सतरंगी सियासत

कांग्रेस की हालत!

सतरंगी सियासत

कांग्रेस अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही सत्तारूढ़। अभी वह झारखंड में भी सत्ता में हिस्सेदार। लेकिन देखते ही देखते महाराष्ट्र हाथ से निकल गया। जहां कांग्रेस एमवीए गठबंधन में हिस्सा थी। हालात ऐसे बन रहे कि अब कब झारखंड भी चला जाए। कहा नहीं जा सकता।

कांग्रेस अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही सत्तारूढ़। अभी वह झारखंड में भी सत्ता में हिस्सेदार। लेकिन देखते ही देखते महाराष्ट्र हाथ से निकल गया। जहां कांग्रेस एमवीए गठबंधन में हिस्सा थी। हालात ऐसे बन रहे कि अब कब झारखंड भी चला जाए। कहा नहीं जा सकता। राष्ट्रपति चुनाव में इसकी सुगबुगाहट भी दिखाई पड़ रही। इस बीच, बिहार में भी कांग्रेस विधायक दल कहीं टूट न जाए। इसी का अंदेशा जताया जा रहा। आखिर वहां भाजपा-जदयू के बीच राजनीतिक रस्साकशी जो चल रही। साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव। जिसमें गुजरात में बहुत उत्साहजनक संकेत नहीं। फिर अगले साल कर्नाटक के भी चुनाव। कांग्रेस उत्तर पूर्व के राज्यों में पहले ही साफ हो चुकी। जहां उसने एकछत्र राज किया। लेकिन अब बिल्कुल नदारद। फिर सितंबर तक नए अध्यक्ष का चुनाव भी। हां, राहुल गांधी से ईडी द्वारा पांच दिन तक लगातार की गई पूछताछ के बाद पार्टी ह्यचार्जह्ण नजर आ रही। लेकिन यह कब तक रहेगी?

महाराष्ट्र का खेला!

तो मराठा प्रदेश में खेला हो गया। काफी कुछ उलट पुलट गया। अब कहा जा रहा। भाजपा की सबसे पहले नजर मुंबई महानगर पालिका पर। जिसका बजट ही देश के कई छोटे राज्यों से ज्यादा। अगर मनपा में बदलाव हुआ। तो इसका मतलब होगा शिवसेना की सीधे रीढ़ पर चोट। फिर 2024 का आम चुनाव। जहां भाजपा की नजर पूरी 48 सीटों के समीकरणों पर। भाजपा ने शिवसेना के बागी गुट के मराठा नेता एकनाथ शिंदे को सीएम बनाकर करीब 32 फीसदी मराठाओं को भी साध ही लिया। उसके बाद 2024 के अंत में राज्य में विधानसभा चुनाव। तब तक भाजपा अपनी जमीनी पकड़ काफी मजबूत कर चुकी होगी। ऐसे में जिनको यह भ्रम कि राजनीति में कल क्या होगा! ऐसा सोचने वालों के लिए भी यह घटनाक्रम एक नजीर। भाजपा काफी आगे की सोचकर चल रही। इसीलिए पूर्व सीएम फड़नवीस को छोटा ओहदा देकर भी नेतृत्व द्वारा मना लिया गया। मतलब उसने साथ में अपनी रणनीति का भी लौहा मनवा लिया।

संकेत साफ!

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बिहार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। भाजपा एवं जदयू की बयानबाजी अब एक सीमा के पार हो रही। अब तो जदयू की ओर से यहां तक कहा गया। नितिश ही राजग और राजग ही नितिश। मतलब एकदम साफ संकेत। कुछ बड़ा होने जा रहा। इसी को भांपते हुए चार एमआईएम विधायक राजद में जा मिले। जबकि कायदे से उन्हें जाना तो सत्ता के साथ था। लेकिन उन्होंने विपक्षी राजद के तेजस्वी को चुना। लालू 2017 में नितिश से गच्चा खा चुके। सो, उतना भरोसा नहीं। फिर पहले से जदयू की राजनीतिक ताकत भी आधी। वैसे जदयू में पहले ही असमंजस के हालात। आरसीपी सिंह अभी केन्द्र में मंत्री बने हुए। इस्तीफा नहीं हुआ। उनके बदले पार्टी अध्यक्ष लल्लन कुमार सिंह के मंत्री बनने के आसार बन रहे। साथ में बिहार में निर्बाध सरकार चलाने के लिहाज से भाजपा ने एक और मंत्री का आफर दे दिया बताया। लेकिन मामला कुछ और ही लग रहा। लालूजी शतरंज की चाल जो चल रहे।

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मरुधरा में आहट!

