गांधीवादी उसूलों पर दावेदारी और नवज्योति का सफर

86 साल पहले तत्कालीन राजपूताना राज्य के अजमेर से दैनिक नवज्योति के सफर का आगाज हुआ था

गांधीवादी उसूलों पर दावेदारी और नवज्योति का सफर

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नवज्योति एक मजबूत आवाज बनकर जनता के सामने उपस्थित हुआ। गौरतलब यह है कि नवज्योति अखबार सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के विरोध का ही केन्द्रीय स्वर नहीं था। बल्कि, उस वक्त सामंतशाही की चक्की में पिस रही जनता का भी नुमाइंदा बना।

हमारे मुल्क के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की रविवार को 153वीं जयंती मनाई गई। ऐसे में मुनाफाखोरी के संदर्भ में उनका यह कथन याद आना लाजिमी है, जो उन्होंने आजाद भारत की शिक्षा की कल्पना करते हुए कहा था। गांधी का कहना था कि आजाद भारत में मैं बच्चों से पूछूं कि अगर कोई चीज मैंने 25 पैसे में खरीदी और 1 रुपये में बेच दी तो मुझे कितना फायदा हुआ? इसके जवाब में बच्चे अगर मुझसे यह कहें कि इसके लिए आपको जेल की सजा होगी तो मैं समझूंगा कि आजाद भारत की शिक्षा का मकसद पूरा हो गया है। ऐसी ही तालीम मेरे विचारों के अनुकूल होगी। आज मीडिया, जो कि विचारों के पेशे का नुमाइंदा है, जिस तरह के व्यावसायिक मापदंड प्रचलित हैं, उसमें गांधी की यह बात बेहद अहमियत रखती है। अखबारों के दाम स्थिर हैं और कागज की छपाई वगैरह महंगी होने से आजादी के आंदोलन की मिशनरी विरासत की पत्रकारिता चोटिल अवस्था में पड़ी कराह रही है। आज के दौर में, एक बार फिर से सामुदायिक मीडिया का विकल्प गढ़ने की जरूरत एक चुनौती की तरह हमारे समक्ष प्रस्तुत है।

2 अक्टूबर का खास दिन दैनिक नवज्योति अखबार के लिए भी यादगार है। क्योंकि आज से 86 साल पहले तत्कालीन राजपूताना राज्य के अजमेर से दैनिक नवज्योति के सफर का आगाज हुआ था। तब यह समाचार पत्र साप्ताहिक ही था। 1948 में यह दैनिक हुआ। आजादी के आन्दोलन में इसकी अहम भूमिका रही। तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नवज्योति एक मजबूत आवाज बनकर जनता के सामने उपस्थित हुआ। गौरतलब यह है कि नवज्योति अखबार सिर्फ अंग्रेजी हुकूमत के विरोध का ही केन्द्रीय स्वर नहीं था। बल्कि, उस वक्त सामंतशाही की चक्की में पिस रही जनता का भी नुमाइंदा बना। तत्कालीन किसान आन्दोलन और कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ी जा रही आजादी की लड़ाई का भरोसेमंद सैनिक बनकर उभरा। आजादी के पहले की राजपूताना रियासत की जनता दोहरे शोषण और अत्याचार से जूझ रही थी। एक तरफ अंग्रेजी हुकूमत थी और दूसरी तरफ सामंती रजवाड़े। ऐसे में आजादी के आन्दोलन के अगुआ नेताओं के साथ-साथ दैनिक नवज्योति की भी चिंताएं और संघर्ष दोतरफा थे। कहने की जरूरत नहीं कि अंग्रेजी शासन के कोपभाजन का शिकार नवज्योति को भी होना पड़ा।आजादी के बाद हालात बदले, सत्ता बदली और नवज्योति का तेवर भी बदला।

