सादा जीवन उच्च विचार अपनाकर ही बचेगी प्रकृति

प्राकृतिक पांच तत्वों-नभ, वायु, पृथ्वी, जल और अग्नि का जीवन-मिश्रण है

सादा जीवन उच्च विचार अपनाकर ही बचेगी प्रकृति

वास्तव में वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति के आरंभ होने के बाद से ही दुनिया में प्रकृति और इसके संदर्भ में दो विपरीत मत खड़े हो गए। तब से वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और इनसे प्रभावित लोगों का एक वर्ग केवल औद्योगिक उत्पादन पर आधारित जीवन जीने का पक्षधर बना हुआ है।

प्रकृति! प्रकृति! प्रकृति! हम मनुष्यों के भीतर-बाहर ये शब्द दायित्वभाव के साथ गूंजते रहने चाहिए। मनुष्य प्रकृति का अंश है। प्राकृतिक पांच तत्वों-नभ, वायु, पृथ्वी, जल और अग्नि का जीवन-मिश्रण है। इसलिए मानवों को इन पंच तत्वों के प्रति अपने मानवीय दायित्वों को समझकर उनका पालन नियमित रूप में अवश्य किया जाना चाहिए। वास्तव में वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति के आरंभ होने के बाद से ही दुनिया में प्रकृति और इसके संदर्भ में दो विपरीत मत खड़े हो गए। तब से वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और इनसे प्रभावित लोगों का एक वर्ग केवल औद्योगिक उत्पादन पर आधारित जीवन जीने का पक्षधर बना हुआ है। दूसरी ओर, संत-महात्माओं, आध्यात्मिक विचारकों, प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षणकर्ताओं तथा इनसे प्रभावित लोगों का वर्ग है, जो औद्योगिक उत्पादन को बहुत अधिक सीमित कर धीरे-धीरे बंद करने और प्राकृतिक रूप में ही जीवन जीने के पक्ष में है। दुर्भाग्य कहें या फिर विवशता, आज अधिसंख्य लोग औद्योगिक उत्पादन पर आधारित जीवन जी रहे हैं।

जीवन का यह ढंग एक बार तो सुखी, सुरक्षित एवं सुविधा सम्पन्न होने का अनुभव कराता है, परंतु अनेक बार दुखी, असुरक्षित व दुविधाग्रस्त भी करता है। इस कारण कहीं न कहीं अधिसंख्य मानवों के अंतर्मन में यह चुभन रहती ही रहती है कि उसका जीवन आज की भांति नहीं, अपितु प्राकृतिक रूप में तथा आज से पचास वर्ष पूर्व की तरह होना चाहिए था। बाहरी दृष्टि से सोचने-विचारने पर अब ऐसा होना संभव नहीं लगता। लेकिन संकल्पबद्ध होकर मनुष्यगण इस जीवन से मुक्त हो सकते हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए दुनिया को फिर से पचास वर्ष पहले जैसा बना सकते हैं। दुनिया में औद्योगिक उत्पादन और लाखों उत्पादित वस्तुओं के जंजाल से प्राकृतिक असंतुलन तो बुरी तरह परिव्याप्त है ही, साथ ही आधुनिक मानवीय दिनचर्या अति असहज, रोग-व्याधिग्रस्त और कई प्रकार से कष्टकारी हो चुकी है। थल, नभ, जल, वायु सब कुछ अति प्रदूषित हो चुके हैं। मौसम के दुष्प्रभाव आंखों के लिए ही भद्दे नहीं हैं, अपितु शरीर के लिए भी दुख बढ़ा रहे हैं। ऐसे में मानवीय जीवन की स्थिति पीछे कुआ आगे खाई जैसी हो चुकी है। ऐसा इसलिए क्योंकि चार-पांच सौ वर्षों से चले रहे औद्योगिक उत्पादन और इस आधार पर चलने वाले मानवीय जीवन के दुष्परिणाम प्रकृति को ध्वस्त कर चुके हैं। अब भी यदि मनुष्य चेत जाएं, भोगोपभोगी जीवन को तिलांजलि दे दें, सादी जिंदगी जीने लग जाएं तो हो सकता है कि आने वाले चार-पांच सौ वर्षों या इससे भी दुगुने समय में पृथ्वी पर जीवन विशुद्ध प्राकृतिक रूप में लौट पाए।

