सच को इंसाफ दिलाती बेखौफ ईमानदारी की तहरीर असरदार
फिल्म समीक्षाः सिर्फ एक ही बंदा काफी है
अंधविश्वास और विश्वास के तराजू पर टिकी ये कोर्ट रूम ड्रामा संवेदनाओं की वो अंगीठी है, जो धीमी आंच पर एहसासों की गर्माहट देती है। कहानी है नू की जो नाबालिग और पीड़ित है उस अंधविश्वास की।
जयपुर। अंधविश्वास और विश्वास के तराजू पर टिकी ये कोर्ट रूम ड्रामा संवेदनाओं की वो अंगीठी है, जो धीमी आंच पर एहसासों की गर्माहट देती है। कहानी है नू की जो नाबालिग और पीड़ित है उस अंधविश्वास की। जो उसके मातापिता ने अपने धर्मगुरु पर किया। इस आस्था ने 16 साल की मासूम लड़की का सब कुछ लूट लिया हो वो बेशर्म बाबा अपने रसूख और पावर से सच को दबाना चाहता है। उसकी पहुंच ऊपर तक है। अंदभक्तों की फौज है, लेकिन लड़की की हिम्मत उसके दर्द की इंतहा है, जो उसे उसके मां-बाप को अन्याय के खिलाफ लड़ने का हौसला दे दिल्ली के पुलिस स्टेशन में धर्मगुरु के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराती है। पुलिस धर्म के ठेकेदार को पॉक्सो केस में जेल में डालती है और केस जोधपुर सेशन कोर्ट में आता है, जहां सरकारी वकील बिकने को तैयार है और केस को रफादफा करने की साजिश रचता है। ऐन मौके पर उसकी बेईमानी सामने आ जाती है और पुलिस की मदद उन्हें कानून के सबसे ईमानदार मुहाफिज पुनमचंद (पीसी) सोलंकी के पास ले आती है। धर्म से बंधा ये बंदा अधर्म के खिलाफ अकेला खड़ा है, जो झुकता नहीं, टूटता नहीं और बड़े से बड़े वकीलों की हवा टाइट करता है। उसे लालच, डर के भंवर में फंसाया जाता है। गवाहों को मारा, तोड़ा, झूठे सबूत का पुलिंदा धरा जाता है, मगर गुनहगार की हर मुमकिन घिनौनी साजिश तोड़कर सच को इंसाफ मिलेगा इस कोशिश में लगा ये बंदा अकेला काफी है। कशमकश में फंसी लड़ाई ही ये कहानी है, जो आसाराम बापू की पोल खोलती हुई उस बंदे की रियल कहानी से प्रेरित है। पटकथा कसी और सुलझी है। संवाद सटीक दमदार हैं। क्लाइमैक्स शानदार और निर्देशन बेहतरीन है। मनोज वाजपेई लाजवाब है। उनका अभिनय शानदार है। अंतर्द्वंद से लड़ता आम इंसान डर के साए में सच के लिए खड़ा है। नू (अदिति सिन्हा) का दर्द और खामोशी में उनकी आंखों का बोलना शानदार है। विपिन शर्मा का काम अच्छा है। सूर्यमोहन धर्मगुरु बन छाप छोड़ते हैं। ओवरआल फिल्म क्लास है और सबक देते हुए कई सवाल छोड़ती है।
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