'राजकाज'
जानें राज-काज में क्या है खास
पर्दे के पीछे की खबरें जो जानना चाहते है आप....
यह पब्लिक है...
यह पब्लिक है, सब जानती है......। फिल्मी गाने की इन लाइनों को गुनगुनाने वालों की संख्या कम होने का नाम ही नहीं ले रही। इंदिरा गांधी भवन में बने हाथ वालों के ठिकाने पर हर कोई जानबूझकर इन लाइनों को गुनगुनाता है। कई दिलजले तो मैसेज देने के लिए चाय की दुकान से लेकर पान की थड़ी तक ऊंची आवाज में भी गाते हैं। पीसीसी में खुसरफुसर है कि सूबे की सरकार के चुनाव में पब्लिक ने हाथ वालों को ऑक्सीजन तो दे दी, मगर दिग्गजों के इलाकों में जो कुछ किया, वह सिर्फ खुद ही जानती है। पब्लिक ने मैसेज दे दिया कि अब जल्द ही नए चेहरों की तलाश के लिए कॉम्पिटिशन की जरूरत है। मैसेज को समझने वाले तो समझ गए, ना समझे वो अनाड़ी हैं। बाकी पब्लिक तो सब जानती है।
नजरें कमिश्नरी पर
सूबे में जब भी खाकी वाले साहब लोगों को इधर-उधर करने की सुगबुगाहट होती है, तो कई साहब लोगों का दिन का चैन और रातों की नींद उड़ जाती है। उड़े भी क्यों नहीं, बेचारे जयपुर कमिश्नरेट वाली कुर्सी के लिए दिन भी सपने जो देखते हैं। अब देखो ना, राज लिस्ट तो पता नहीं कब निकालेगा, लेकिन अभी से ही चार नामों की चर्चा कमिश्नरेट से लेकर पीएचक्यू तक जोरों पर है। सबसे ज्यादा चर्चा तो एक मोहतरमा की है, जो भृर्तहरि की धरती से ताल्लुकात रखती है। चर्चा तो पवन के पर्यायवाची नाम वाले साहब की भी है, मगर उन पर जोधपुर की धरा पर पले-पढ़े मेष राशि वाले साहब भारी पड़ रहे हैं। राज का काज करने वाले लंच केबिनों में बतियाते हैं कि जोधपुर वाले अशोकजी भाईसाहब की पसंदीदा लोगों में एक ही बैच के केरल और कर्नाटक वाले दो साहब भी हैं। वैसे भी जादूगरजी दक्षिण पंथी वाले साहब लोगों पर कुछ ज्यादा ही विश्वास करते हैं।
मायने चौपाई के
राज के एक खास रत्न ने रामचरित मानस की रामायण के सुन्दरकाण्ड में लिखी चौपाई क्या सुना दी, भाइयों ने तो कई मायने निकालने ही शुरू कर दिए। इंदिरा गांधी भवन में बने हाथ वालों के दफ्तर में उस चौपाई को कई लोग गुनगुना रहे हैं। राज की मौजूदगी में रत्न ने सुनाया कि सचिव, बैद, गुरु तीन जो, प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीन कर, होई बेगहि नास। भाई लोगों के समझ में नहीं आ रहा कि राज के खास रत्न का इशारा किसकी ओर था।
एक जुमला यह भी
राज का काज करने वालों की जुबान पर आजकल दो नाम चढ़े हुए हैं। इनमें एक सबसे बड़ी सरकारी साहब हैं, तो दूसरे वे अफसर हैं, जिन्होंने प्रेम से राज के खजाने की चाबी संभाल रखी है। दोनों की तारीफ करने वालों की संख्या भी कम नहीं है। बड़ी मैम साहब भी किसी फाइल को अटकाने में कम ही विश्वास करती हैं, तो सरकार के खजाने का मामला इस बार उल्टा है। विभागों के सचिवों को खुद फोन कर फाइल लेकर आने की ताकीद करते हैं। खजाने वाले अफसर साहब की इस दरियादिली से राज-काज निपटाने वाले वे अफसर कायल हैं, जो पहले फाइलों के साथ पुराने वालों के यहां चक्कर लगाते थक चुके हैं।
- एल. एल. शर्मा, पत्रकार
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