पहले नब्ज देखकर दवा: अब चिकित्सा का चेहरा बनी अत्याधुनिक मशीनें और जांचें

तब: मरीज देखकर बीमारी पकड़ते थे, हॉर्ट बाइपास या बड़ी सर्जरी के लिए विदेश जाना पड़ता था

पहले नब्ज देखकर दवा: अब चिकित्सा का चेहरा बनी अत्याधुनिक मशीनें और जांचें

अब: बिन मशीन डॉक्टर अधूरे, जांच से लेकर इलाज तक इनसे ही हो रहे

जयपुर। राजस्थान में आजादी के वक्त चिकित्सा सेवाओं के नाम पर इकलौता जयपुर का सवाईमानसिंह अस्पताल ही था। यहां न जांचें ईजाद हुई थी और ना मॉनिटरिंग के लिए मशीनें थी। गिने-चुने डॉक्टर ही इलाज करते थे। नब्ज देखकर बीमारी पकड़ा करते थे। हॉर्ट, किडनी, सिर, फेफड़े आदि अंगों की स्पेशलाइजेइज्ड सेवाएं नहीं थी। केवल मेडिसिन और सर्जरी की दो यूनिट थी। हॉर्ट की बाइपास के लिए विदेश जाना पड़ता था, लेकिन समय के साथ परिस्थितियां बदली हैं। अब चिकित्सा का चेहरा अत्याधुनिक मशीनें और जांचे हैं। जांचे भी ऐसी आ चुकी है कि डॉक्टर की जगह मशीनें ही मरीज को सही दवा के बारे में बताती हैं। एमआरआई-सीटी स्कैन शरीर में पिन की नोंक बराबर भी समस्या को तुरंत पकड़ लेती हैं। हॉर्ट की बाइपास रोजाना हो रही है। ऑर्गन ट्रांसप्लाट हो रहे हैं। राजस्थान में अब 16 मेडिकल कॉलेज हैं। 15 और खुलने वाले हैं। 8 हजार से ज्यादा अंगों के हिसाब से एक्सपर्ट डॉक्टर हैं।  


तब:  मरीज देखकर बीमारी पकड़ते थे, हॉर्ट बाइपास या बड़ी सर्जरी के लिए विदेश जाना पड़ता था

आजादी के वक्त ना जांचे थीं, ना मशीनें, मरीज को ईथर से बेहोश करते थे
    जयपुर में ही था मेडिकल कॉलेज, 1993 में दूरबीन से और फिर 1998 में हॉर्ट बाईपास सर्जरी शुरू हुई

राजस्थान में 1947 में गंभीर इलाज के लिए जयपुर में एसएमएस मेडिकल कॉलेज ही था। यहां भी केवल मेडिसिन और जनरल सर्जरी के डॉक्टर थे। एसएमएस से 1970 के दशक में डॉक्टरी करने वाले पूर्व अधीक्षक डॉ. नरपत सिंह शेखावत कहते हैं कि तब सीमित रक्त की जांच और एक्स-रे ही होता था। मरीज की परेशानी देखकर डॉक्टर बीमारी पकड़ते थे। सर्जरी चीर-फाड़ से थी। कोई खास तकनीकी नहीं थी। 1950-60 के दशक में हॉर्ट की बाइपास सर्जरी एक बड़ी चुनौती थी। उसके लिए अमेरिका या यूरोप ही सहारा था। आमजन के लिए यह बीमारी आर्थिक समस्या से जानलेवा ही थी।  एसएमएस के सर्जन रहे डॉ. जगदीश शर्मा बताते हैं कि 1974 में एमबीबीएस कर यहीं काम शुरू किया। आजादी के बाद मलेरिया, टीबी, चिकन पॉक्स बड़ी बीमारियां थी, क्योंकि इनकी एडवांस दवा नहीं थी। टीबी पर दर्जनों गोलियां लेनी होती थी। चीर-फाड़ से सर्जरी करते थे। आॅपरेशन के लिए मरीज को ईथर सुंघा कर बेहोश किया जाता था। कई मरीजों को उल्टियां हो जाती थी। ईसीजी-प्लस-सेचुरेशन नापने की कोई मशीन नहीं थी। 1978 में यूरोलॉजी और पीडियाट्रिक्स सर्जरी शुरू हुई। हॉर्ट बाईपास फिर दिल्ली के एम्स, मुंबई के बोम्बे हॉस्पिटल और जेजे हॉस्पिटल में शुरू हुआ। अब तो जयपुर में काफी बाईपास रोजाना हो रहे हैं। आजादी के वक्त तो हड्डी के लेकर सारे आॅपरेशन एक ही सर्जन करता था। सर्जरी में क्रांति 1993 में लेप्रोस्कोपी यानी दूरबीन से आॅपरेशन से आई। यहां डॉ. दिनेश जिंदल इसके पहले सर्जन थे। एसएमएस में यह 1997-98 में शुरू हुई। 1998 में डॉ. रमाकांत सक्सेना, डॉ. करण सिंह यादव पहले हॉर्ट बाईपास सर्जन बनकर आए। तब यह शुरू हुई।

   
अब:  बिन मशीन डॉक्टर अधूरे, जांच से लेकर इलाज तक इनसे ही हो रहे
    सीटी स्कैन-एमआरआई व रोबोटिक सर्जरी से क्रांति आई, कैंसर इलाज में कौनसी दवा कारगर यह भी जांच बताती है
    हॉर्ट अटैक का पता ब्लड टेस्ट से होता है।''

अब बिन मशीन और जांच के डॉक्टर अधूरे हैं। वे रोग को परेशानी से नहीं मशीनों और टेस्टों से पकड़ते है। इसके बाद ही इलाज शुरू होता है। एसएमएस के रेडियोलॉजी हैड डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता बताते हैं कि अल्ट्रा साउंड सोनोग्राफी, कलर डॉपलर, मेमोग्राफी से शरीर के हर अंग का मर्ज पकड़ा जाता है। बॉयोप्सी भी मशीन से हो रही है। पेट-स्कैन जांच से शरीर में कैंसर कहां कितना मारक हो रहा है, यह भी पता लग जाता है। इसके बाद सीटी-स्कैन, एमआरआई से चिकित्सा सेवाओं में क्रांति आ गई है। एंजियोग्राफी से हॉर्ट के ब्लॉकेज चंद मिनटों में बिना चीर-फाड़ किए हटा दिए जाते हैं। अब हॉर्ट की जांच को और अत्याधुनिक जांच कार्डिक-एमआरआई आ गई है। हॉर्ट के हर हिस्से, ब्लॉकेज को तुरंत डायग्नोस कर लिया जाता है। रोबोटिक सर्जरी भी प्रदेश में होने लगी है। डॉक्टर का काम मशीनें करने लगी हैं। पैथोलॉजी की प्रोफेसर व हैड डॉ. रंजना सोलंकी बताती हैं कि मोल्यिक्यूलर डायग्नोसिस से कैंसर के ऊतक, गांठ या ब्लड सैंपल से इलाज में कौन सी दवाइयां कारगर होगी, यह तक पता लग जाता है। ब्लड जांच से हॉर्ट अटैक आने का पता लगता है। लीवर, किडनी सहित शरीर के अधिकांश अंगों की बीमारी ब्लड टेस्ट से हो जाती है।

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