स्वतंत्रता संग्राम के उसूलों के अनुरूप एक नए भारत को गढ़ने का सपना और संकल्प साकार करने थे। जन आंदोलनों से तपकर निकली हुई कांग्रेस को एक आत्मनिर्भर और सचेत भारत बनाना था। एक राष्टÑ के बतौर विविध जातियों और धर्मों में बंटे भारत को एकता के रंगीन धागों में पिरोना था। बहुलतावादी संस्कृति को प्रोत्साहित करते हुए बराबरी और जिम्मेदार समाज का गठन करना था। ऐसे में, एक अखबार के बतौर, नवज्योति सबसे पहले साप्ताहिक से दैनिक हुआ। आजादी के बाद इसका दायरा अजमेर से बढ़कर जयपुर और कालांतर में कोटा तक हुआ। नवज्योति के संस्थापक संपादक कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी ने इन बदली हुई परिस्थितियों में भी अखबार के जरिए अलख जगाने का काम जारी रखा। आजादी की लड़ाई के सिपाही होने के नाते उनकी पहुंच सभी राजनेताओं तक थी, लेकिन उन्होंने इस नजदीकी का कोई बेजा फायदा नहीं उठाया।

आजादी के आन्दोलन में शामिल नेताओं और कार्यकर्ताओं में तब आदर्शों के ऊंचे प्रतिमान हुआ करते थे। संघर्षों से उनका गहरा नाता होता था। व्यक्तिगत दु:ख, तकलीफें उनके लिए न्यूनतम तौर पर प्राथमिकता में होती थीं। कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी का समूचा जीवन ऐसा बेदाग रहा कि उनके विरोधी भी उनके कायल थे। उन्होंने राजनीति के कई पड़ाव देखे। सत्ता के उतार चढ़ाव के दौर देखे, लेकिन अपनी जनपक्षधरता पर कोई आंच नहीं आने दी। क्या गजब बात है कि नवज्योति की स्थापना उन्होंने 2 अक्टूबर के दिन की थी। महात्मा गांधी जीते जी कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाते थे। कप्तान साहब की यह दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने अखबार की स्थापना के लिए एक ऐतिहासिक दिवस का चुनाव किया। जैसा कि कालांतर में देखने में आया कि आजादी के बाद गांधी जी तस्वीरों, सड़कों, संस्थानों तक सिमट कर रह गए। गांधी जी के विचारों के अनुरूप भारत देश को गढ़ने के ख्वाब को कई गहरे और आंतरिक धक्के भी लगे। यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी भी है कि आज के लगभग सभी सत्ताधारी दल गांधी के अंतिम आदमी को विस्मृत कर चुके हैं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि वर्तमान भारत में गांधी जी के हत्यारे को नायक घोषित किए जाने की मुहिम जोर पकड़ रही है। मीडिया के एक हिस्से से लेकर सोशल मीडिया तक गांधी के विचारों और जीवन के बारे में कुत्सा दुष्प्रचार बड़े पैमाने पर उत्पादित और प्रसारित किए जा रहे हैं। ऐसे में सामाजिक और राजनीतिक दायरे में गांधीवादी विचार और जीवनशैली के नैतिक आह्वान और उनकी पुनर्स्थापना के लिए दुर्गा प्रसाद चौधरी आजीवन सक्रिय रहे।

आज इंसानी सभ्यता के सामने जो चुनौतियां पेश आ रही हैं, उनका समाधान गांधी के सुझाए रास्ते के बगैर नामुमकिन है। समूची दुनिया में उपभोक्तावादी संस्कृति का बोलबाला है। अंधी प्रतिस्पर्धा, आपसी नफरत, युद्ध, हथियारों की होड़ आदि की वजह से समूची मनुष्यता के साथ पृथ्वी और प्रकृति को भी बड़ा खतरा पैदा हो गया है। इस सन्दर्भ में, यह तथ्य सर्वमान्य हो चला है कि प्रकृति और मनुष्यता का बचाव करने का समय बहुत कम बचा है। मतलब उलटी गिनती शुरू हो गई है। इसका रास्ता तलाशने के क्रम में हमें गांधी के बताए रास्तों को वापस खोजना होगा। दुनिया भर में गांधी के आजमा, तरीकों को दुबारा से आजमाया जा रहा है। इस मायने में, हमें दुनिया भर में आदिवासियों के जीवन और प्रकृति को बचने के लिए उनके संघर्षों से कुछ सकारात्मक शिक्षा मिल सकती है।

-डॉ.अनिल कुमार मिश्र
(ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक जयपुर स्थित हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विवि में सहायक प्रोफेसर हैं।)

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