जानिए राजकाज में क्या है खास?
सूबे में इन दिनों एक बार फिर ललचाई नजरों को लेकर काफी खुसरफुसर है। दोनों दलों में नेताओं की नजरें भी दिल्ली की तरफ टिकी हैं। भगवा और हाथ वाले एक-एक गुट को दिल्ली वालों बड़ी आस है। दिल्ली वाले हैं कि सिर्फ चक्कर पर चक्कर कटवा रहे हैं और कोई फरमान जारी नहीं कर रहे। वे फिलहाल वजन टटोलने में लगे हुए हैं।
एल एल शर्मा
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ललचाई नजरें
सूबे में इन दिनों एक बार फिर ललचाई नजरों को लेकर काफी खुसरफुसर है। दोनों दलों में नेताओं की नजरें भी दिल्ली की तरफ टिकी हैं। भगवा और हाथ वाले एक-एक गुट को दिल्ली वालों बड़ी आस है। दिल्ली वाले हैं कि सिर्फ चक्कर पर चक्कर कटवा रहे हैं और कोई फरमान जारी नहीं कर रहे। वे फिलहाल वजन टटोलने में लगे हुए हैं। आंकड़ों में मायाजाल में फंसे दिल्ली वालों की मजबूरी भी जगजाहिर है। सूबे के नेताओं के पास भी अपने पक्ष में झूठी बातें प्रचारित करने के सिवाय कोई चारा नहीं है। राज का काज करने वाले लंच केबिनों में बतियाते हैं कि सूबे में हाथ वाले भाई लोगों को पिछले साल इसी महीने में की गई गलतियों की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी, चाहे कोई कितने ही आंसू पौंछ दे। गांधी परिवार से ताल्लुकात रखने वाले नेताओं के सलाहकार भी तो एक कदम आगे हैं, उन्होंने बता दिया कि जल्दबाजी में अपने फ्यूचर के रास्ते में शूल बोने से नुकसान के सिवाय कुछ भी हाथ में आने वाला नहीं है। इस सलाह को समझने वाले समझ गए, ना समझे वो अनाड़ी हैं।
पैंतरा साहब का
सूबे की सबसे बड़ी पंचायत के सरपंच प्रोफेसर साहब का कोई सानी नहीं है। सरपंच साहब भी छोटे मोटे नहीं बल्कि नाथद्वारा से ताल्लुकात रखते हैं और कॉलेज के अपने जमाने में कइयों की हेकड़ी निकाल चुके हैं। दाढ़ी वाले सरपंच साहब जो करते हैं, वह सामने वालों के बाद में समझ में आता है। अब देखो ना सरपंच साहब ने दो दिन पहले ऐसा पैंतरा फेंका कि गुढ़ामलानी वाले चौधरी जी को समझ में नहीं आया। प्रेशर पॉलिटिक्स के चक्कर में इंदिरा गांधी नहर का पानी पीने वाले हेमा जी ने तो सरपंच साहब को इस्तीफा भेजा था, लेकिन सरपंच साहब उनसे भी एक कदम आगे निकले और कमेटी में शामिल कर सात दिन के लिए श्रीनाथजी की शरण में चले गए। अब बेचारे हेमाजी के पास अपना सिर पीटने के सिवाय कोई चारा भी तो नहीं है। अब उनको कौन समझाए कि प्रोफेसर साहब ने जो किया, वह उनकी क्लास अटेंड किए बिना कतई समझ में नहीं आता।
याद बीते दिनों की
आजकल खाकी वालों पर शनि की दशा है। कभी चौराहे पर तो कभी गली में पिट रहे हैं। और तो और चूड़ियों वाली तक हाथ पैर चला जाती है। बेचारे खाकी वाले भी क्या करें, उनको अपने ऊपर वालों पर भरोसा नहीं है, कब इंक्वायरी बिठा दे। सो पिटने में ही अपनी भलाई समझते हैं। करे भी तो क्या पुलिस का इकबाल जो खत्म हो गया। अब टाइगर और लॉयन तक दहाड़ मारना भूल गए। पीटर और गामाज के बारे में सोचना तो बेईमानी होगी। विक्टर की मजबूरी जगजाहिर है। उनके काम में खलल की किसी में दम नजर नहीं आ रहा। अब तो खाकी वाले भाई लोग ऊपर वालों से प्रार्थना कर रहे हैं कि कोई उनके बीते दिन लौटा दे ताकि खाकी का इकबाल कायम रहे।
एक जुमला यह भी
सूबे में इन दिनों एक जुमला जोरों पर है। जुमला भी छोटा-मोटा नहीं बल्कि प्रसाद को लेकर है। प्रसाद भी किसी मंदिर का नहीं बल्कि बगावत से ताल्लुक रखता है। इंदिरा गांधी भवन में बने हाथ वालों के दफ्तर में आने वाले हर किसी वर्कर की जुबान पर पार्टी के डिसिप्लिन एण्ड फ्यूचर को लेकर चर्चा हुए बिना नहीं रहती। जुमला है कि 136 साल पुरानी पार्टी में इनडिसिप्लिन करने वालों को प्रसाद तो मिला है, लेकिन मीठा नहीं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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