बच्चों पर भारी पड़ता बस्ते का बोझ

नोटबुक के बोझ को आसानी से कम किया जा सकता

बच्चों पर भारी पड़ता बस्ते का बोझ

बच्चों को स्कूल आते समय कितनी किताबें व नोटबुक लाना चाहिए। यह स्कूल तय नहीं कर पा रहे हैं। एक समय था जब बच्चों को स्कूल में ही पीने का पानी मिल जाता था, लेकिन करीब एक लीटर की पानी की बोटल और लंच बॉक्स का बोझ तो इसलिए बोझ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह बच्चे के लिए जरुरी है, लेकिन किताबों और नोटबुक के बोझ को आसानी से कम किया जा सकता है।

बच्चों को स्कूल आते समय कितनी किताबें व नोटबुक लाना चाहिए। यह स्कूल तय नहीं कर पा रहे हैं। एक समय था जब बच्चों को स्कूल में ही पीने का पानी मिल जाता था, लेकिन करीब एक लीटर की पानी की बोटल और लंच बॉक्स का बोझ तो इसलिए बोझ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह बच्चे के लिए जरुरी है, लेकिन किताबों और नोटबुक के बोझ को आसानी से कम किया जा सकता है। यह हमारी शिक्षा व्यवस्था का ही कमाल है कि बच्चों पर पढ़ाई के बोझ से ज्यादा बस्ते का बोझ होता जा रहा है। स्कूलों में बैग का बोझ दिन प्रतिदिन ज्यादा ही होता जा रहा है, जबकि 16 साल पहले ही तमिलनाडु सरकार ने बस्ता हल्का करने का नियम बना दिया था। इसके लिए तमिलनाडु सरकार ने कक्षाओं के हिसाब से बस्ते का वजन तय किया था तो बाद में मद्रास हाईकोर्ट ने भी मई 2018 में इन नियमों को लागू करने के निर्देश दिए थे। हालांकि बस्ते के बढ़ते बोझ को कम करने की चिंता सभी को रही है। यही कारण है कि एनसीईआरटी ने भी 2018 में ही देशभर के प्राइवेट स्कूलों में इन नियमों को सख्ती से लागू करने के निर्देश दिए पर आज भी वहीं ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। एनसीईआरटी के बिहार में मार्च महीने में किए गए सर्वे के जो परिणाम आए हैं कमोबेस वही हालात समूचे देश के हैं। बच्चे पढ़ाई के बोझ से ज्यादा बस्ते के बोझ से त्रस्त हैं।

बिहार में कक्षा एक से 12वीं तक के बच्चों के बस्ते के बोझ का अध्ययन किया गया तो सामने आया कि बच्चे के बस्ते का वजन तीन से चार किलो अधिक है। बच्चों को तीन से चार किलो अधिक वजन लेकर जाना पड़ता है। दसवीं बारहवीं के बच्चों के स्कूल बैग का वजन दस से 12 किलो तक हो जाता है। इसका दुष्प्रभाव सीधे- सीधे बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। बच्चों की रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ने के साथ ही उनके पोस्चर पर प्रभाव पड़ने लगा है। आदर्श स्थिति यह है कि बच्चे के वजन का 10 प्रतिशत वजन ही स्कूल बैग का वजन होना चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा है। हालांकि एनसीईआरटी सहित विशेषज्ञोें ने स्कूल बैग का वजन कम करने के सुझाव भी दिए हैं और यह सुझाव नहीं है, लेकिन इन सुझावों को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए बच्चों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ किया जा रहा है। इसके लिए स्कूलों को अपने सिस्टम में सुधार करना होगा। दरअसल बच्चों को स्कूल आते समय कितनी किताबें व नोटबुक लाना चाहिए। यह स्कूल तय नहीं कर पा रहे हैं। एक समय था जब बच्चों को स्कूल में ही पीने का पानी मिल जाता था, पर करीब एक लीटर की पानी की बोटल और लंच बॉक्स का बोझ तो इसलिए बोझ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह बच्चे के लिए जरुरी है। पर किताबों और नोटबुक के बोझ को आसानी से कम किया जा सकता है। स्कूल यदि यह तय कर ले कि अमुख दिन यह किताब लानी है तो दूसरी और बच्चों को स्कूल में किताबों को शेयर करने की आदत ड़ालकर भी समस्या का कुछ समाधान हो सकता है। इसी तरह से सभी विषयों की नोटबुक के स्थान पर बच्चों को एक या दो नोटबुक या खाली कागज लाने की आदत डाली जाए, तो उससे भी बस्ते का बोझा काफी हद तक कम हो सकता है। इसके अलावा केन्द्रीय विद्यालयों की तर्ज पर लॉकर सुविधा हो तो भी बच्चे स्कूल में किताब रखकर जा सकते हैं। यह कोई नए सुझाव या नई बात नहीं है अपितु कमोबेस एनसीईआरटी के सुझावों में यही कुछ बातें हैं।