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राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम पायलट की बयानबाजी ने राजनीतिक सरगर्मी तेज कर दी। कार्यकतार्ओं और राजनीति के जानकारों की जिज्ञासाएं बढ़ा दीं। ऐसे में अगले एक दो माह में क्या होने वाला? चर्चा यह कि अगस्त के अंत तक 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव की दशा और दिशा तय होने वाली। लेकिन क्या यह इतना आसान? कयास तो पहले भी कई प्रकार के लगते रहे। लेकिन अभी तक वैसा कुछ भी नहीं हुआ। उदयपुर की घटना ने सभी को अचम्भित कर दिया। तीन चार दिनों तक इंटरनेट बंद रखना पड़ा। इससे समाज जीवन के कई कामों पर असर हुआ। फिर कांग्रेस नेतृत्व के सामने पंजाब का उदाहरण भी। वहीं, पार्टी नेतृत्व के समक्ष एक युवा नेता को रोके रखने की भी चुनौति। इसी बीच, सवाल यह कि क्या आलाकमान किसी भी प्रकार का जोखिम मोल लेगा? यदि जोखिम ले भी लिया। तो उसकी परिणति का भी भान होगा ही। फिर क्या उसे जमीन पर उतार पाएगा?

तेलंगाना पर नजर

भाजपा तेलंगाना में प्रभावी राजनीतिक मौजूदगी दर्ज करवाने कोशिश में जुटी हुई। भाजपा को तेलंगाना राजनीतिक दृष्टि से उर्वरा लग रहा। टीआरएस अध्यक्ष एवं राज्य के सीएम केसीआर की बचैनी और बौखलाहट साफ बता रही। इसीलिए उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर भाजपा को विरोध के लिए पकड़ लिया। जबकि कांग्रेस भी कह चुकी। वह पूरे दमखम से तेलंगाना में चुनाव लड़ेगी। मतलब भाजपा विरोध वोट बंटेगा। पीएम मोदी और भाजपा अगली बार परिवारवाद पर चोट करने जा रहे। वहां भी शिंदे तलाशने की कोशिश शुरू हो चुकी। मतलब कर्नाटक के बाद दक्षिण में भाजपा यहीं धूणी जमाने की फिराक में। वैसे वह पुड्डुचेरी में सफलता पा चुकी। लेकिन राजनीतिक लिहाज से वह उतना प्रभावी नहीं। ऐसे में तेलंगाना में यदि भाजपा प्रमुख विपक्ष की भूमिका में भी आ जाए। तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव को जिस तरह से भाजपा ने लिया। उससे टीआरएस ही नहीं कांग्रेस भी सकते में। इसीलिए भाजपा कार्यसमिति की बैठक भी यहीं रखी गई।

नजरअंदाजी या लापरवाही?

सपा प्रमुख अखिलेश यादव को दोहरा झटका। आजमगढ़ ही नहीं रामपुर लोकसभा उपचुनाव भी हार गए। आजमगढ में भाई धर्मेन्द्र यादव। तो रामपुर में आजम खान का चुना हुआ पार्टी प्रत्याशी खेत रहा। जबकि अभी मार्च में ही हुए विधानसभा चुनाव में इन दोनों ही क्षेत्रों में सपा को अच्छी खासी सफलता मिली थी। अब तो सपा के विधायक भी ढाई गुना से ज्यादा हो गए। फिर लोकसभा चुनाव की अभी से ही चिंता हो रही। चर्चा यह भी कि उनका मुस्लिम-यादव वोट बैंक भी इधर-उधर हो सकता है। क्योंकि भले ही यादव समाज विधानसभा में सपा को वोट देता हो। लेकिन आम चुनाव में सपा को उतना समर्थन नहीं मिलता। इसी प्रकार यूपी विधानसभा चुनाव के बाद जैसी बैरूखी मुस्लिम समाज के प्रति अखिलेश ने दिखाई। उससे वह बहुत निराश एवं हताश। अब वह भी विकल्प की तलाश में। अब यह थोक वोट बैंक कहां जाकर रूकेगा। फिलहाल तो किसी को पता नहीं। लेकिन सपा का अच्छा खासा नुकसान जरूर होगा।

-दिल्ली डेस्क

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