विचाराधीन कैदियों के न्याय में देर करना अन्याय

इस मामले को उठाना खासतौर पर महत्वपूर्ण

विचाराधीन कैदियों के न्याय में देर करना अन्याय

आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए न्याय प्रणाली की धीमी रफ्तार को गति देकर ही ऐसे विचाराधीन कैदियों के साथ न्याय देना संभव है और इसी से सशक्त भारत का निर्माण होगा।

न्याय में देर करना अन्याय है। भारत की न्याय प्रणाली इस मायने में अन्यायपूर्ण कही जा सकती है, क्योंकि भारत की जेलों में 76 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं, जिनका अपराध अभी तय नहीं हुआ है और वह 2 दशक से अधिक समय से जेलों में नारकीय जीवन जीते हुए न्याय होने की प्रतिक्षा कर रहे हैं। इन्हें विचाराधीन कैदी कहा जाता है, नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक देश की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी थे, जिनमें से 76 फीसदी यानी 3,71,848 विचाराधीन कैदी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को गंभीरता से उठाते हुए ईज ऑफ  लिविंग यानी जीने की सहूलियत और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी व्यापार करने की आसानी की ही तरह ईज ऑफ जस्टिस की जरूरत बताते हुए कहा कि देशभर की जेलों में बंद लाखों विचाराधीन कैदियों की न्याय तक पहुंच जल्द से जल्द सुनिश्चित की जानी चाहिए। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए न्याय प्रणाली की धीमी रफ्तार को गति देकर ही ऐसे विचाराधीन कैदियों के साथ न्याय देना संभव है और इसी से सशक्त भारत का निर्माण होगा।
डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज के सम्मेलन में प्रधानमंत्री द्वारा इस मामले को उठाना खासतौर पर महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ इसकी गंभीरता को भी दर्शाता रहा है।

विचाराधीन कैदियों का मुद्दा अति गंभीर इसलिए है कि बिना अपराध निश्चित हुए असीमित समय के लिए व्यक्ति सलाखों के पीछे अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय सजा के रूप में काट देता है, जब ऐसे व्यक्ति को निर्दोष घोषित किया जाता है, तो उसके द्वारा बिना अपराध के भोगी सजा का दोषी किसे माना जाए। ऐसे में कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, ताकि यह व्यवस्था अधिकतम संख्या में नागरिकों को न्यायिक उपचार सुलभ कराने में सक्षम हो सकें। सबसे पहले तो किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए बिना जेल में रखे जाने की एक निश्चित समय सीमा होनी चाहिए। यह अवधि अनिश्चित नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा एक ट्रैकिंग प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जो न्याय प्रणाली में विचाराधीन कैदियों का विश्लेषण कर यह बताए कि उनकी ओर से सलाखों के पीछे भेजे गए लोगों में से कितने आखिर में निर्दोष साबित हुए? ऐसी कानूनी एजेंसियों की पहचान होनी चाहिए और उनके खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिए, जो अपनी ताकत का दुरुपयोग करती हैं। सरकार को उन मामलों में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, जिनमें अंतहीन सुनवाइयों के कारण जिंदगियां जेलों में सड़ गईं।

विचाराधीन कैदियों का मुद्दा गंभीर है तभी प्रधानमंत्री ने पहले भी मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में भी यह विषय उठाया था। सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर इस मसले को उठाता रहा है। बावजूद इन सबके पता नहीं क्यों, इस मामले में जमीन पर कोई ठोस प्रगति होती नहीं दिखती। नरेंद्र मोदी के द्वारा इस मुद्दे को उठाने लिए जो समय चुना है, वो सटीक भी है और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भी है।  देश अपनी आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है, यह समय हमारी आजादी के अमृत काल का है। अत: देश में लम्बे समय से चले आ रहे अन्याय, शोषण, अकर्मण्यता, लापरवाही, प्रशासनिक-कानूनी शिथिलताओं एवं संवेदनहीनताओं पर नियंत्रण पाया जाना चाहिए। यह समय उन संकल्पों का है जो हमारी कमियों एवं विसंगतियों से मुक्ति दिलाकर अगले 25 वर्षों में देश को आदर्श की नई ऊंचाई पर ले जाएंगे। देश की इस अमृत यात्रा में न्याय प्रणली को चुस्त, दुरुस्त एवं न्यायप्रिय बनाने की सर्वाधिक आवश्यकता है। तभी प्रख्यात साहित्यकार प्रेमचन्द ने कहा था कि न्याय वह है जो कि दूध का दूध, पानी का पानी कर दे, यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए, खुद ही पाखण्डियों के जाल में फंस जाए। विचाराधीन कैदियों का 73 प्रतिशत हिस्सा दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों से आता है। इनमें से कई कैदी आर्थिक रूप से इतने कमजोर होते है, जो फीस तो दूर जमानत राशि भी नहीं जुटा सकते। इसे देश की न्यायिक प्रक्रिया की ही कमी कहा जाएगा कि दोषी साबित होने से पहले ही इनमें से बहुतों को लंबा समय जेल में गुजारना पड़ा है। इनकी जमानत पर भी समय से सुनवाई नहीं हो रही।

 उत्तर प्रदेश से जुड़े ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट मई महीने में आदेश दे चुका है कि ऐसे विचाराधीन कैदियों को जमानत पर छोड़ दिया जाए जिनके खिलाफ एक मामला हो और जिन्हें जेल में दस साल से ज्यादा हो चुका हो। फिर भी जब ऐसी कोई पहल नहीं हुई तो पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और इलाहाबाद हाई कोर्ट के रुख पर नाराजगी जताते हुए कहा कि अगर आप लोग ऐसा नहीं कर सकते तो हम खुद ऐसा आदेश जारी कर देंगे। देखना होगा कि यह मामला आगे क्या परिणाम लाता है, लेकिन समझना जरूरी है कि बात सिर्फ  यूपी या किसी भी एक राज्य की नहीं है। पूरे देश के ऐसे तमाम मामलों को संवेदनशील ढंग से देखे जाने और इन पर जल्द से जल्द सहानुभूतिपूर्ण फैसला करने की जरूरत है। विचाराधीन कैदियों का मुद्दा अति गंभीर इसलिए है कि बिना अपराध निश्चित हुए असीमित समय के लिए व्यक्ति सलाखों के पीछे अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय सजा के रूप में काट देता है, जब ऐसे व्यक्ति को निर्दोष घोषित किया जाता है, तो उसके द्वारा बिना अपराध के भोगी सजा का दोषी किसे माना जाए।

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- ललित गर्ग
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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