लेकिन ऐसा होना अब किंचित संभव नहीं। देशों के तंत्र अपनी-अपनी स्थापना को लेकर चिंतित हैं। तंत्रों द्वारा विभाजित लोग अपने-अपने राजनीतिक वर्गों के लिए समर्पित हैं। राजनीतिक लोग अपनी तंत्रगत शक्ति बढ़ाने के लिए पूंजीपतियों की प्रकृतिघाती औद्योगिक तथा प्रागैतिक नीतियों को निरंतर संरक्षण दे रहे हैं। सड़क से लेकर सत्ता तथा पूंजी-व्यवस्था के शीर्ष स्तर पर विराजमान व्यक्ति बस केवल अपनी स्थापना चाहता है। ऐसे में प्राकृतिक विधि से जीवन जीने का व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक विवेक क्षीण हो चुका है। विश्व के विभिन्न राष्ट्र के कुछेक संवेदनशील लोग इन परिस्थितियों में व्याकुल हैं। वे प्रकृति का निरंतर निरीक्षण कर रहे हैं। उनका प्राकृतिक अवलोकन एक ही निष्कर्ष देता है कि यदि वस्तुओं का अप्राकृतिक उत्पादन और आसुरी उपभोग कम या बंद नहीं हुआ, तो प्रलय अवश्यंभावी है।

प्रकृति संतुलित रहे, प्राकृतिक प्रवाह में हो, प्रकृतिगत प्रलय न हो इसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने जीवन का महत्व, उद्देश्य और आवश्यकताएं चिन्हित करनी होंगी। हम सोचें कि हमारा जीवन क्यों है, इसका क्या अभिप्राय: है, हम संसार में किस लिए हैं और जीवन जीने के लिए वास्तव में हमें क्या-क्या चाहिए। इस विचार की दृष्टि में जब अधिक लोगों को पता चलेगा कि उनकी काया क्षणभंगुर है, मोह-माया-ममता का जंजाल अंतत: शून्य की ही उत्पत्ति करता है और वस्तुएं संग्रह करने का उनका परिश्रम उस क्षण व्यर्थ ही जाएगा, जब वे नश्वर काया को छोड़ते हुए अपने साथ अपना संग्रहीत कुछ भी नहीं ले जा पाएंगे, तो मानवीय जीवन का महत्व, उद्देश्य तथा आवश्यकताएं स्पष्ट हो जाएंगी। मानवीय जीवन के उद्देश्य हैं- प्राकृतिक ढंग से जीना, सादा भोजन और उच्च विचार का सिद्धांत आत्मसात करना, पूंजी-व्यवस्था के लाभ के लिए बनाई गई वैश्विक ग्राम व्यवस्था को त्यागना, स्वदेशी और स्वराज की प्राचीन धारणा अपनाना, परिवहन की प्रकृतिघाती व्यवस्थाओं व सुविधाओं को त्यागना, हर उस आधुनिक सुविधा व व्यवस्था को छोड़ना जो आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में थी ही नहीं, कृषि व्यवस्था की पुरातन तकनीकें अपनाना, गो पालन व्यवस्था का विस्तार करना, उपयोगी वृक्षों का रोपण करना, औषधीय वनस्पतियां उगाना तथा हर प्रकार से प्राकृतिक व्यवस्था के अधीन होकर जीवन जीना। 

Read More जल-संकट : जीवन एवं कृषि  खतरे में

-विकेश कुमार बडोला

Read More World Red Cross Day Special :  मानवता की सेवा का दूसरा नाम है रेडक्रॉस

 

Read More दुनियाभर में कैंसर के बढ़ते मामले चिंताजनक

Post Comment

Comment List

Latest News

सचिन पायलट-जोशी को मिली 2 सीटों पर जिम्मेदारी, दिल्ली में बनाया पर्यवेक्षक  सचिन पायलट-जोशी को मिली 2 सीटों पर जिम्मेदारी, दिल्ली में बनाया पर्यवेक्षक 
उत्तर-पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस ने कन्हैया कुमार को चुनावी मैदान में उतारा है। उनका मुकाबला मनोज तिवारी से है, जबकि...
मोहन यादव का राहुल पर निशाना, गांधी परिवार से कोई नहीं कर पाया गरीबी दूर 
निष्क्रिय कांग्रेसजनों की रिपोर्ट जाएगी दिल्ली, संगठन से छिनेंगे पद
आपसी रंजिश में युवक की चाकू से गोदकर हत्या, बीच-बचाव करने आए परिजन घायल
प्रदेश में हजारों की संख्या में सूख रहे है पेयजल स्रोत, भूजल स्तर में गिरावट
सिंगापुर का एफ-16 लड़ाकू विमान एयर बेस पर क्रैश, सफलतापूर्वक बाहर निकला पायलट
अवैध रूप से बसाई जा रही 3 कॉलोनियां ध्वस्त, अतिक्रमण पर भी कार्रवाई