू से यही इच्छा। अब राहुल गांधी भाजपा एवं पीएम मोदी पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे। तो उसके जवाब भी पीएम मोदी द्वारा आ रहे। फिर राहुल गांधी को भी कुछ न कुछ बोलना पड़ता। ऐसे में राहुल गांधी उसी ट्रेक पर जा रहे। जिस पर वह साल 2019 में चल चुके। असल में, कांग्रेस आईएनडीआईए गठबंधन का हिस्सा। बल्कि वह राजग के खिलाफ वाले गुट की अगुवाई कर रही। ऐसे में, कांग्रेस के बाकी घटक दलों को यह नहीं लगे कि उन्हें चुनावी बिसात में पीछे किया जा रहा। इसीलिए राहुल गांधी को अगुवाई नहीं दी गई। लेकिन भाजपा ने कांग्रेस के न चाहते हुए मुकाबले को मोदी बनाम राहुल गांधी बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। सो, फिलहाल तो कई मुद्दों पर कांग्रेस असहज!

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संयोग तो नहीं?
देश में चुनाव का दौर और दुनियाभर की नजरें। लेकिन उनकी ज्यादा। जो भारत को आगे बढ़ता हआ देखना नहीं चाहते। उनकी इच्छा। भारत में कमजोर नेतृत्व और सरकार हो। साल 2014 से पहले तीन दशक तक शायद यही चला। लेकिन दस साल पहले मानो सियासी मंजर बदल गया। सबसे पहले लंदन से कोरोना वैक्सीन पर विवाद एक अदालती मुकदमे के जरिए भारत पहुंचा। उसके बाद एनसीआर क्षेत्र में एक साथ कई स्कूलों में बम की अफवाह सामने आई। फिर एक अमरीकी आयोग की रिपोर्ट ने मानो भारत को असहज करने की कोशिश की। लेकिन भारत का उस पर दो टूक जवाब। कहा, इसके बहाने चुनावी प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिशें। भारत को दबाने की नाकाम कोशिश करने वालों ने भी ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं की होगी! शायद उन्हें यह मानने में अभी समय लगेगा।

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पलायन तो नहीं?
तो राहुल गांधी ने आखिरकार अमेठी छोड़ ही दिया। वह वायनाड के बाद अब रायबरेली से भी कांग्रेस प्रत्याशी। जबकि अटकलें अमेठी से उतरने की थीं। लेकिन तमाम अनुमानों को खारिज करते हुए कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें रायबरेली से मैदान में उतारा। जहां से उनकी मां सोनिया गांधी साल 1998 से ही चुनती आ रहीं। तो क्या मान लिया जाए कि राहुल गांधी ने अमेठी से पलायन कर लिया? एक चर्चा यह भी। राहुल गांधी को इस बार क्या वायनाड की जनता पर भरोसा नहीं रहा? ठीक वैसे ही जैसे 2019 में उन्हें अमेठी की जनता पर विश्वास नहीं रहा था। अगर राहुल गांधी दोनों ही सीटों पर जीते। तो इस बात की संभावना ज्यादा कि वह वायनाड को चुनेंगे। क्योंकि साल 2026 में केरल में विधानसभा चुनाव। वहीं, प्रियंका गांधी रायबरेली से उपचुनाव लड़ सकें। याद रहे, राहुल गांधी उत्तर और दक्षिण भारत की आपस में तुलना कर चुके!

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-दिल्ली डेस्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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