संयुक्त राष्ट्र : भारत के नाम रहा पिछला सप्ताह
समस्या का समाधान निकालने की दी गई सलाह
यूक्रेन युद्ध को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को युद्ध की बजाए कूटनीतिक वार्ता के जरिए समस्या का समाधान निकालने की दी गई सलाह, काफी चर्चित रही।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के 77वें सत्र का पिछला सप्ताह भारत की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रहा। यूक्रेन युद्ध को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को युद्ध की बजाए कूटनीतिक वार्ता के जरिए समस्या का समाधान निकालने की दी गई सलाह, काफी चर्चित रही। भले ही इसके पीछे पश्चिमी देशों के अपने कूटनीतिक हित सधते हों।
दूसरी ओर विदेश मंत्री एस जयशंकर की ओर से सभा में विश्व शांति के लिए भारत की ओर से बड़ी जिम्मेदारी के निर्वहन की पेशकश की, हर समस्या के कूटनीतिक आधार से हल का सुझाव देने से दुनिया के सामने देश की अच्छी तस्वीर बनी है। जो कि सुरक्षा परिषद के विस्तार और उसमें भारत की स्थाई सदस्यता की दावेदारी को अपरोक्ष रूप से बल मिलने के प्रयासों के रूप में देखा जा सकता है। इसके अलावा यह भी कम महत्वपूर्ण पहलू नहीं है कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने देश के पूर्व राष्ट्रपतियों से अलग हटकर संयुक्त राष्ट्र में सुधार की वकालत की है। उन्होंने इस संस्था को और समावेशी बनाने आज की दुनिया की जरूरतों को अच्छे तरीकों से पूरा किए जाने के लिए आवश्यक बताया।
इससे बढ़कर उन्होंने सुरक्षा परिषद में स्थायी और अस्थायी दोनों तरह के सदस्यों की संख्या बढ़ाने का समर्थन किया। इनमें वे देश भी शामिल हैं, जिनकी स्थायी सीट की मांग को लेकर हम लंबे समय से समर्थन करते आ रहे हैं। वहीं, उनकी ओर से यह सलाह देना कि कठिन परिस्थितियों में ही वीटो शक्ति के इस्तेमाल की सलाह काफी व्यावहारिक है। उनका इशारा अपरोक्ष रूप से चीन और रूस की ओर ही था। सबसे पहले हम बात करते हैं, यूक्रेन -युद्ध को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की रूसी राष्टÑपति को दी सलाह की तारीफ की। महासभा में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने उसकी तारीफ की, तो दूसरी ओर फ्रांस के राष्ट्रपति एमेनुएल मैक्रों ने सुरक्षा परिषद की बैठक दौरान। इससे बढ़कर मैक्सिको के विदेश मंत्री मार्सेलो लुईस एब्रार्ड कासाउबोन ने तो एक कदम आगे बढ़ाते हुए यूक्रेन में स्थाई शांति के लिए पोप फ्रांसिस, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटेनिया गुटेरिस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सदस्यता वाली एक स्थाई समिति गठित करने की मांग का सुझाव तक महासभा में दे डाला।
वहीं, यूक्रेन के प्रधानमंत्री डेनीज शमीहाल और भारतीय विदेश मंत्री की मुलाकात दौरान जपोरीजिया परमाणु संयंत्र के मसले पर बने गतिरोध को दूर करने के लिए उन्होंने भी भारत से मदद मांगी। कारण इस संयंत्र पर रूसी सेना का नियंत्रण है। इन सब वक्तव्यों और खबरों का विश्लेषण करें तो एक पहलू तो यह उभरता है कि पश्चिमी नेता या मीडिया, उन्हीं बातों की तारीफ करते हैं, जो उनके अनुकूल हो। संभव है इसके पीछे उनकी यह सोच हो सकती है कि इसके जरिए वह दूसरे देशों को यह दर्शाना चाहते हों कि भारत और रूस के बीच दोस्ती पहले जैसी ना होकर, अब उनमें फासला बनने लगा है। रहा सवाल सुरक्षा परिषद के विस्तार से जुड़े पहलू का, तो कुछ कूटनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि बाइडन ने अपने भाषण में स्थायी सीट का जिक्र किया है, ना कि स्थाई सदस्यता को लेकर। इन दोनों पहलुओं में काफी अंतर है। स्थाई सीट का इस्तेमाल अफ्रीकी देशों के लिए होता है, जो किसी एक देश के लिए नहीं बल्कि बारी-बारी से प्रतिनिधित्व से जुड़ा होता है। खैर, अब बात करते हैं विदेश मंत्री एस जयशंकर के भाषण की। उन्होंने कहा कि भारत अपनी स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी के पिचहत्तर साल बाद हमारी आर्थिक व्यवस्था विश्व में पांचवें पायदान पर है। हमारा लक्ष्य है कि आजादी के सौ साल पूरे होने यानी वर्ष 2047 तक हम विकसित देश बनेंगे। हमने दुनिया को कोरोना का टीका दिया, लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला। हम हरित विकास, सुगम स्वास्थ्य सुविधाओं पर केंद्रित हैं। हम विश्व को एक परिवार मानकर चलते हैं। उसके कल्याण की कामना करते हैं। हम संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों और चार्टर का सम्मान करते हैं। आज नया भारत आत्मविश्वास से ओत-प्रोत है। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि वैश्विक मंच पर उन्होंने भारत की उज्जवल तस्वीर पेश की, जो प्रशंसनीय है। वहीं उन्होंने आतंकवाद को प्रोत्साहन देने वाले और घोषित आतंकवादियों को बचाने वाले देशों को भी कड़ा संदेश देते हुए, बिना नाम लिए पाकिस्तान और चीन पर निशाना भी साधा।
यह भी कटु सत्य है कि सुरक्षा परिषद के कुछ स्थायी सदस्य इस संस्था के विस्तार की तो बात करते हैं, लेकिन नए सदस्यों को वीटो शक्ति नहीं देना चाहते। ऐसे में स्थायी सदस्यता लेने का फिर लाभ क्या है। जहां तक इस क्रम में भारत की दावेदारी का सवाल आता है, चीन किसी ना किसी बहाने इसमें रोड़ा डाल देता है। जबकि भारत के समर्थन में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस हैं। वहीं विस्तार कार्य को अंजाम देने के लिए संयुक्त राष्ट्र के संविधान में संशोधन की भी जरूरत होगी।
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