हमें बच्चे की पढ़ाई और स्वास्थ्य दोनों में ही तालमेल बैठाना होगा। स्कूल बैग के बोझ को लेकर बच्चे और पेरेंट्स दोनों ही चिंतित है तो दूसरी और शिक्षाविद और मनोविज्ञानी भी इसे लेकर गंभीर है। सरकार द्वारा भी इसे लेकर गंभीर चिंतन मनन होता है, पर नतीजा वहीं का वहीं बना हुआ है। होने यह तक लगा है कि पीठ पर बस्ते के बोझ के चलते बच्चों की पीठ का अनावश्यक झुकाब बढ़ता जा रहा है तो स्पाइनल प्रोब्लम आम होती जा रही है यह अलग बात है। बच्चे तो बच्चे बच्चों के पेरेन्ट्स को भी स्कूल बैग उठाते हुए पसीना आ जाता है, तो इसकी गंभीरता को आसानी से समझा जा सकता है। एक समय था जब रफ नोटबुक मल्टीपरपज नोटबुक होती थी। इस रफ नोटबुक को अधिक उपयोगी बनाने की दिशा में चिंतन कर बस्ते की नोटबुकोंं के बोझ का काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसी तरह से टाइम टेबल इस तरह से तैयार किया जाए, ताकि पीरियड्स की किताबों और बस्ते के वजन में संतुलन बनाया जा सकें।

एक समय था जब काउंटिंग, अल्फावेट, ककहरा आदि की खुली कक्षाएं होती थीं और बच्चों को बोल-बोल कर रटाया जाता था। इस तरह के प्रयोग के पीछे वैज्ञानिक कारण भी रहा है। ऐसे में कुछ विषयों की कक्षाएं दिन विशेष को इस तरह से भी आयोजित करने पर विचार किया जा सकता है। पहले शनिवार को आधे दिन लगभग इसी तरह की खुली कक्षाएं व रचनात्मक गतिविधियां होती थीं, आज कितने स्कूलों में शनिवार को यह होता है, विचारणीय है। हालात साफ -साफ  है। हमें बच्चों के स्कूल बैग के बोझ के साथ-साथ बच्चे के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ के प्रति भी सजग होना पड़ेगा। पहले चरण में यदि एनसीईआरटी के अनिवार्य आदेशों, दिशा-निर्देशों और सुझावों को ही ईमानदारी से लागू कर दिया जाए, तो समस्या का काफी हद तक हल निकल सकता है। प्राइवेट स्कूलों को भी इस दिशा में आगे आकर सरकार के सामने ठोस प्रस्ताव रखने चाहिए ताकि समस्या का समाधान खोजा जा सके। आखिर बच्चे राष्ट्र की धरोहर है और उनकी शारीरिक और मानसिक स्थितियों को हमें समझना होगा और कोई ना कोई व्यावहारिक हल खोजना होगा, ताकि पढ़ाई और बस्ते के बोझ के बीच एक समन्वय बन सके।

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- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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